नैनीताल। कभी प्राकृतिक सुंदरता, स्वस्थ्य वातावरण भरे-पुरे जंगल और पहाड़ी खेती के लिए देश विदेश में विख्यात उत्तराखंड धीरे-धीरे अपनी पहचान खो रहा है। विकास की अंधी दौड़ ने लोगों की सोच और रहन सहन का तरीका बदल दिया है। इसका सीधा प्रभाव क्षेत्र की संरचना में नज़र आ रहा है। अब यहां जंगलों और प्राकृतिक रूप से निर्मित मकानों की जगह कंक्रीट के घर ने ले ली है। बड़े बड़े पांच सितारा होटल बनाने और अधिक से अधिक पैसा कमाने की लालच ने लोगों को खेती किसानी से दूर कर दिया है। परिणामस्वरूप राज्य में खेती के लिए भूमि सिकुड़ती जा रही है।
राजस्व विभाग के आंकड़ों के अनुसार उत्तराखण्ड राज्य गठन के समय 9 नवम्बर 2000 को राज्य में 776191 हेक्टेयर कृषि भूमी थी। जो अप्रैल 2011 में घटकर 723164 हेक्टेयर रह गई। इन वर्षों में 53027 हेक्टेयर कृषि भूमी कम हो गई। इसका सीधा मतलब यह हुआ कि इनते समय अंतराल में औसत 4500 हेक्टेयर प्रतिवर्ष की गति से खेती योग्य जमीन कम हुई है।
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अगस्त 2018 में उत्तराखण्ड हाईकोर्ट ने प्रदेश में घट रही कृषि भूमि की ओर आम जनों का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की थी। इस विषय पर तात्कालीन कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश राजीव शर्मा और मनोज तिवारी की बेंच ने 226950 किसानों द्वारा पर्वतीय क्षेत्र से पलायन करने पर चिंता जताई थी। इस दौरान कोर्ट ने बीते वर्षों में प्रदेश के जनपदों में क्रमशः अल्मोड़ा से 36401, पौड़ी से 35654, टिहरी से 33689, पिथौरागढ़ से 22936, देहरादून से 20625, चमोली से 18536, नैनीताल से 15075, उत्तरकाशी से 11710, चम्पावत से 11281, रूद्रप्रयाग से 10970, बागेश्वर से 10073 किसानों द्वारा पलायन करने की बात कही थी।
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इस पर्वतीय क्षेत्र में 90 प्रतिशत लोग कृषि पर निर्भर हैं। लेकिन वर्त्तमान में केवल 20 प्रतिशत भूमि ही कृषि योग्य बची है, शेष 80 प्रतिशत अप्रयुक्त है या फिर वह बेची जा चुकी है। इस 20 प्रतिशत कृषि भूमि में से भी केवल 12 प्रतिशत ही सिंचित है और 08 प्रतिशत वर्षा आधारित है। शायद इस आंकड़ों से पहाड़ी कृषि की स्थिती का अपको थोड़ा अंदाजा लगने लगा होगा। वास्तविकता को अगर गहराई से देखा जाय तो अंदर स्थिती और भी खराब है।
कुछ वर्ष पहले तक बोरियों के हिसाब से अनाज और खाद्यान्न पैदा करने वाला पहाड़ी किसान, आज अपना पेट भरने के लिए महज 10 से 20 किलों गेंहू और चावल लेने के लिए सस्ते गल्ले की दुकान पर लगी लंबी लाइन में अपनी बारी का इंतजार करते हुए मिलता है। हमारे नीति निर्माताओं ने आज किसान को किस हालत पर पहुँचा दिया है, यह सोचने और विचार करने वाला मुद्दा है।
पर्वतीय कृषि का गहराई से अध्ययन करने से पता चलता है कि इसके कई घटक हैं जो इसे सीधे प्रभावित करते हैं। जिसमें विषम भौगोलिक स्थिति, जलवायु, पारिस्थितीकीय तंत्र, जल की उपलब्धता एवं संग्रहण क्षमता, कृषि कार्य का तकनीकी ज्ञान, खेती किसानी के प्रति रहनवासियों का सोचने का नजरिया एवं दूसरों पर निर्भरता, सामाजिक सहयोग, राजनैतिक इच्छा शक्ति, ग्रामीण विकास से जुड़े विभागों की कार्य शैली जैसे विभिन्न घटक शामिल हैं। किन्तु कुछ मूलभूत घटक हैं जो पर्वतीय कृषि और यहां के बाशिंदों को बहुत अधिक प्रभावित करते हैं। जिसपर चर्चा करना आवशयक है।
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पानी की कमी आज पर्वतीय कृषि ही नहीं यहां के निवासियों के लिए भी समस्या बन चुकी है। लगभग 95 प्रतिशत पर्वतीय कृषि वर्षा पर आधारित है। अगर समय पर बारिश हो गई तो ठीक, नहीं तो फसल खत्म ही समझो। विगत कई वर्षों से यही हो रहा है। ऐसी नदियां जो कभी सालों भर लबालब भरी रहती थीं, वह अब बरसाती नालों में तबदील हो गई हैं।
स्थानीय प्राकृतिक जल स्रोत सूखने की कगार पर पहुंच गए हैं। आलम यह है कि लोगों को पीने का पानी नहीं मिल रहा है। ऐसे में सिंचाई के लिए पानी की उपलब्धता कितना कठिन हो गया है, इसका केवल अंदाज़ा ही लगाया जा सकता है। 90 की दशक के आखिरी वर्षों में जब उत्तराखण्ड को एक पहाड़ी राज्य के रूप में अलग राज्य बनाने की कवायद अपने चरम पर थी, कुछ स्थानीय और बाहरी लोगों ने यहाँ जमीनों की खरीद फरोख्त का काम प्रारम्भ कर दिया।
औने-पौने दामों पर जमीने बेची और खरीदी गईं। इसमें ऊंचाई वाले इलाकों की ज़मीनें भी शामिल थीं। उत्तराखण्ड राज्य के गठन के बाद इस काम में एक बड़ा उछाल आ गया। बाहरी राज्यों के लोगों को यहाँ की प्राकृतिक सुन्दरता और वातावरण काफी पसंद आने लगी। इसी के साथ इन बिकी जमीनों में कंक्रीट के जंगल उगने लगे, आलीशान होटलों और कोठियों का निर्माण होने लगा।
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इस प्रकार के अनियंत्रित निर्माण ने उन प्राकृतिक जल स्रोतों एवं नदियों के जलागम क्षेत्रों को प्रभावित करना शुरू कर दिया जिससे यह रीचार्ज होते हैं। इसके साथ ही इन जमीनों के आस-पास के जल स्रोतों पर उन बाहरी लोगों ने अधिकार स्थापित करना प्रारम्भ कर दिया जिनसे ग्रामीण क्षेत्रों में पानी की आपूर्ति होती थी। कंक्रीट के कारण बारिश का पानी ज़मीन के अंदर न जाकर ऊपरी रूप में बह जाता है। दूसरी ओर असीमित उपयोग से भूमिगत स्रोत लगातार सूखते जा रहे हैं।
प्रश्न यह उठता है कि आखिर इस समस्या का समाधान क्या है? क्योंकि निर्माणाधीन उन बिल्डिंगों को अब तोड़ा जा नहीं सकता लेकिन शेष बची जमीनों को बेचने से तो रोका जा सकता है। इसके साथ ही प्रत्येक गाँव में वर्ष जल संग्रहण के लिए कुछ कम लागत के टैंकों का निर्माण किया जा सकता है। लेकिन यह करने से पहले लोगों को इसकी उपयोगिता के प्रति जागरूक करना आवश्यक है। आखिर इसका लाभ भी तो उन्हें ही मिलना है। इससे लोग अपने स्तर पर वर्षा जल को संरक्षित कर सकेंगे। जिसका प्रयोग जानवरों को पिलाने, खेतों में सिचाई के लिए, अगर ठीक से वर्षा जल को संरक्षित किया जाय तो उसका उपयोग लोग स्वयं पीने के लिए भी कर सकते हैं।
इसके अतिरिक्त पर्वतीय कृषि को जीवित करने के लिए समेकित कृषि को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। इससे किसानों का जोखिम चाहे वह जलवायु परिवर्तन के विपरीत प्रभावों से हो या जंगली जानवरों के कृषि क्षेत्र में बढ़ते दखल से हो, काफी हद तक कम किया जा सकता है। इसके साथ साथ कृषि उत्पादों के विपणन के लिए स्वायत्त सहकारिताओं के माध्यम से विपणन को बढ़ावा दिया जाय, जिसमें संबंधित क्षेत्र के किसानों की भगीदारी हो तथा किसानों को स्वयं के उत्पादों के विपणन हेतु सक्षम बनाने का प्रयास किया जाय।
कृषि उत्पादों का मूल्यवर्धन करने तथा स्वायत्त सहकारिता के माध्यम उसकी ब्रांडिग और विपणन किया जाय। सहकारिता का यह मॉडल इस लिए भी बेहतर माना जाता है, क्योंकि इससे किसानों को कई प्रकार से लाभ मिलता है। यह कुछ इस प्रकार है कि जब किसान अपने किसी उत्पाद को सहकारिता के माध्यम से बेचता है तो उसे बेचने के लिए मंडी नहीं जाना होता, क्योंकि सहकारिता किसान के अपने घर अथवा स्थानीय नजदीकी बाजार से उत्पाद क्रय करती है।
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सहकारिता जब स्थानीय स्तर पर ही कई सारे किसानों से एक साथ अधिक मात्रा में उत्पाद एकत्रित करती है तो इससे परिवहन व्यय की लागत कम हो जाती है। किसान को किसी विचौलियें या आढ़ती को कमीशन नहीं देना होता। इससे किसान को बिना अधिक मेहनत के अपने घर के पास ही उत्पाद की अच्छी कीमत मिल जाती है। स्वायत्त सहकारिता किसान से जो उत्पाद खरीदती है उसकी ग्रेडिंग और पैंकिग कर अच्छी कीमत में मुनाफे के साथ बेचती है, साथ ही उत्पादों की मूल्यवृद्धि भी करते हुये विभिन्न उत्पाद बनाकर बाजार में विपणन करती है।
इससे जो मुनाफा होता है, उसमें से सहकारिता के व्यय काट कर बचे मुनाफे को सहकारिता के शेयर धारकों को बाँट दिया जाता है। यह शेयर धारक कोई और नहीं बल्की वही किसान होते हैं, जो सहकारिता को अपने उत्पाद बेचते हैं। इस प्रकार किसानों को कई प्रकार से लाभ मिलता। किन्तु इस प्रकार की स्वायत्त सहकारिताओं को संचालित करने के लिए किसानों को जागरूक और सहकारिता के प्रति उनकी साझी जवाबदारी को सुनिश्चित करना अति आवश्यक है। इसके लिए स्थानीय युवाओं को संगठित होना होगा।
अपनी ज़मीन और फसल बचानी है तो समाधान भी हमें ही ढूंढना पड़ेगा। समस्या का स्थाई समाधान यह है कि, हमें सामुदायिक रूप से जंगलों को संरक्षित करने में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेना होगा। वन क्षेत्रों में फलदार पेड़ों का वृक्षारोपण करना होगा। यहाँ पर सामुदायिक रूप से इस लिए भी कहा जा रहा है कि, जंगलों में लगने वाली आग के लिए 90 प्रतिशत इंसान ही जिम्मेदार होता है।
पंकज सिंह बिष्ट, मुख्य कार्यकारी अधिकारी, अलख स्वायत्त सहकारिता,मुक्तेश्वर (नैनीताल)
साभार: चरखा फीचर्स