देश अभी तिलहन उत्पादन में आत्मनिर्भरता प्राप्त नहीं कर सका है। देश की 130 करोड़ से अधिक जनसंख्या के लिए बड़े पैमाने पर खाद्य तेलों की हर वर्ष आवश्यकता पड़ती है। भारत सरकार को हर वर्ष देश की जनता की खाद्य तेल की जरूरत को पूरा करने के लिए बड़े पैमाने पर विदेशों से खाद्य तेल आयात करना पड़ता है। जिसमें एक बहुत बड़ा हिस्सा पाम ऑयल का होता है। पाम ऑयल के आयात के लिए देश को हर वर्ष एक बहुत बड़ी धनराशि के रूप में विदेशी मुद्रा खर्च करनी पड़ती है। देश में तिलहन फसलों का रकबा और प्रति हेक्टेयर उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाकर विदेशी मुद्रा बचाने के साथ ही आत्मनिर्भरता हासिल की जा सकती है।
खेतों में लहलहाती सरसों की फसल और खिलखिलाते-मुस्कराते पीले सरसों के फूल बरबस ही हर किसी का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए काफी होते हैं। राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा आदि के कई जनपदों में इन दिनों ऐसा नजारा जिधर नजर दौड़ाइए
उधर खेतो में दिखाई दे रहा है। इस बार ऐसा इसलिए हुआ है कि इन जिले में बढ़े पैमाने पर किसानों ने रबी मौसम में अन्य खाद्यान्न और दलहन फसलों की तुलना में सरसों की खेती को अधिक प्राथमिकता दी है। सरसों की खेती की तरफ किसानों के रूझान के पीछे प्रमुख रूप से विगत वर्ष सरसों का अच्छा भाव मिलना प्रमुख कारण रहा है। पिछले साल भारत सरकार द्वारा सरसों फसल के निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य से लगभग डेढ़ से दोगुनी कीमतों पर की सरसों की बिक्री हो गई थी। वर्तमान में भी सरसों, सरसों तेल और सरसों खली की कीमतें काफी अच्छी चल रही हैं।
वर्ष 2021-22 के लिए भारत सरकार द्वारा सरसों का एमएसपी 4650 रुपए प्रति क्विंटल निर्धारित किया गया था। लेकिन जब फसल पककर तैयार हुई और किसान बिक्री के लिए बाजार में लेकर आये तो किसानों को समर्थन मूल्य के लगभग ढेड़ से दोगुनी कीमत के बराबर भाव मिला। ऐसा होने के पीछे कई कारण रहे, जिसमें भारत सरकार के कुछ नीतिगत निर्णय भी शामिल थे। कोरोना काल में आम जन मानस में भारतीय खाद्य पदार्थों और खाद्य तेलों के प्रति जागरूकता आने से भी सरसों के तेल की मांग प्रमुखता से बढ़ी है।
आगामी वर्ष 2022-23 के लिए भी भारत सरकार द्वारा सरसों का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय कर दिया गया है। जिसमें पिछले वर्ष की तुलना में 400 रुपए प्रति क्विंटल की बढ़ोत्तरी की गई है। आगामी रबी खरीद के लिए सरसों की एमएसपी 5050 रुपए प्रति क्विंटल तय की गई है। वहीं सरसों की खेती पर प्रति क्विंटल आने वाली लागत 2523 रुपए मानी गई है। इस प्रकार से किसानों की सरसों यदि एमएसपी दर पर भी बिक जाती है तो प्रति क्विंटल 2527 रुपए की आय होगी। किसानों और कृषि बाजार के जानकारों को पूरी उम्मीद है इस वर्ष भी बाजार में सरसों की कीमतें एमएसपी से ज्यादा ही रहेंगी। इस समय मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा आदि के प्रमुख सरसों उत्पादक जिलों में खेतों में खड़ी सरसों की फसल पर फूल आ रहा है। मौसम अच्छा होने के चलते सरसों की फसल निरोगी और स्वस्थ्य दिखाई दे रही है, जिससे किसानों को अच्छा उत्पादन मिलने की उम्मीद है।
देश के विभिन्न राज्यों में खरीफ, रबी और जायद तीनों ही कृषि मौसम में अलग-अलग तिलहन फसलों की खेती की जाती है। देश में तिलहन की मुख्य फसलों में मूंगफली, सोयाबीन, सरसों, तोरिया, सूरजमुखी, तिल, कुसम, अलसी, नाइजरसीड्स आदि खाद्य तिलहनी फसलों की खेती की जाती है। उत्पादन और क्षेत्रफल के दृष्टिकोण से देखा जाये तो देश में खाद्य तेल के रूप में प्रयोग होने वाली फसलों में मूंगफली, सोयाबीन और सरसों प्रमुख तिलहन फसलें हैं। देश में तिलहन के उत्पादन पर नजर डाली जाये तो में सोयाबीन का 1.098 करोड़ टन, सरसों का 0.912 करोड़ टन और मूंगफली का 0.085 करोड़ टन के लगभग उत्पादन होता है। जिसमें सरसों का उत्पादन देश में दूसरे नंबर पर आता है। सरसों उत्तर भारत की एक प्रमुख तिलहन फसल है। देश के पांच प्रमुख सरसों उत्पादक राज्यों में राजस्थान का स्थान प्रथम हैं, जिसकी देश के कुल सरसों उत्पादन में 46.06 प्रतिशत भागीदारी है। इसके बाद हरियाणा 12.60 प्रतिशत, मध्य प्रदेश 11.38 प्रतिशत, उत्तरप्रदेश 10.49 प्रतिशत और पश्चिम बंगाल 7.81 प्रतिशत भागीदारी के साथ क्रमशः द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ और पंचम स्थान पर अपना योगदान दे रहे हैं।
आंकड़ों के अनुसार क्षेत्रफल के दृष्टिकोण से मध्य प्रदेश में काफी बड़े क्षेत्रफल पर सरसों की खेती की जाती है। एक अनुमान के अनुसार इस वर्ष रबी मौसम 2021-22 में सरसों की खेती के अंतर्गत यह रकबा 20 से 25 तक प्रतिशत बढ़ा है। राजस्थान और हरियाणा की तुलना में मध्य प्रदेश में सरसों की प्रति हेक्टेयर उत्पादकता कम है, जिससे प्रति हेक्टेयर उत्पादन कम प्राप्त होता है। मध्य प्रदेश जैसे देश के अन्य कम पैदावार वाले राज्यों में सरसों का प्रति हेक्टेयर उत्पादन और उत्पादकता को बढ़ाये जाने की जरूरत है। सरकारों की योजनाएं और कृषि वैज्ञानिकों के तकनीकी प्रयासों से इस उत्पादन को काफी हद तक बढ़ाया जाना संभव है। यदि सही दिशा में प्रयास किये जायें तो मुमकिन हो कि मध्य प्रदेश देश का अग्रणी सरसों उत्पादक राज्य बनकर उभर सकता है। साथ ही देश को खाद्य तेल में आत्मनिर्भर बनाने में भी अपना अमूल्य योगदान दे सकता है।
सरसों की फसल को बढ़ावा देने के लिए पिछले एक दशक से अधिक समय से लगातार भारत सरकार द्वारा संचालित तिलहन विकास योजना के तहत कृषि विज्ञान केंद्रों द्वारा भी अथक प्रयास किये जा रहे हैं। कृषि विज्ञान केंद्रों द्वारा प्रथम पंक्ति तिलहन प्रदर्शनों के अंर्तगत चयनित किसानों के यहां उन्नतशील किस्मों और वैज्ञानिक तरीके से सरसों की खेती को प्रोत्साहन देने के लिए प्रदर्शन, प्रशिक्षण आदि कार्यक्रम संचालित किए जा रहे हैं।
इसके अलावा भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली, सरसों अनुसंधान निदेशालय, भरतपुर (राजस्थान), विभिन्न कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा नई वैज्ञानिक तकनीकी खोजों, अधिक उत्पादन देने वाली रोग रोधी नवीनतम प्रजातियों का विकास एवं सरसों की उन्नत खेती के तरीके विकसित करने पर लगातार कार्य किया जा रहा है। जिसके चलते किसानों में जागरूकता पैदा हुई और सरसों की खेती का रकबा बढ़ने के साथ ही उनके उत्पादन में वृद्धि दर्ज की जा रही है। इस वर्ष सरसों की फसल का क्षेत्रफल बढ़ने का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि सरसों का बीज किसी भी संस्थान, विश्वविद्यालय, सरसों बीज बिक्रय केंद्र और यहां तक कि बाजार में भी शेष नहीं रहा है।
अन्य फसलों की तुलना में सरसों की खेती में काफी कम लागत आती है। सरसों की खेती में कम बीज, कम खाद और उर्वरकों के साथ ही सिंचाई के लिए बहुत कम पानी की जरूरत होती है। सरसों की खेती का प्रबंधन करना भी अन्य फसलों की तुलना में काफी आसान रहता है। इसके चलते किसानों के लिए सरसों की फसल एक लाभकारी खेती कही जा सकती है। जिन क्षेत्रों में भूगर्भ जल स्तर अत्यंत नीचे चला गया है। सिंचाई के पानी की कमी हैं, खेती वर्षा पर आधारित है। उत्तर भारत के ऐसे क्षेत्रों में रबी मौसम में सरसों की खेती एक अच्छा विकल्प सिद्ध हो सकती है।
सरसों की खेती के साथ मधुमक्खी पालन भी व्यापक पैमाने पर किया जा सकता है। जिसमें मधुमक्खी परागण का कार्य कर के सरसों का उत्पादन 15 से 20 प्रतिशत बढ़ाने में भी सहयोग करती हैं। साथ ही शहद और मोम आदि उत्पादों की भी अतिरिक्त रूप से प्राप्ति हो जाती है, जिससे किसानों की आय में अधिक वृद्धि प्राप्त की जा सकती है।
पूरे उत्तर भारत में खाद्य तेल के रूप में सबसे ज्यादा सरसों के तेल का ही प्रयोग किया जाता है। तेल निकालने के बाद सहायक उत्पाद के रूप में प्राप्त होने वाली सरसों की खली का प्रयोग दुधारू पशुओं के आहार में किया जाता है। इस प्रकार से सरसों के तेल के साथ ही उसकी खली और यहां तक कि सरसों की कटाई उपरांत खेत में शेष रह जाने वाली उसकी लकड़ी और तूरी भी अब अच्छी कीमत पर बिक्री हो जाती है। इसके साथ ही सरसों की खेती के साथ मधुमक्खी पालन को भी जोड़ दिया जाये तो यह काफी मुनाफे की खेती बन सकती है। इस प्रकार से सरसों की खेती से मिलने वाले मुख्य उत्पाद के साथ उसके सहायक उत्पादों से भी अच्छी कीमत किसानों को प्राप्त हो सकेगी। कुल मिलाकर कम लागत से तैयार होने वाली सरसों की फसल कम पानी की दशा में पककर अच्छा मुनाफा देने वाली खेती बनने के साथ ही देश को खाद्य तेल में आत्मनिर्भर बनाने के सपने को पूरा करने में अपना अमूल योगदान दे पाएंगी।
(डॉ सत्येंद्र पाल सिंह, कृषि विज्ञान केंद्र, शिवपुरी, मध्य प्रदेश के प्रधान वैज्ञानिक एवं प्रमुख हैं, यह उनके निजी विचार हैं।)