उकठा रोग से दलहन-तिलहन व अमरूद जैसी फसलें बर्बाद हो जाती हैं, इनसे बचाव के लिए किसान रसायन का छिड़काव करते हैं, लेकिन कोई फायदा नहीं होता, लेकिन अब किसान उसके साथ दूसरी फसल लगाकर उकठा से बचाव कर सकते हैं।
सनई अनुसंधान केन्द्र, प्रतापगढ़ के वैज्ञानिकों ने देश की पहली कीटनाशक सनई की नयी प्रजाति ‘प्रांकुर’ विकसित की है। जहां दूसरी सनई का उत्पादन एक हेक्टेअर में सात-आठ कुंतल होता है, जबकि ‘प्रांकुर’ से 11 से 13 कुंतल उत्पाद प्रति हेक्टेअर आसानी से पाया जा सकता है। इस फसल की खेती नगदी फसल के रूप में भी अप्रैल से जुलाई के बीच में की जा सकती है।
अभी तक किसान सनई का उपयोग हरी खाद और रस्सी बनाने के लिए ही करते आए हैं, लेकिन अब किसान इसका प्रयोग उकठा रोग से छुटकारा पाने के लिए भी कर सकते हैं। गहरी जड़ वाली फसल होने के कारण यह मिट्टी की उर्वरता भी बढ़ाती है। सेंट्रल वेरायटी रिलीज कमेटी की मुहर लगने के बाद कृषि मंत्रालय ने इस फसल को उगाने की अनुमति भी दे दी है।
सनई की ‘प्रांकुर’ प्रजाति को साल 2010 में ऑल इंडिया नेटवर्क प्रोजेक्ट के माध्यम से देश के विभिन्न हिस्सों में पूर्व में प्रचलित और विकसित की गयी सनई की प्रजाति के -12 येलो, और शैलेश की तुलना के लिए परीक्षण किया गया।
परीक्षण में सफलता मिलने पर साल 2011 और 2012 में एडवांस वेराइटल ट्रायल किया गया। इन दोनों परीक्षणों में भी ‘प्रांकुर’ प्रजाति कोसफलता मिलने के बाद साल 2013 में अनुकूलनीय परीक्षण किया गया। इस परीक्षण में सफल होने के बाद ‘प्रांकुर’ को नेटवर्क प्रोजेक्ट की मीटिंग में उत्तर गंगा कृषि विश्वविद्यालय, पश्चिम बंगाल में गुणवत्ता सत्यापन कमेटीके सामने प्रस्तुत किया गया। कमेटी ने इस प्रजाति को स्वीकृति दे दी। इसके बाद शोध संबंधित सारे कागज को मानरूता के लिए सेंट्रल वेरायटी रिलीज कमेटी (सीवीआरसी) दिल्ली को भेज दिया गया। सीवीआरसी ने साल 2015 में इस नई प्रजाति के रूप में मान्यता प्रदान करते हुए देश में उगाने के लिए आर्डर रिलीज कर दिया है।
सनई का उपयोग हरी खाद के साथ ही रेसा, रस्सी और हैंडमेड पेपर बनाने में किया जाता है। गाँव में प्रदेश के बनारस, प्रतापगढ़, सुल्तानपुर, आजमगढ़, देवरिया जिलों में इसकी खेती की जाती है।