बजट पर किसानों की राय- छह हजार तो ठीक, लेकिन फसलों का दाम भी मिले तो बेहतर
बजट, 2019 में शुरू हुई 'प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि' योजना पर किसानों की क्या राय है? ये जानने के लिए 'गाँव कनेक्शन' ने बात की लखनऊ से लगभग 25 किमी दूर बाराबंकी जिले के गांव मौथरी के किसानों से।
Pragya Bharti 4 Feb 2019 1:19 PM GMT

लखनऊ। एक फरवरी 2019 को पेश हुए बजट में सरकार ने किसानों को साल भर में 6000 रुपए देने का वादा किया। ये पैसा उन किसानों को मिलेगा जिनके पास दो हैक्ट्यर से कम ज़मीन है, मतलब पांच एकड़ से कम। इस योजना को सरकार ने 'प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि' कहा। खबरों में रहा कि ये पैसा बहुत कम है, सोशल मीडिया पर भी बहुत माखौल उड़ाया गया कि दिन का 16-17 रुपए किसी को देने का फायदा क्या होगा? यही जानने के लिए हमने लखनऊ से लगभग 25 किमी दूर बाराबंकी जिले के गांव मौथरी में किसानों से बात की कि असल में वो इस योजना के बारे में क्या सोचते हैं।
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जिन किसानों से हमने बात की उनका कहना है कि कुछ न सही से कुछ मिल रहा है तो ठीक ही है। गुरुसहाय शर्मा मुख्य रूप से पपीते की खेती करते हैं, साथ ही गेहूं, धान और मसूर भी उगाते हैं, वो कहते हैं-
"अभी तक तो ऐसा था न कि हमें कुछ नहीं मिलता था, उससे तो ठीक है, हमें कुछ तो सपोर्ट मिल रहा है कि हम खेती में कुछ तो सहयोग कर लेंगे। अभी तक तो किसान, आम आदमी कहीं क्रेडिट कार्ड से, कहीं व्यक्तिगत लोग लेकर कुछ करता था, अगर उसको छह हज़ार मिल रहे हैं तो कुछ नहीं तो हल्की-फुल्की लागत उसकी निकल आती है, तो कुछ सहायता तो मिल जाती है लेकिन किसान का जो वाजिब मूल्य है वो नहीं मिल पाता। लेबर (दूसरे के खेतों में काम करने वाले किसानों को मिलने वाली मजदूरी) इतना हो गया है कि उसके हिसाब से खेती की लागत बहुत लगती है लेकिन जो पैदा होता है तो वो सब बीच वाले खा जाते हैं, किसान को उसकी लागत नहीं मिलती।"
वो आगे बताते हैं-
"एक छोटी सी बात है, सूई बनाने वाला उस सूई की कीमत खुद तय करता है कि हम सूई की कीमत इतनी लेंगे; एक कोई व्यापारी है, एक मजदूर है वो कहता है कि हम 500 लेबर लेंगे, काम चाहे 400 का करे लेकिन एक किसान छह महीने मेहनत करता है, पर अपने सामान की कीमत खुद नहीं आंक सकता, बाज़ार में ऐसे लोग कीमत आँकते हैं जो खेती के बारे में जानते तक नहीं हैं, लागत होती क्या है जानते ही नहीं।"
सरकार कहती है कि उन्होंने कई फसलों के दाम तय कर दिए हैं, उनका न्यूनतम समर्थन मूल्य तय कर दिया है, यानी कि तय कीमत से कम पर उसे नहीं बेचा जाएगा लेकिन दिक्कत ये है कि छोटे किसान उसे लेकर मण्डी तक पहुंच ही नहीं पाते। अमरनाथ यादव के पास लगभग 20 बीघा ज़मीन है, वो बताते हैं- "12 बीघा में आलू बोने पर एक लाख रुपए लागत लगी है, तो ओ मां (उसमें) कहां छह हज़ार रुपए में निकल पाएगी उसकी लागत? छह हज़ार का तो डीज़ल ही लग जाता है जुताई के लिए। बाज़ार भाव के हिसाब से मिल गया तो सही नहीं तो घर से लग जाते हैं पैसे।"
किसान बताते हैं कि अब तक सरकार ने आलू की फसल न्यूनतम समर्थन मूल्य पर उनसे नहीं खरीदी है। समर्थन मूल्य तय होने पर भी किसान उन कीमतों पर अपनी फसल नहीं बेच पाते हैं, छोटे किसान तो मण्डी तक पहुंच भी नहीं पाते हैं, उन्हें गाँव में ही बड़े किसानों, व्यापारियों और दुकानदारों को अपनी फसल बेचनी पड़ती है।
मोहम्मद हनीफ बटाईदार हैं, यानी कि वो दूसरे लोगों की ज़मीन पर खेती करते हैं, उन्हें तो इस योजना से कोई फायदा नहीं होगा क्योंकि उनके पास ज़मीन ही नहीं है। वो बताते हैं कि, "दो बीघा ज़मीन में उन्हें एक बार बुवाई (फसल बोने में) करने में पांच से छह हज़ार रुपए लग जाते हैं। अब एक ही बार में उतना पैसा लग जाता है जितना सरकार साल भर में दे रही है तो बताइए क्या भला कर रही है?"
हनीफ की ही तरह मिश्री लाल भी दूसरों की ज़मीन पर काम करते हैं, वो कहते हैं, "जिनके पास ज़मीन नहीं है सरकार को उन्हें ज़मीन देनी चाहिए।"
इस पूरी बातचीत में ये ही समझ आता है कि पहल तो ठीक है पर किसानों की असल समस्या उनकी फसलों का उचित दाम है; अगर उन्हें सही दाम मिल जाएं तो उनकी अधिकतर समस्याओं का निदान हो जाएगा।
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