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आम किसानों की दुश्मन हैं ये 10 मुश्किलें

देश की अर्थव्यवस्था में अहम योगदान देने वाला एक आम किसान जब खेती करना शुरू करता है तो उसके सामने मुश्किलों का एक बड़ा पहाड़ खड़ा रहता है।
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अपनी छोटी सी जमीन पर खेती कर देश की अर्थव्यवस्था में अहम योगदान देने वाला एक आम किसान जब खेती करना शुरू करता है तो उसके सामने मुश्किलों का एक बड़ा पहाड़ खड़ा रहता है।

बड़े किसानों की अपेक्षा भारत में लघु और सीमांत किसानों की संख्या आज भी सबसे ज्यादा है। वर्ष 2011 की कृषि जनगणना के अनुसार भारत में किसानों की कुल जनसंख्या में 17.93 प्रतिशत लघु किसान हैं, जबकि 67.04 प्रतिशत सीमांत किसान परिवार हैं।

लघु किसान वे हैं जिनकी खेत की जोत का आकार एक से दो हेक्टेयर (02 से 05 एकड़) तक होता है, जबकि सीमांत किसान वे हैं जिनकी जोत का आकार एक हेक्टेयर (2.5 एकड़) से भी कम है।

ऐसे में छोटी जोत वाले किसान के लिए बदलते दौर में खेती करना दिनों-दिन मुश्किल होता जा रहा है। यही कारण है कि देश के 19 राज्यों में हाल में हुए गाँव कनेक्शन सर्वे में सामने आया कि देश में 48 फीसदी किसान परिवार नहीं चाहते कि उनकी आने वाली पीढ़ी खेती करे।

देश के आम किसानों के लिए ऐसी कौन सी मुश्किलें हैं जिन्हें सरकार की तमाम योजनाएं भी फायदा नहीं पहुंचा पा रही हैं और वे रोजगार के लिए दूसरे विकल्प तलाश रहे हैं।

1. किसान जो उगाता है, उसे नहीं मिलते पूरे पैसे

वर्ष 2000 से 2017 के बीच देश के किसानों को उपज की सही कीमत न मिलने की वजह से 45 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। (फोटो : गांव कनेक्शन) 

हाल में गाँव कनेक्शन ने सर्वे के तहत जब देश के 19 राज्यों के 18,267 किसानों से सवाल किया कि आपकी नजर में आज खेती की सबसे बड़ी समस्या क्या है तो 43.6 प्रतिशत किसानों ने स्वीकार किया कि उनके लिए सबसे बड़ी समस्या है उनकी उपज की सही कीमत न मिलना।

आर्थिक सहयोग विकास संगठन और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (OECD-ICAIR) ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि वर्ष 2000 से 2017 के बीच देश के किसानों को उपज की सही कीमत न मिलने की वजह से 45 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है।

मध्य प्रदेश के बैतूल जिले के सांडियां गाँव के रहने वाले और सोयाबीन की खेती कर रहे किसान अजय लाकरे (41 वर्ष) ‘गांव कनेक्शन’ से फोन पर बताते हैं, “हमारे क्षेत्र से महाराष्ट्र की मंडी 140 किमी. दूर है और छिंदवाड़ा में बड़ी मंडी 135 किमी. दूर। अगर किसान सोयाबीन बेचने के लिए मंडी जाता है तो 4000 से 4200 रुपए तक मिले, मगर मंडी जाने तक का भाड़ा ही किसान की लागत बढ़ा देता है तो मजबूरी में 3500-3600 रुपए में स्थानीय व्यापारियों को बेचता है। किसान मंडी क्यों जाएगा, किसान के पास कोई दूसरा विकल्प है ही नहीं।”

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अजय कहते हैं, “जब सरकार किसानों की उपज का एक रुपया दाना कर दे रही है तो किसान कहां से खेती करेगा? अगर किसान मंडी जाता है और व्यापारी को अपनी उपज बेचता भी है तो आने-जाने का खर्चा जोड़कर उसकी लागत तक नहीं निकलती है। जब किसान की पूरी मेहनत में सिर्फ 50-500 रुपए ही मिलेगा तो किसान तो अपनी फसल सड़क पर फेकेंगा ही।”

वहीं उत्तर प्रदेश के पीलीभीत जिले के पैनिया रामकिशन गांव में धान, गेहूं के अलावा ज्यादातर किसान गन्ना उगाते हैं।

इसी गांव के गन्ना किसान श्रीपाल वर्मा बताते हैं, “मैं एक छोटा किसान हूं, हमने पिछले साल ढाई एकड़ में 01 हजार कुंतल गन्ना उगाया, मगर चीनी मिल में सिर्फ 50 प्रतिशत की ही हमारी पर्ची बनी। जैसे-तैसे हमें आधा गन्ना बेचा भी मगर अभी तक उसका पैसा भी नहीं मिल पाया है।”

“अब आधा गन्ना तो हमारा बच गया जो हमें छोटे कोल्हू व्यापारियों को 100 से 150 रुपए में बेचना पड़ा। चीनी मिलों में बड़े किसानों की तो कई पर्चियां बन जाती हैं, मगर छोटे किसानों की पूरी उपज भी नहीं बिक पाती है,” श्रीपाल कहते हैं, “हमने साल भर मेहनत कर 1000 कुंतल गन्ना उगाया तो उसका भी हम छोटे किसानों को पूरा पैसा नहीं मिल पाता है, जैसे-तैसे थोड़ा बहुत मुनाफा हो जाए, तो बड़ी बात है।”

2. बीज ही नकली, उर्वरक और खाद भी नकली

बड़ी-बड़ी कंपनियों के नाम पर दुकानों पर बेचे जा रहे ये नकली बीज व मिलावटी खाद का शिकार आम किसान बन रहे हैं। (फोटो : गांव कनेक्शन) 

अच्छी खेती का आधार अच्छे बीज होते हैं। अगर अच्छे बीजों का उपयोग हो तो उपज की पैदावार 20 प्रतिशत तक बढ़ सकता है, मगर आज नकली बीज, उर्वरक और खाद का बाजार अपने देश में लगातार बढ़ता जा रहा है और बड़ी-बड़ी कंपनियों के नाम पर दुकानों पर बेचे जा रहे ये नकली बीज व मिलावटी खाद का शिकार आम किसान बन रहे हैं।

हाल में नकली बीज, खाद और उर्वरक में मिलावट करने वाले विक्रेताओं के खिलाफ मध्य प्रदेश में ‘शुद्ध के लिए युद्ध’ का अभियान चलाया गया, जबकि इससे पहले अक्टूबर में मध्य प्रदेश के बेतूल जिले में नकली बीजों की वजह से 200 किसानों की धान की फसल बर्बाद हो गई।

बेतूल जिले के बडगी बुजुर्ग गांव के सीमांत किसान गोविंद मंडल (40 वर्ष) ‘गांव कनेक्शन’ से बताते हैं, “हमारे यहां किसानों ने सुपर डुपर कंपनी के धान के बीज खरीद कर खेतों में बोए थे। मगर किसान की इतनी मेहनत के बाद भी धान निकलने से पहले ही बाली पूरी तरह सूख गई और एक भी दाना नहीं निकला।”

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गोविंद कहते हैं, “एक छोटा किसान कर्जा लेकर खेती करता है, मैंने खुद दो एकड़ में 12 किलो धान के बीज खरीद कर लगाए थे, मगर मेरा पूरा खेत स्वाहा हो गया है। जानवर भी उसे नहीं खा रहे हैं।”

वहीं बिहार के पश्चिमी चंपारण के शिवपट्टी गांव के सीमांत किसान आदित्य कुमार पाण्डेय बताते हैं, “हमारा इलाका काफी पिछड़ा है तो कई बार किसानों को सही बीज नहीं मिल पाता है। किसान दुकान पर बीज खरीदने जाता है और उस पर कोई मार्क भी नहीं होता। बस भरोसे पर किसान बीज ले आता है।”

“मैंने खुद पिछले साल आधे एकड़ (06 कट्टा) में मक्का बोया था, मगर नकली बीज की वजह से फली ही नहीं आ पाई। इतनी मेहनत के बावजूद हमारी फसल बर्बाद हो गई तो हमें जानवरों को अपनी फसल खिलानी पड़ी।”

3. खेतों की सिंचाई बड़ी समस्या

देश में आधे से ज्यादा किसान सिंचाई की व्यवस्था न मिलने से होते हैं परेशान । (फोटो : गांव कनेक्शन)

वर्ष 2011 की कृषि जनगणना के अनुसार देश की कुल कृषि योग्य भूमि 18.5 करोड़ हेक्टेयर है जिसमें सिर्फ 6.47 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में किसानों के लिए खेतों में सिंचाई की व्यवस्था है। इनमें भी 45 प्रतिशत क्षेत्र में किसान सिंचाई ट्यूबवेल, नहरों और कुओं से करते हैं।

मध्य प्रदेश के बैतूल जिले के सांडियां गाँव के रहने वाले किसान अजय लाकरे (41 वर्ष) बताते हैं, “हमारे क्षेत्र में सोयाबीन और मक्के की ज्यादा खेती होती है क्योंकि सिंचाई के लिए पानी किसानों को बड़ी मुश्किल से मिलता है। पहली बात, यहां की मिट्टी चिकट मिट्टी है यानी काली मिट्टी जो पानी ज्यादा मांगती है। दूसरा यह कि जल स्तर भी गिर चुका है और 800 से 1200 फीट पर पानी मिलता है।”

“एक छोटा किसान कैसे सिंचाई करेगा, ट्यूबवेल से करता है तो लागत बढ़ती है। मैंने ट्यूबवेल लगवाया है, मगर सिर्फ ट्यूबवेल के सहारे खेत की सिंचाई नहीं होती। इसलिए हमें कुएं के लिए तैयारी करनी पड़ी,” किसान अजय आगे कहते हैं, “प्रकृति भी हमारा साथ नहीं देती, इस साल ज्यादा बारिश की वजह से हमारे क्षेत्र के कई किसानों की फसलों को नुकसान हुआ है, पिछले साल बारिश ही बहुत कम हुई, ऐसे में एक किसान कैसे खेती करेगा।”

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वहीं हिमाचल प्रदेश के शिमला के थियोग तहसील के देवरीधार गांव के सीमांत किसान संदीप कुमार वेक्ता ‘गांव कनेक्शन’ से फोन पर बताते हैं, “हमारे क्षेत्र में कई छोटे किसान हैं जो ऊपर पहाड़ियों पर खेती करते हैं। ज्यादातर किसान खेती के लिए बारिश पर ही निर्भर रहते हैं। बड़े किसान तो बारिश का पानी सिंचित कर लेते हैं, मगर छोटे किसानों के लिए यह मुमकिन नहीं होता। अगर प्रकृति ने साथ दिया तो अच्छा है, नहीं तो छोटे किसानों को सिंचाई के लिए पानी के टैंकर मंगाना पड़ता है।”

“अब भला पानी के टैंकर से कितनी सिंचाई हो पाती है, दो-तीन बार भी सिंचाई करनी पड़े तो समझ लीजिए उतनी लागत भी बढ़ती जाती है,” संदीप आगे कहते हैं।

4. नकली और प्रतिबंधित कीटनाशक

हमारे देश में खेतों में करीब 250 तरह के कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जा रहा है। (फोटो : गांव कनेक्शन)

हमारे देश में खेतों में करीब 250 तरह के कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जा रहा है। इनमें से 18 कीटनाशक सबसे घातक माने गए हैं। दूसरी ओर 140 ऐसे कीटनाशक बिक रहे हैं जो एक या एक से ज्यादा देशों में प्रतिबंधित किए गए हैं।

वहीं नकली कीटनाशकों का बाजार भी लगातार बढ़ रहा है जिसमें देश का आम किसान ठगा जा रहा है। मध्य प्रदेश में हाल में चले ‘शुद्ध के लिए युद्ध’ अभियान के तहत सिर्फ इंदौर में प्रतिष्ठित कंपनियों के नाम से बेचे जा रहे नकली कीटनाशकों के कई कारखानों पर कार्रवाई की गई और 31 मिलावटखोरों के खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत कार्रवाई की गई। मगर देश का आम किसान नकली कीटनाशकों के फेर में फंसता जा रहा है।

फिक्की और टाटा स्ट्रैटजिक मैनेजमेंट ग्रुप (टीएसएमजी) की एक रिपोर्ट के अनुसार भारतीय फसल संरक्षण रसायन उद्योग 2019 तक बढ़कर 51 खरब रुपए का हो जाएगा।

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हरियाणा के सोनीपत जिले के धनाना गांव में रहने वाले किसान मंगलदीप धुल ‘गांव कनेक्शन’ से फोन बताते हैं, “एक किसान कीटनाशकों के लिए ग्रामीण क्षेत्र के पास की दुकानों पर ही निर्भर रहता है। ऐसे में एक आम किसान का नकली कीटनाशकों के फेर में आना तय ही मानिये।”

“पिछले साल मैंने खुद अपने धान के खेत में दुकान से ‘विल्टाको’ नाम की कंपनी का कीटनाशक लिया, मगर वह नकली निकला। मैंने एक एकड़ के लिए 750 रुपए के हिसाब से उस कीटनाशक पर खर्चा किया जिसमें न सिर्फ मेरा काफी पैसा बर्बाद गया, यह तो कहिए फसल पर असर न पड़ने पर मैं समय पर पहचान गया और दूसरा कीटनाशक खरीद कर खेत में डाला, वरना मेरी पूरी फसल बर्बाद हो जाती। कई किसान पहचान नहीं पाते और कीटनाशक डालते रहते हैं, और अंत में फसल बर्बाद हो जाती है।”

वहीं पश्चिमी ओडिशा के बरगढ़ जिले में कीटनाशकों की वजह से कई किसानों को कैंसर होने की खबरें सामने आई हैं। गरीब किसान कीटों के हमले से निपटने के लिए कीटनाशक कारसीनोजेनिक का उपयोग करने के लिए मजबूर हैं। इतना ही नहीं, कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग से कई किसानों की धान की फसल चौपट हो गई।

जिले के नजदीक सम्बलपुर जिले स्थित वीर सुरेंद्र साई चिकित्सा विज्ञान और अनुसंधान संस्थान (विमसार) के फार्माकोलॉजी विभाग के अशोक पाणिग्रही ने पत्रकारों को बताया कि वैज्ञानिक दस्तावेज बरगढ़ में फैल रहे कैंसर की वजह कीटनाशकों को बता रहे हैं। यहां पर कैंसर प्रभावित मरीजों की औसत उम्र 50 साल है।

पाणिग्रही ने बताया, “सरकार ने भूजल के दूषित होने को लेकर कोई परीक्षण नहीं किया है, मगर यह सही है कि बरगढ़ में कैंसर के मामलों की अत्यधिक संख्या का कारण कीटनाशक ही हैं।”

5. प्राकृतिक आपदाएं

बाढ़ की वजह से देश में हर साल 1679 करोड़ रुपए की फसल का नुकसान हो रहा है। (फोटो : गांव कनेक्शन)

अपने देश में इस साल जहां बंगाल, असम, बिहार, महाराष्ट्र, गुजरात, केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु समेत 12 राज्य जहां बाढ़ से प्रभावित रहे, वहीं सूखे से पूर्वी महाराष्ट्र, बिहार और राजस्थान के कई जिले भी प्रभावित रहे। सूखे से प्रभावित इन दोनों राज्यों में मानसून का आधा सीजन बीतने के बाद बारिश के संकेत नजर आए।

पिछले साल राज्य सभा में एक सवाल के जवाब में जल संसाधन मंत्रालय की ओर से बताया गया कि बाढ़ की वजह से देश में हर साल 1679 करोड़ रुपए की फसल का नुकसान हो रहा है। सिर्फ बिहार के मुजफ्फरपुर में इस साल 23,309 किसानों की 11 करोड़ 75 लाख रुपए की फसल बर्बाद हो गई।

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बिहार के मोकामा टाल के त्रिमोहान के सीमांत किसान सुरेंद्र ‘गांव कनेक्शन’ से बताते हैं, “पहले हमारी धान की फसल बाढ़ की वजह से पूरी तरह बर्बाद हो गई। फिर दाल की फसल लगाने पर भी संकट आ गया। खेत में नवंबर तक इतना पानी भरा रहा कि हम दाल की बुवाई ही नहीं कर पाए। हमारे क्षेत्र के सभी किसानों की फसलें बर्बाद हो गईं।”

वहीं असम के जिला गोलाघाट के पोडुमोनी ब्लॉक के नोपामुआ गांव के रहने वाले किसान नबाज्योति साइका ने ‘गांव कनेक्शन’ से फोन पर बताया, “पिछले साल भी हमारी फसल को नुकसान हुआ था, इस बार सोचा था कि धान लगाकर नुकसान की भरपाई हो जाएगी, लेकिन पूरी फसल बाढ़ में बह गई। हमारा कम से कम तीन लाख रुपए का नुकसान हुआ है।”

6. छुट्टा जानवर और नये कीट व रोग

 हरियाणा राज्य के किसान सबसे ज्यादा छुट्टा जानवरों से परेशान रहे। (फोटो : गांव कनेक्शन)

भारत के ग्रामीण मीडिया प्लेटफार्म गांव कनेक्शन के मई 2019 में हुए ग्रामीण भारत के एक सर्वे में सामने आया कि हर दो में से एक ग्रामीण छुट्टा जानवरों से परेशान है। इस सर्वे में 19 राज्यों के 18,267 ग्रामीणों से राय ली गई। इसमें 43.6 फीसदी लोगों ने माना कि छुट्टा पशुओं की समस्या नहीं थी लेकिन अब यह एक समस्या बन गई। वहीं हरियाणा राज्य के किसान सबसे ज्यादा छुट्टा जानवरों से परेशान रहे, सर्वे में सामने आया कि यहां 87 फीसदी से ज्यादा किसान छुट्टा जानवरों से परेशान हैं।

उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले के मंदाकिनी घाटी में रहने वाले किसान विजय कुमार ‘गांव कनेक्शन’ से बताते हैं, “पहले हमारे गांवों में बंदरों और सुअरों का आतंक था, मगर अब गांवों से लोग बड़ी संख्या में पलायन कर गए हैं और अपने जानवरों को छुट्टा छोड़ गए।”

विजय कहते हैं, “ये छुट्टा जानवर अब बड़ी संख्या में हो चुके हैं और किसानों की फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं। आलम यह है कि किसान दिन-रात अपने खेतों की रखवाली करते हैं। कई किसानों ने पैसे इकट्ठा करके इन बैल-गायों को एकत्र कर जंगलों की तरफ छोड़ा मगर कुछ दिनों बाद ये जानवर फिर नीचे आ गए, मगर यह समस्या दिन पर दिन बढ़ रही है।”

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वहीं पिछले साल कर्नाटक के चिकबल्लापुर जिले के गौरीबिदनुर में स्पीडओप्टेरा फ्रूजाइपेर्डा प्रजाति के कीट ने किसानों की मक्के की फसलों को बड़ी संख्या में नुकसान पहुंचाया। यह एक प्रवासी कीट था और अमेरिका से लेकर कनाडा, चिली और अर्जेंटीना के विभिन्न हिस्सों में आमतौर पर पाया जाता है।

इस तरह के नये और प्रवासी कीट भी किसानों की फसलों के लिए बड़ी समस्या बन कर उभरे हैं और उनकी रोकथाम के उपाय करना मुश्किल साबित हो रहा है।

महाराष्ट्र के जलगांव जिले के जामनगर तहसील के किन्ही गांव के किसान सचिन सोनगिरे (31 वर्ष) ‘गांव कनेक्शन’ से बताते हैं, “यहां कई छोटे किसान हैं जो कपास और मक्का उगाते हैं। हमारे यहां पिछले साल फसल में पिंक बॉलवर्म कीट लगा तो हमें पांच से छह बार तक कीटनाशकों का स्प्रे करना पड़ा। नये-नये तरह के कीट आज फसलों को बर्बाद कर रहे हैं, बचा खुचा बारिश ने पूरा कर दिया, पिछले साल बारिश कम हुई तो कपास के फूल ही खत्म हो गए। किसानों को बहुत नुकसान हुआ।”

7. फसल बीमा का नहीं मिलता मुआवजा

प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में किसानों का घट रहा नामांकन । (फोटो : गांव कनेक्शन)

किसानों की फसलों का नुकसान होने पर केंद्र सरकार की ओर से वर्ष 2016 में शुरू की गई प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना से भी किसानों की रुचि कम होती जा रही है। योजना के मुताबिक, नुकसान होने पर किसान को दो महीने के अंदर भुगतान होना चाहिए, मगर किसानों को 06 महीने से लेकर एक साल तक पैसा मिलने के लिए इंतजार करना पड़ रहा है।

हाल में आईआईएम अहमदाबाद के सेंटर ऑफ मैनेजमेंट इन एग्रीकल्चर की रिपोर्ट ‘प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का प्रदर्शन और मूल्यांकन’ के अनुसार वर्ष 2017-18 में कुल 5.01 करोड़ किसानों ने बीमा के लिए नामांकन कराया था। यह संख्या वर्ष 2016-17 के मुकाबले 10 फीसदी कम रही। उत्तर प्रदेश, राजस्थान, केरल, महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और गोवा समेत कई राज्यों में बीमा के लिए नामांकन कराने में सबसे ज्यादा गिरावट देखी गई।

प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना को लेकर देश के किसानों की आम राय बनती जा रही है कि किसानों और सरकार का पैसा बीमा कंपनियां हड़प रही हैं। भारत सरकार के कृषि मंत्रालय ने वर्ष 2018 में अपनी रिपोर्ट में बताया कि फसल बीमा योजना से किसानों से ज्यादा कंपनियों को फायदा पहुंच रहा है और वर्ष 2017-18 के खरीफ सीजन में इन बीमा कंपनियों का मुनाफा 85 फीसदी रहा।

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इस साल मध्य प्रदेश के दमोह जिले में बारिश की वजह से कई किसानों की फसलें बर्बाद हो गईं। इसमें जिले के रामनापिपरिया गांव के किसान महेंद्र पटेल की सोयाबीन की भी पूरी फसल बर्बाद हो गई, जबकि उन्होंने फसल बीमा करा रखा था।

महेंद्र पटेल ‘गांव कनेक्शन’ से बताते हैं, “बीमा के क्लेम के नाम पर जवाब मिलता है कि कलेक्टर के पास फाइल भेज देंगे, फिर सरकार के पास भेज देंगे। कोई ऐसी स्थिति नहीं होती है कि किसानों के नुकसान का जल्द आकलन कर उसकी समस्या का समाधान किया जाए।”

“जैसे किसान भगवान भरोसे है, वैसे ही प्रशासन सरकार भरोसे है, जवाब मिलता है कि जब सरकार की ओर से आएगा तो हम करेंगे। ऐसे में एक आम किसान क्या करेगा। हमारी सोयाबीन की फसल पूरी बर्बाद हो गई, हमारे क्षेत्र के कई किसानों को इस बार बड़ा नुकसान हुआ है।”

वहीं मध्य प्रदेश के हरदा जिले के गांव आलनपुर के सोयाबीन के किसान ज्ञानेश खेरवार बताते हैं, “मेरे पास दो किसान क्रेडिट कार्ड हैं और साल 2017 में दोनों से मिलाकर 3500 रुपए काटे गए थे। उस साल मेरी सोयाबीन की फसल बर्बाद हो गई थी।”

ज्ञानेश आगे कहते हैं, “मुझे 13 महीने के बाद क्लेम की राशि प्रति एकड़ 1520 रुपए के हिसाब से 16000 रुपए ही मिले। अगर मेरी फसल सही होती तो मुझे कम से कम दो लाख रुपए मिलते। एक तो किसान को जब पैसों की जरूरत थी तो उसे समय पर पैसे नहीं मिले तो क्या फायदा, दूसरों से उधार लेकर काम चलाना पड़ा।”

8. सरकारी फसल खरीद केंद्र में उपज नहीं बेच पाते किसान

 देश का 94 प्रतिशत किसान सरकारी खरीद केंद्र में अपनी उपज बेच ही नहीं पाता है। (फोटो : गांव कनेक्शन)

किसानों को अपनी उपज बेचने के लिए केंद्र सरकार ने 23 फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तय किया हुआ है और सरकारी खरीद केंद्र में किसान अपनी उपज बेच कर फसल की सही कीमत पा सकता है। मगर हकीकत यह है कि देश का 94 प्रतिशत किसान सरकारी खरीद केंद्र में अपनी उपज बेच ही नहीं पाता है।

वर्ष 2015 में भारतीय खाद्य निगम के पुनर्गठन का सुझाव देने के लिए बनी शांता कुमार समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ सिर्फ 6 प्रतिशत किसानों को ही मिल पाता है। वहीं नीति आयोग की 2016 की एक रिपोर्ट के अनुसार 81 फीसदी किसानों को यह मालूम था कि सरकार कई फसलों पर एमएसपी देती है।

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उत्तर प्रदेश के लखीमपुर तहसील के निपनियां गांव के किसान राघवेंद्र सिंह ‘गांव कनेक्शन’ से बताते हैं, “सरकारी खरीद केंद्र ज्यादातर संस्थाएं चलाती हैं। कई बार केंद्र के लोग मंडी के व्यापारियों और बिचौलियों के साथ सांठगांठ बैठा लेते हैं। जब किसान खरीद केंद्र में अपनी उपज बेचने के लिए पहुंचता है तब उसकी उपज नहीं खरीदी जाती है। ऐसे में मजबूर किसान कम रुपयों में अपनी उपज बिचौलियों को बेचने को मजबूर होता है तो भला किसान को उपज का सही दाम कैसे मिले सकेगा ?”

वहीं राजस्थान के प्रतापगढ़ जिले के मुनेरिया गांव के किसान पुष्कर मीना ‘गांव कनेक्शन’ से फोन पर बताते हैं, “किसान चाहता है कि वह अपनी उपज बेचे तो उसे तुरंत पैसा मिल जाए। ऐसा सरकारी खरीद केंद्र में होता नहीं, छोटा किसान अपनी उपज स्थानीय व्यापारियों या फिर मंडी में जाकर बेच देता है क्योंकि उसे तुरंत पैसा मिल जाता है, भले ही थोड़ा नुकसान हो, मगर अगली फसल के लिए पैसा मिल जाता है।”

9. खेती की बढ़ती लागत

ओईसीडी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि पिछले दो दशकों से किसान की आमदनी स्थिर है। (फोटो : गांव कनेक्शन)

खेती की बढ़ती लागत भी किसानों के लिए आज एक बड़ी समस्या बन चुकी है। एक रिपोर्ट के अनुसार डीजल-उवर्रक महंगा होने से गेहूं की लागत ढाई से तीन हजार रुपए प्रति एकड़ तक बढ़ जाती है। डीजल, डीएपी, पोटाश, पंपिंग सेट सिंचाई, ट्रैक्टर जुताई, कीटनाशक, ये सभी किसानों के लिए पहले की अपेक्षा महंगे साबित हो रहे हैं।

ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकनॉमिक कॉरपोरेशन एंड डेवलपमेंट (ओईसीडी) ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि पिछले दो दशकों से किसान की आमदनी स्थिर है। अगर फसल के दाम बढ़े हैं तो इसके अनुपात में लागत ज्यादा बढ़ी है।

मध्य प्रदेश के बेतूल जिले के बडगीबुजुर्ग गांव के किसान दिलीप यादव ‘गांव कनेक्शन’ से बताते हैं, “आज खेती करने में सब चीज महंगी हो गई। बीज महंगा, खाद महंगा, डीएपी महंगी, ट्रैक्टर की जुताई महंगी है, डीजल महंगा है, लागत इतनी ज्यादा है कि किसान को मुनाफा तो छोड़िए लागत निकालना मुश्किल है। मगर किसान के पास दूसरा विकल्प नहीं होता है।”

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दिलीप आगे बताते हैं, “इस बार हमारे खेत में गेहूं की बुवाई एक महीना देर हो गई तो अब बैलगाड़ी का समय तो है नहीं, तो खेत में रोटावेटर मशीन चलाना पड़ा। रोटावेटर मशीन चलाने के ही एक घंटे के 500 रुपए लग गए तो एक किसान कैसे खेती करता है वही जानता है।”

वहीं मध्य प्रदेश के बेतूल जिले के बडगीबुजुर्ग गांव के किसान सियाराम यादव बताते हैं, “खेती की लागत बहुत तेजी से बढ़ रही है और इतना ही नहीं, जैसे हमारे यहां इस समय यूरिया मिलना मुश्किल है। अब छोटे किसान 350-400 रुपए की मिलने वाली यूरिया को 500 रुपए में खरीदने को मजबूर होता है क्योंकि उसे खेत में डालना ही है, वरना उत्पादन पर कम होता है। एक तरफ जहां मजदूरी और सब चीज महंगी हो रही है, दूसरी तरफ किसान ठगा भी जाता है।”

10. कर्ज लेना मजबूरी

हाल में कई राज्यों में विधान सभा चुनाव के दौरान किसानों की कर्जमाफी बड़ा मुद्दा बनकर उभरा। (फोटो : गांव कनेक्शन)

हाल में कई राज्यों में विधान सभा चुनाव के दौरान किसानों की कर्जमाफी बड़ा मुद्दा बनकर उभरा और इस चर्चा ने जोर पकड़ा कि कृषि संकट को खत्म करने के लिए कर्जमाफी ही वह ब्रह्मास्त्र है जिससे किसानों की समस्याएं खत्म हो जाएंगी।

देश के कई राज्यों में कर्जमाफी हुई। इस पर भी कई राज्यों के किसानों ने असंतोष जताया कि उनका पूरा ऋण नहीं माफ किया गया। जबकि हकीकत यह है कि छोटे किसान खेती के लिए हर बार कर्ज लेने को मजबूर होते हैं और न चुका पाने पर किसान आत्महत्या करने को मजबूर होते हैं। किसानों की आत्महत्या के मामले में महाराष्ट्र का मराठवाड़ा बदनाम हो चुका है।

बीते साल मध्य प्रदेश की कमलनाथ सरकार ने राज्य में सरकार बनते ही दस दिनों के अंदर किसानों का दो लाख रुपए तक का कर्ज माफ करने का वादा किया था, मगर असलियत यह है कि अभी भी किसानों का कर्जा माफ नहीं हो सका है।

मध्य प्रदेश के राजगढ़ जिले के नरसिंहगढ़ तहसील में किसान शिवा डांगी डेढ़ एकड़ जमीन पर गेहूं, सोयाबीन और मक्का की खेती करते हैं।

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किसान शिवा डागी ‘गांव कनेक्शन’ से बताते हैं, “सरकार ने दस दिनों में दो लाख रुपए तक बैंक का कर्ज माफ करने की बात कही थी, मगर एक साल से ज्यादा बीत गया और हमारा डेढ़ लाख रुपए का बैंक का कर्ज अभी माफ नहीं हुआ है।”

किसान के कर्ज लेने की मजबूरी के सवाल पर शिवा कहते हैं, “हर बार कर्ज लेना तो हम जैसे किसानों की मजबूरी है। सोयाबीन की फसल बर्बाद हो गई थी तो बैंक से कर्ज लिया था, मगर अब साहूकारों से कर्ज लेकर खेती कर रहे हैं। खेती तो करनी है परिवार का पेट भरने के लिए।”

वहीं मध्य प्रदेश के ही छिंदवाड़ा जिले के जिंगावानी गांव के किसान प्रवीण सूर्यवंशी ‘गांव कनेक्शन’ से फोन पर बताते हैं, “किसानों की फसल का सही दाम मिले तो किसान कर्ज क्यों लें। मगर ऐसा होता नहीं। खेती की बढ़ती लागत की वजह से हर बार कर्ज लेना तो छोटे और सीमांत किसानों के लिए मजबूरी है।”

“ज्यादातर छोटे किसान साहूकारों से ही कर्ज लेते हैं क्योंकि वे बैंक की लिखा-पढ़ी नहीं कर पाते हैं और जागरूक भी नहीं है। कभी खाद के लिए, कभी बीज के लिए कर्ज लेते हैं, अगर फसल खराब हो गई तो फिर कर्ज लेते हैं और कर्ज के तले दबे रहते हैं, वे मजबूर हैं क्योंकि उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है, पैसा नहीं होता तो बदले में अपनी उपज देनी पड़ती है,” प्रवीण आगे कहते हैं।

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