“दो साल पहले ओलावृष्टि और भारी बारिश के कारण दो एकड़ में लगी मेरी रबी की फसल पूरी तरह से बर्बाद हो गयी। मेरा खुद का खेत बहुत कम है। दो एकड़ खेत मैंने बटाई पर लिया था। बंदोबस्त के नाम पर खेत के मालिक ने शुरू में ही मुझसे एक मुश्त राशि ले ली थी। बावजूद इसके उनको नुकसान का मुआवजा मिला। और मुझे कर्ज लेना पड़ा। मुझे इसलिए मुआवजा नहीं मिला क्योंकि जमीन के कागजात मेरे नाम से नहीं थे। ये कहना है बटाईदार किसान रामनरेश गौतम का। रामनरेश का गांव बरांव, बिहार की राजधानी पटना से केवल 40 किमी दूर भोजपूर जिले में है।
बटाईदारी का आशय ऐसे किसान से है जो दूसरों की जमीन पर खेती करते हैं और उस फसल का आधा हिस्सा जमीन मालिकों को दे देते हैं। इन लोगों का नाम राजस्व रिकार्ड में दर्ज नहीं होता है, क्योंकि इनके नाम जमीन नहीं होती है। एक अनुमान के मुताबिक अकेले उत्तर प्रदेश में लगभग तीन करोड़ किसान व लगभग एक करोड़ बटाईदार किसान हैं, इसके अतिरिक्त बड़ी संख्या में कृषि मजदूर हैं जो दूसरों के खेत में काम कर अपना गुजर-बसर करते हैं।
एक अध्ययन के मुताबिक जिन लोगों के पास खुद की जमीन है, उनमें से ज्यादातर लोग स्वयं खेती नहीं करते हैं। वे अपने खेत बटाई, अधबटाई और मनठीका (मनहुंडा) पर लगा देते हैं। बटाई पर अपनी जमीन देने वाले किसानों को कुल कृषि लागत का आधा हिस्सा देना होता है, जबकि मनठीका (मनहुंडा) पर अपनी जमीन देने वाले भू-स्वामियों का एक रुपया भी खर्च नहीं होता है। यूं तो बटाईदार किसानों की संख्या सिर्फ 4 फीसदी मानी जाती है, लेकिन सच्चाई यह नहीं है। भारत में 25 फीसदी खेती बटाईदारों के जरिए होती है। इसमें सभी जोखिम बटाईदार उठाते हैं जबकि उन्हें मेहनत का पूरा इनाम नहीं मिलता है। पिछले साल बजट के दौरान वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा था कि बटाई किसानों के लिए उनकी सरकार योजना तैयार कर रही है। लेकिन इस बजट में भी बटाई किसानों को कुछ नहीं मिला।
बीते तीन दशकों में खुद से खेती करने वाले किसानों की संख्या काफी घट गई है। नतीजतन वे अपनी जमीनें बटाई पर लगा देते हैं। भू-स्वामित्व के दस्तावेज नहीं होने की वजह से बटाईदार किसानों को केसीसी लोन सहित किसी भी योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाता। ऐसे में वे किसान गांव के साहूकारों से ऊंची ब्याज दरों पर कर्ज लेते हैं। फसल तैयार होने पर आधा बटाई में चला जाता है और काफी हिस्सा कर्ज चुकाने में।
अगर खेतों में फसल खड़ी है और ओलावृष्टि, तूफान, बेमौसम बारिश होने पर फसल तबाह हो गई फिर भी जिला कृषि विभाग से उन बटाईदार किसानों को कोई मुआवजा नहीं मिलेगा। क्योंकि उनके पास भू-स्वामित्व के दस्तावेज नहीं हैं। फिर शहरों में रहने वाले केसीसी लोन ले चुके वैसे काश्तकार गांव आते हैं। कृषि विभाग में जमीन का दस्तावेज प्रस्तुत कर मुआवजा हासिल कर लेते हैं।
उत्तर प्रदेश, कानपुर देहात के गांव बलुआपुर के रहने वाले किसान महेश राठौर कहते हैं “मैं अपनी खेती के अलावा बटाई पर भी खेती करता हूं। पिछले साल गेहूं की फसल बर्बाद हो गयी थी। लगभग चार हजार रुपए मुआवजे के रूप में खेत के मालिक को मिला था। जबकि नुकसान मेरा हुआ था। मुझे कुछ नहीं मिला।”
हमारी सरकार किसानों की प्राथमिक समस्याओं तक पहुंच ही नहीं पा रही है। किसान क्रेडिट कार्ड (केसीसी) जिसकी शुरूआत वर्ष 1998 में शुरू हुई थी। यह काफी फायदेमंद हैं लेकिन इसका फायदा किन किसानों को मिल रहा है यह एक बड़ा सवाल है। जिन किसानों को इसका वास्तविक लाभ मिलना चाहिए दरअसल उन्हें कुछ नहीं मिलता।
बिहार के मधुबनी जिले के गांव बेनपट्टी निवासी किसान अजय कुमार कहते हैं “आठ बीघा खेत मैंने बटाई पर लिया है। बटाई का सीधा सा मतलब है कि फायदा हुआ तो खेत के मालिक और मेरा, और नुकसान हुआ तो सिर्फ मेरा, क्योंकि नुकसान का मुआवजा तो खेत को मालिक को कुछ हद तक मिल ही जाता है। हमारे हिस्से में केवल नुकसान ही आता है। किसान क्रेडिट कार्ड सहित सभी का लाभ जमीन मालिकों को ही मिलता है।”
यही किस्सा सरकारी फसल खरीद योजना का भी है। इस बार बजट में केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने सभी खरीफ फसलों की न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने की घोषणा की। लेकिन बटाईदार किसानों को यहां भी कोई राहत नहीं। क्योंकि सरकारी फसल खरीद केंद्रों पर उन्हीं किसानों की फसलें खरीदी जाती हैं जिनके पास जमीन के कागजात होते हैं। महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, बुंदेलखंड आदि राज्यों में जहां बड़े पैमाने पर किसान आत्महत्या करते हैं। यहां भू-स्वामित्व के दस्तावेज ही कलेक्टरों और कृषि विभाग को यह समझाने में सफल होते हैं कि आत्महत्या करने वाला किसान वाकई किसान था। कई बार ऐसे मामले विवादों में भी रहे।
महाराष्ट्र के जिला यवतमाल के पाढरकवड़ा निवासी किसान नेमराज राजुरकर कहते हैं “हमारे क्षेत्र में आत्महत्या करने वाले किसानों को मुआवजा या सरकारी योजनाओं का लाभ बस इसलिए नहीं मिला क्योंकि वे बटाईदार किसान थे। मैं भी बटाई पर खेती करता हूं। लेकिन हमें लाभ नहीं मिलता।”
बटाईदार किसान आत्महत्या करता है तो उसके आश्रितों को मुआवजा मिलेगा या नहीं? इस पर सरकारी अधिकारी खुद ही कहते हैं कि सरकार की नजरों में वे किसान नहीं थे, क्योंकि उनके पास भू-स्वामित्व के दस्तावेज नहीं थे। आजादी के सात दशक बाद भी केंद्र और राज्य सरकारें ऐसे किसानों को सूचीबद्ध नहीं कर पाई जो दूसरों की जमीन पर बटाई करते हैं। शायद यही वजह है कि बटाईदार किसानों को केसीसी, सरकारी फसल खरीद, प्राकृतिक आपदाओं से तबाह हुई फसलों का मुआवजा और आत्महत्या करने की स्थिति में सरकार की तरफ क्षतिपूर्ति राशि आदि का लाभ नहीं मिलता है। ऐसे में सवाल उठता है कि किसानों के हित में शुरू की जाने वाली योजनाओं क्या लाभ जिससे मूल किसानों को ही कोई फायदा न हो?
इलाहाबाद ग्रामीण बैंक, बांदा में पदस्थ प्रोबेशनरी ऑफिसर शशांक तिवारी बताते हैं “हम उन्हीं किसानों को मुआवजा या सरकारी योजना का लाभ देते हैं जिनके नाम पर जमीन पर होती है। बटाईदार किसानों को किसी तरह का मुआवजा नहीं मिलता।”
बात सिर्फ फसलों के बर्बादी के बाद मुआवजे की नहीं है, बल्कि अन्य मामलों में भी ऐसा ही होता है। किसान दुर्घटना बीमा योजना के तहत यदि किसी किसान की किन्हीं कारणों से आसामयिक मृत्यु हो जाये, जैसे बिजली गिरने, सांप के काटने से, दुर्घटना होने आदि से तो किसान को दुर्घटना बीमा योजना के तहत लाभ दिया जाएगा। यहां किसान की पात्रता में यह भी है कि किसान का भूमि मालिक होना जरूरी है, अर्थात खतौनी में उसका नाम होना चाहिए। बटाईदारों व भूमिहीनों के लिए यहां भी बाधाएं है। उन्हें इस योजना का लाभ नहीं मिल सकता है।