गंगा की रेत पर इस समय हर तरफ हरियाली देखने का मिल रही है। रेत को खेत बना किसान इस पर खीरा, ककड़ी, तरबूज, लौकी व करैले की पैदावार करते हैं। तीन माह की इस खेती से किसानों के पूरे साल का खर्च निकल जाता है। गंगा और प्रदेश की प्रमुख नदियों के किनारे रहने वाले ग्रामीण किसान गंगा की रेती में खेती में लगे हुए हैं।
कम लागत में होता है अच्छा मुनाफा
सिंचाई जल की कमी और बालू होने के कारण कभी यहां के किसान अपनी इस ज़मीन की तरफ नहीं देखते थे। मगर अब यही जमीन उनकी आमदनी का एक बेहतर जरिया बन गई है। किसान भी इस रेतीली ज़मीन पर सब्ज़ियों और फल की खेती कर कमाई कर रहे हैं। जहां प्रदेश के किसान नई-नई तकनीक अपनाकर खेती करते हैं, वहीं छोटे किसान कम संसाधनों में भी उन्नत सब्जियों की खेती कर कम लागत में अधिक मुनाफा कमा रहे हैं।
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दी के किनारे तराई क्षेत्र में कई छोटे किसान सब्जियों की खेती कर रहे हैं। इन सब्जियों से कम लागत में अच्छा मुनाफा भी होता है। तराई क्षेत्र में सब्जियां उगाने से अधिक मुनाफा होता है। एक बीघा में लगभग पांच हजार के करीब लागत आती है और जब सब्जियां तैयार हो जाती हैं तो उनको आस पास को बाजारों में या फिर थोक में बेच दिया जाता है तराई क्षेत्रों में कद्दु, लौकी, ककड़ी, तोरई, करेला, तरबूज की पैदावार काफी अच्छी होती है और इनसे मुनाफा भी अधिक होता है।
फसल सिंचाई के लिए रेत में बोरिंग
नवंबर-दिसंबर माह आते-आते गंगा का पानी कम हो जाता है। पानी घटने के बाद गंगा के किनारे रहने वाले किसान रेत में सब्जियों और फसलों की खेती कर मुनाफा कमा रहे हैं। कन्नौज के कासिमपुर गाँव निवासी बाबूराम (60वर्ष) बताते हैं, ‘‘तरबूज की फसल नवंबर में बोई थी। अप्रैल में फसल तैयार हो जाएगी। 45 साल से यहां फल और सब्जियों की खेती कर रहा हूं। करीब 5000 पौधे में लगाए हैं। फसल सिंचाई के लिए हम लोग रेत में बोरिंग कर लेते हैं। कासिमपुर के बबलू (40वर्ष) का कहना है, “इस विधि में मेहनत तो ज़्यादा लगती है, लेकिन पैदावार अच्छी होती है। हर साल हम लोग यहां खेती करते हैं।
इस तरह तैयार करते हैं खेत
पहले रेत का बराबर कर ज़मीन को समतल बनाया जाता है। इसके बाद डेढ से दो फुट गहरी बड़ी-बड़ी नालियां बनाई जाती हैं। इन नालियों में एक तरफ़ बीज बो दिए जाते हैं। नन्हे पौधों को तेज़ धूप या पाले से बचाने के लिए बीजों की तरफ़ वाली नालियों की दिशा में पूलें लगा दी जाती हैं। जब बेलें बड़ी हो जाती हैं तो इन्हें पूलों के ऊपर फैला दिया जाता है। बेलों में फल लगने के समय पूलों को जमीन में बिछाकर उन पर करीने से बेलों को फैलाया जाता है, ताकि फल को कोई नुकसान न पहुंचे। ऐसा करने से फल साफ भी रहते हैं।
सिंचाई के पानी की कम खपत
इस विधि में सिंचाई के पानी की कम खपत होती है, क्योंकि सिंचाई पूरे खेत की न करके केवल पौधों की ही की जाती है। इसके अलावा खाद और कीटनाशक भी अपेक्षाकृत कम खर्च होते हैं, जिससे कृषि लागत घटती है और किसानों को ज़्यादा मुनाफ़ा होता है। एक पौधे से 50 से 100 फल तक मिल जाते हैं। हर पौधे से तीन दिन के बाद फल तोडे ज़ाते हैं। उत्तर प्रदेश के ये किसान तरबूज, खरबूजा, लौकी, तोरई और करेला जैसी बेल वाली सब्जियों और फलों की ही खेती करते हैं। खेतीबाड़ी क़े काम में परिवार के सभी सदस्य हाथ बंटाते हैं। यहां तक कि महिलाएं भी दिनभर खेत में काम करती हैं।
उगाई जाएंगी जैविक सब्जियां
गंगा किनारे जैविक सब्जियों की खेती भी कराने की योजना है। गंगा के किनारे स्थित सभी गाँवों के किसानों को कृषि विभाग की और जैविक खेती के लिए प्रेरित किया जाएगा। ताकि पर्यावरण के साथ ही किसानों को आर्थिक फायदा भी हो। इससे सरकार की मंसा है कि यदि गंगा किनारे जैविक खेती कराई जाए तो किटनाशक व केमिकल युक्त पानी गंगा में नहीं जाएगा। साथ ही किसान मुनाफा भी कमा सकेंगे। नमामि गंगे प्रोजेक्ट के तहत सराकर ने 1500 से ज्यादा गाँव चिंहित किए हैं जहां जैविक खेती कराने की योजना है।
प्रमुख नदियों के रेत में होती है खेती
उत्तर प्रदेश में गंगा करीब 800 किमी मैदानी इलाके में फैली है। नदी का जल स्तर कम होने पर बस गंगा ही नहीं बल्कि प्रदेश की प्रमुख नदियों यमुना, घाघरा, राप्ती और चंबल के रेत में हजारों बीघे में तरबूज, खीरा, ककड़ी, लौकी व तोरई की फसलें होती हैं। इन नदियों के किनारें रहने वाले हजारों किसानों के लिए यह नदियां आय का जरियां हैं। इलाहाबाद के रसूलाबाद निवासी रमेश मल्लाह (40वर्ष) का कहना है,“ हर साल नवंबर माह में जब गंगा का पानी घटने लगता है, हम लोग रेत को खेती के योग्य बनाने लगते हैं। हर साल मैं लाखों की सब्जी बेच लेता हूं।