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हिमाचल प्रदेश: जंगली जानवरों से परेशान किसानों के कमाई का जरिया बनी जंगली गेंदा की खेती

जंगली गेंदा की खेती की खास बात होती है, इसे जंगली जानवर भी नुकसान नहीं पहुंचाते हैं और बाजार में इसके तेल की अच्छी कीमत भी मिल जाती है।
marigold cultivation

पिछले कई साल से जंगली जानवरों और बंदरों से परेशान दर्शन पाल (52) ने खेती करनी छोड़ दी थी, लेकिन साल 2017 में उन्हें जंगली गेंदे की खेती के बारे में पता चला। आज वो गेंदे की खेती से अच्छा मुनाफ़ा कमा रहे हैं और जंगली जानवर फसल को बर्बाद भी नहीं कर रहे हैं। दर्शन पाल हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले सदर ब्लॉक के गोगरधार गाँव के रहने वाले हैं।

दर्शन पाल ने गाँव कनेक्शन को फोन पर बताया, “पहले मैं भी मक्का की खेती करता था, लेकिन जंगली जानवरों और बंदरों की वजह से काफी नुकसान हो जाता था, हर खेत की रखवाली तो कर नहीं सकते थे, इसलिए जहां पर जानवर ज्यादा नुकसान पहुंचाते थे, मैंने खेती करनी ही छोड़ दी। चार साल पहले वैज्ञानिकों ने जंगली गेंदे की खेती की जानकारी दी, जिसे जंगली जानवर भी नुकसान नहीं पहुंचाते हैं और ज्यादा मज़दूरों की ज़रूरत भी नहीं पड़ती। पांच बीघा में गेंदे की खेती करने लगा हूं, इससे अच्छी कमाई हो जाती है।”

दर्शन पाल की तरह ही मंडी जिले के गोगरधार, सेराज, चंबा जिले के भटियाट, सलूनी, कुल्लू जिले में बंजर और शिमला जिले के रामपुर जैसे गाँव में लगभग 400 हेक्टेयर में जंगली गेंदो की खेती होने लगी है। जंगली गेंदे की खेती में हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में स्थित हिमालय जैवसंपदा प्रौद्योगिकी संस्थान (सीएसआईआर) का योगदान अहम है।

हिमालय जैव संपदा प्रौद्योगिकी संस्थान के प्रधान वैज्ञानिक डॉ. राकेश कुमार कुमार ने गाँव कनेक्शन को बताया, “जंगली गेंदे की सबसे बड़ी ख़ासियत होती है, इसे जंगली जानवर भी नुकसान नहीं पहुंचाते हैं, और इसकी फ़सल भी पांच-छह महीने में तैयार हो जाती है। हमारे यहां हिमाचल प्रदेश में जगली जानवर, गाय, बंदर और सुअर हैं, जो फ़सलों को बहुत नुकसान पहुँचाते हैं। इसकी वजह से यहां के लोगों ने खेती करना छोड़ दिया था। अभी कम से कम 400 से 450 हेक्टेयर में इसकी खेती हो रही है, इसमें हिमाचल प्रदेश के साथ ही उत्तराखंड का भी है। हिमाचल प्रदेश में लगभग 300 हेक्टेयर में खेती हो रही है। हमने इसकी शुरूआत 2016-17 में की थी।”

गेंदा की प्रोसेसिंग के लिए गाँवों में प्रोसेसिंग यूनिट भी लगाएं गए हैं।

“प्रति हेक्टेयर की अगर बात करें तो किसान को सवा लाख से डेढ़ लाख की आमदनी हो जाती है। मार्केटिंग के लिए किसानों को परेशानी नहीं होती है, क्योंकि पहाड़ी क्षेत्र में जंगली गेंदे के तेल की मांग काफी ज्यादा होती है। हमने कुछ कंपनियों से बात कर रखी है, जिनकी तीन-चार टन की मांग रहती है, तो वही कंपनी वाले तेल ख़रीद लेते हैं। प्रति हेक्टेयर से 30-35 किलो तेल निकलता है,” डॉ राकेश ने आगे बताया।

हिमाचल प्रदेश जैसे पहाड़ी क्षेत्रों के साथ ही इसकी खेती यूपी, एमपी जैसे मैदानी क्षेत्रों में भी हो जाती है, लेकिन जो क्वालिटी पहाड़ी क्षेत्रों में मिलती है, वो मैदानी क्षेत्रों में नहीं मिलती है। इसीलिए हिमाचल प्रदेश के तेल की कीमत बाजार में दस हजार रुपए किलो है जबकि मैदानी क्षेत्र के तेल की कीमत पांच हजार रुपए है।

“सीएसआईआर के एरोमा मिशन के तहत हमने 50 प्रोसेसिंग यूनिट लगाई है, 35 यूनिट हिमाचल प्रदेश में हैं, बाकी, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड, मणिपुर और मिज़ोरम जैसे राज्यों में लगाई है। इसमें गेंदे के साथ ही दूसरी एरोमेटिक फ़सलों की प्रोसेसिंग भी कर सकते हैं। जैसे लेमन ग्रास, पामारोजा आदि, “डॉ राकेश ने कहा।

एरोमा मिशन के तहत किसानों को खेती से लेकर प्रोसेसिंग तक प्रशिक्षण दिया जाता है। फोटो: आईएचबीटी, पालमपुर

एरोमा मिशन के अंतर्गत किसानों को न सिर्फ इन पौधों की खेती की जानकारी और प्रशिक्षण दिया जाता है बल्कि इसके तहत देश भर में किसानों को मेंथा, लेमनग्रास, पामा रोजा, जंगली गेंदा जैसी फ़सलों की खेती के प्रशिक्षण के साथ उन्हें बीज भी उपलब्ध कराया जाता है।

मंडी जिले के दर्शनपाल के तरह ही चंबा जिले के तल्ला गाँव के पवन कुमार (47) भी जंगली गेंदे की खेती करने लगे हैं। पवन कुमार बताते हैं, “मक्का की खेती में काफी नुकसान उठाना पड़ रहा था, इसलिए जब जंगली गेंदे के बारे में पता चला तो इसकी खेती शुरू की। जब पहले साल अच्छा मुनाफा हुआ तो अब दूसरे किसान भी गेंदा की खेती करने लगे हैं।”

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