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मध्य प्रदेश में ग्रामीण महिलाओं को कृषि उद्यमियों के तौर पर प्रशिक्षण देकर उन्हें सशक्त बनाने की एक पहल

मध्य प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में लोगों को सशक्त बनाने के लिए एक संयुक्त प्रयास की पहल की गई है। इसके तहत उन्हें प्रशिक्षण दिया जा रहा है जिससे वे कृषि उद्यमी बन आर्थिक रुप से स्वतंत्र हो सके। ये उद्यमी ना सिर्फ किसानों को उनकी फसल बिकवाने में मदद करते हैं, बल्कि खेती से जुड़ी कई योजनाओं की जानकारी का प्रचार प्रसार भी करते हैं।
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मानावर के देवला गाँव की निशा शर्मा ने आज से पहले खुद को कभी इतना आत्मविश्वास से परिपूर्ण नहीं पाया था। मध्य प्रदेश के धार गांव में कृषि उद्यमी के तौर पर काम करने वाली निशा चार लोगों के परिवार की एकमात्र कमाऊ सदस्य हैं। किसानों को फसल उगाने, फसल कटाई में मदद करने, अपनी फसल से किसान ज्यादा से ज्यादा फायदा कमा सकें, इसके लिए सटीक जानकारी देना निशा का रोज़ का काम है। वह किसानों को जैविक खेती अपनाने और वर्मी कंपोस्ट के प्रयोग से होने वाले फायदों की जानकारी भी लगातार देती रहती हैं।

स्थानीय लोगों के बीच कृषि उद्यमी के रूप में जाने जाने वाली निशा शर्मा अपने गांव की अकेली उद्यमी महिला नहीं हैं। पच्चीस साल की रंजना इस्की भी उन्हीं की तरह कृषि उद्यमी हैं। रंजना को आर्थिक स्वतंत्रता का पहला पहल स्वाद तब मिला जब स्थानीय महिलाओं के स्वयं सहायता समूह ने उनका नाम कृषि उद्यमी प्रशिक्षण के लिए नामांकित किया था।

महिला कृषि उद्यमी शर्मा और एस्की को आत्मनिर्भर बनाना और प्रशिक्षण देना ट्रांसफार्म इंडिया फाउंडेशन (TRIF) की पहल से संभव हो पाया है। यह एक ऐसी संस्था है जो हाशिए पर रखे गए समुदायों के सामने आने वाली चुनौतियों पर विशेष रुप से काम करती है। महिलाओं के उत्थान के लिए काम करना संस्था की प्राथमिकता है। इस संस्था ने 2018 में मध्यप्रदेश में इस योजना की शुरुआत की थी। इसका मकसद प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में रह रहे लोगों को सशक्त बनाना और उन्हें आर्थिक रुप से स्वतंत्र बनाना है। इसके लिए उन्हें कृषि उद्यमी बनाकर प्रशिक्षण दिया जा रहा है।

ट्रांसफार्म इंडिया फाउंडेशन के राज्य कार्यक्रम प्रबंधक सचिन सकाले ने गांव कनेक्शन को बताया, “इस संयुक्त प्रयास ने स्थानीय लोगों और बाजार के बीच की खाई को भरने में मदद की है। इनके बीच सौदेबाज़ी पहले से कहीं ज़्यादा मज़बूत और भरोसेमंद बन गई। जो लोग बाहर से आते हैं वे कभी- कभार ही किसानों का सामान खरीदते हैं। अक्सर ऐसा भी होता है कि वे उनसे सामान लेते ही नहीं हैं। जबकि स्थानीय लोग कृषि उद्यमियों को अच्छे तरीके से जानते हैं। वे उनसे ज़्यादा बेहतर तरीके से सौदेबाज़ी कर पाते हैं। वे यह भी जानते हैं कि उनका व्यवसाय इन्हीं किसानों पर निर्भर करता है” वह आगे कहते हैं, ” कृषि उद्यमी दरअसल वे किसान हैं जो एक-दूसरे के सहायक हैं, आपस में एक-दूसरे पर निर्भर हैं।”

एक समय में अत्यंत शर्मीले स्वभाव वाली इस्की बताती हैं कि अब वह अकेले ही, बिना किसी झिझक के किसानों के एक बड़े समूह से बातचीत कर लेती हैं। यह आत्मविश्वास उनमें तब आया जब वह 2018 में टीआरआईएफ से जुड़ी थी।

गांव कनेक्शन से बातचीत करते हुए इस्की ने बताया, “मेरे परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नही थी। इसलिए ग्रेजुएशन करने के बाद मैं संस्था के साथ जुड़ने के लिए तैयार हो गई। मैंने एक सही फ़ैसला लिया था। आज मैं ना सिर्फ अपने परिवार की देखरेख कर पा रही हूं बल्कि इससे मेरे व्यक्तित्व में भी खासा निखार आया है।”

दरअसल संस्था की यह पहल एक गैर वित्तीय समझौता है, जो 2011 में तैयार मध्य प्रदेश राज्य ग्रामीण आजीविका मिशन का हिस्सा है। इस योजना का उद्देश्य स्वरोजगार को बढ़ावा देना और ग्रामीण जनता को संगठित करना है।

कैसे बने कृषि उद्यमी

इस प्रक्रिया में स्वयं सहायता समूह किसी व्यक्ति को कृषि उद्यमी के रूप में नामांकित करते हैं। फिर उस व्यक्ति को लिखित और मौखिक परीक्षा देनी होती है। उसके बाद 15 से 45 दिन का उन्हें प्रशिक्षण दिया जाता है।

दोनों परीक्षाओं और टीआरआईएफ द्वारा तैयार मॉड्यूल को पास करने के बाद चुने कृषि उद्यमी अपने गांवों के स्थानीय किसानों और स्वयं सहायता समूह के साथ काम में जुट जाता है।

किसानों की सहायता करना और स्वयं सहायता संस्थाओं को बाज़ार से इकट्ठा की गई जानकारी मुहैया करवाना, जिससे किसान खेती के लिए अपनी जमीन तैयार कर सकें और पास की मंडियों में अपने उत्पाद बेच सकें, यह उनके रोज का काम है। कृषि उद्यमी किसानों को खेती करने की नई तकनीकों की भी जानकारी देते हैं ताकि वे सीमित साधनों के साथ बेहतर उपज पैदा कर सकें।

कृषि उद्यमी 48 वर्षीय शारदा कावेल ने गांव कनेक्शन को बताया, “मैं किसानों के लिए बीज खरीदने का काम करती हूं ताकि वे अपने खेतों में मक्का, कपास और गेहूं की फसल उगा सकें। इसके अलावा मैं उनके लिए फूल गोभी और लौकी के बीज भी खरीदती हूं।” वह आगे कहती हैं, “मैं स्वयं सहायता समूह के सदस्यों को उनके काम के लिए जरूरी सामान भी उपलब्ध करवाती हूं।”

किसानों के लिए खेती से जुड़े सामान खरीदने के लिए कृषि उद्यमियों को पैसा टीआरएफ देती है। यह पैसा उन्हे अपने डोनर्स से मिलता है।

ग्रामीण महिलाओं के लिए वित्तीय आजादी

कृषि उद्यम के बारे में बताते हुए शर्मा कहती हैं, “हाल-फिलहाल में गेहूं का उत्पादन काफी अच्छा रहा है। मैंने खुद किसानों से करीब 20 क्विंटल गेहूं खरीदा है। इसके लिए मुझे टीआईआरएफ से 35,000 रूपये की आर्थिक सहायता मिली है। मुझे एक क्विंटल गेहूं मंडी में बेचकर प्रति क्विंटल 150 रूपये का फायदा मिला है।” वह आगे कहती हैं कि किसानों को उनके सामान के एवज में तुरंत पैसा देने से उनके और हमारे बीच आपसी विश्वास पैदा होता है। इतना ही नहीं सामान बेचकर मैं खुद इतना पैसा कमा लेती हूं जो मेरे परिवार का खर्चा चलाने के लिए काफी होता है।

उन्होंने बताया कि टीआरआईएफ की यह पहल उन ग्रामीण महिलाओं में आत्मविश्वास पैदा कर रही है जो ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं है। वह गांव में रहकर ही अपनी आजीविका के लिए पैसा कमा सकती हैं।

गांव कनेक्शन से बात करते हुए शर्मा कहती हैं, “मैं पहले दिहाड़ी पर काम करती थी। वहां कमाई कम थी और शोषण भी किया जाता था। शुरूआत में जो झिझक और डर था, अब वह नहीं है। महिलाओं के साथ, उनके बीच काम करने से हमें खुद को साबित करने और आगे बढ़ने का पूरा मौका मिलता है।”

चार साल पहले जब टीआईआरएफ ने इस पहल की नींव रखी थी, तब से 26 कृषि उद्यमियों को प्रशिक्षण दिया जा चुका है। मानावर में खेती ही लोगों की आमदनी का मुख्य जरिया है इसलिए संस्था ने यहां 250 किसानों के लिए एक कृषि उद्यमी को प्रशिक्षित किया है।

मिलती हैं नई जानकारियां

कृषि उद्यमी सरकार की उन कृषि योजनाओं के बारे में भी जानकारी उपलब्ध कराते हैं, जिससे उन्हें और किसानों दोनों को फायदा मिल सके। इस बारे में बताते हुए इस्की ने गांव कनेक्शन कहा, “कई किसान ऐसे थे जिन्हें प्रधानमंत्री किसान योजना की कोई जानकारी नहीं थी। मैंने उन्हें इसके बारे में बताया। कभी-कभी किसानों के खाता नंबर और लाभार्थी के नाम में मेल नहीं होता है। ऐसे में मैं किसानों को ऑनलाइन इन समस्याओं को सुलझाने में मदद करती हूं।

कृषि योजनाओं के अलावा वर्मी कंपोस्ट को इस्तेमाल करने के लिए किसानों को बढ़ावा देने का काम भी कृषि उद्यमियों का ही है। इसके बारे में इस्की बताती हैं, “वर्मी कंपोस्ट हम लोग घर में तैयार करते है। फिर एक बीघा जमीन में उगी फ़सलों पर इससे हुए फायदों को किसानों को दिखाते और समझाते हैं। ऐसा करने से कई किसान वर्मी कंपोस्ट का इस्तेमाल करने लगे हैं। हालांकि सभी किसानों ने वर्मी कंपोस्ट को इस्तेमाल करना शुरू नहीं किया है, लेकिन अगर पचास प्रतिशत किसान भी इसे अपनाते हैं, तो यह हमारे लिए एक सकारात्मक कदम ही है।”

यह लेख ट्रांसफॉर्म रूरल इंडिया फाउंडेशन के सहयोग से प्रकाशित किया गया है।

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