पद्मश्री बाबूलाल दहिया के इस म्यूजियम में है खेती के देसी यंत्रों व औजारों का अनूठा संग्रह

आपने बड़े-बड़े शहरों में कई तरह के संग्रहालय देखें होंगे, लेकिन ये संग्रहालय बहुत खास है, क्योंकि इसमें आपको खेती-किसानी से जुड़े यंत्र और औजार देखने को मिलेंगे। ऐसे यंत्र और औजार या तो जिनका इस्तेमाल होना बंद हो गया है या फिर घर के किसी कोने में पड़े होते हैं। मध्य प्रदेश में किसान पद्मश्री बाबूलाल दहिया ने खेत-खलिहान, गाँव के रोजमर्रा की जिंदगी में काम आने वाले माटी से बने बर्तन, लोहे से बनी चीजों का अनूठा संग्रहालय बनाया है। साथ ही बीज बैंक भी बनाया है।
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सतना (मध्य प्रदेश)। पुरानी चीजों का संग्रह का शौक हर किसी को है लेकिन कुछ जुनूनी लोग यह कर पाते हैं। कोई डाक टिकट तो कोई पुराने जमाने के सिक्के संग्रह कर रहा है। लेकिन मध्यप्रदेश का एक किसान राजाओं के म्यूजियमों से इतना प्रभावित हुआ की अपने घर में ही पुराने जमाने में खेती किसानी के काम आने वाली सामग्री, यंत्रों और औजारों का ही संग्रह कर डाला। इसका एक संग्रहालय भी बना लिया है।

पद्मश्री से सम्मानित बाबूलाल दहिया इस अनोखे म्यूजियम के बारे में गाँव कनेक्शन से बताते हैं, “राजस्थान और हैदराबाद घूमने के दौरान वहां के म्यूजियम देखा था। वहां राजाओं- महाराजाओं की अस्त्र-शस्त्र, तलवार, ढाल यहां तक की कपड़े भी देखे। देखने के बाद सोचा कि उनकी आज उपयोगिता नहीं है फिर भी रखे हुए हैं। वहां से दिमाग में आया कि क्यों न कृषि में उपयोग की जाने वाली और चलन से बाहर हो गई सामग्रियों का एक संग्रहालय बनाया जाए। और आज यह संग्रहालय बन गया।”

बाबूलाल दाहिया मध्यप्रदेश के सतना जिले में आने वाले छोटे से गाँव पिथौराबाद के रहने वाले हैं।। यह गाँव उचेहरा-नागौद मार्ग में बसा हुआ है। जिला मुख्यालय से पिथौराबाद गाँव की दूरी करीब 15 किलोमीटर है। बाबूलाल दाहिया को जैव विविधता और अनाज के देशी बीजों के संरक्षण संवर्धन को लेकर वर्ष 2019 में पद्मश्री सम्मान दिया गया था।

कवि से किसान बने बाबूलाल के अनूठे संग्रहालय में ग्रामीण भारत की हर वो वस्तु मौजूद है और संग्रह की जा रही है जो चलन से बाहर हैं चाहे वह पत्थर के बने हों या फिर लकड़ी और लोहे के। 

कवि से किसान बने बाबूलाल के अनूठे संग्रहालय में ग्रामीण भारत की हर वो वस्तु मौजूद है और संग्रह की जा रही है जो चलन से बाहर हैं चाहे वह पत्थर के बने हों या फिर लकड़ी और लोहे के। 

80 वर्ष के हो चुके पद्मश्री बाबूलाल आगे कहते हैं, “म्यूजियम में कोई चीज क्यों रखी जाती है इसलिए कि आने वाले पीढ़ी उसके बारे में जान सके कि तब कैसा चलन था। यही कारण है कि नई पीढ़ी को कृषि के चलन से बाहर हो गए उपकरणों-यंत्रों के संग्रह कर परिचय कराने का विचार आया जो अब बन कर तैयार है।”

गाँव के सात उद्यमियों की सामग्री का संग्रह

आधुनिक समय में गाँव का किसान भी तकनीक के सहारे खेती कर मुनाफा कमा रहा है, लेकिन पुराने ग्रामीण भारत के पन्ने पलटे तो तब का किसान परंपरागत तरीके से खेती करता है। उसकी निर्भरता भी प्रकृति पर थी। तब के किसान के लिए गांव में रहने वाली सात उद्यमी लोग मददगार साबित होते थे। जैसे लोहार, बढ़ई, शिल्पकार, वंशकार, चर्मकार, कुंभकार के साथ साथ महिलाएं भी। उन्हीं सात लोगों के इर्द-गिर्द ग्रामीण भारत की कृषि चलती थी। सातों द्वारा बनाई गई चीजों का संग्रह किया गया है।

”पुरानी कृषि में गाँव के सात उद्यमियों का बड़ा योगदान रहा है जिसे लोहार, बढ़ई, शिल्पकार, वंशकार, चर्मकार, कुंभकार और महिला। इनके द्वारा ही कृषि उपयोग की कई चीजें बनाई जाती थी, ” बाबूलाल दाहिया ने संग्रहालय में रखी सामग्रियों की तरफ इशारा करते हुए कहा।

”लोहार और बढ़ई 50-50 प्रकार की, शिल्पकार 14-15 प्रकार की, कुंभकार 30-32 प्रकार की, वंशकार 20 प्रकार की, चर्मकार 7-8 प्रकार की और महिलाएं भी माटी से 7-8 प्रकार की चीजें बना लेती थीं लेकिन आधुनिकता में यह सब चलन से बाहर हो गया, “बाबूलाल ने अपनी बातों में आगे जोड़ा।

संग्रहालय में अंग्रेजों के जमाने का बाट

कवि से किसान बने बाबूलाल के अनूठे संग्रहालय में ग्रामीण भारत की हर वो वस्तु मौजूद है और संग्रह की जा रही है जो चलन से बाहर हैं चाहे वह पत्थर के बने हों या फिर लकड़ी और लोहे के। इस संग्रहालय में दशकों पुराने ताले हैं, महाराजा की ऐतिहासिक तलवार भी जो इस संग्रहालय को और भी अलग बनाती है। इसके अलावा अंग्रेजों के जमाने का बाट भी रखा हुआ है।

”संग्रहालय में कृषि आश्रित समाज की हर जरूरत की चीजें मौजूद हैं। इनकी संख्या करीब 250 है। इसके अलावा कुछ जुटाई भी जा रहीं है जो नहीं मिल रहीं हैं उनको बनवा भी रहे हैं, “बाबूलाल आगे बताते हैं कि इसमें कई दशकों के ताले हैं जो लोहार द्वारा बनाए जाते थे। अब तो कंपनियां बनाने लगी हैं। इसके अलावा स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रणमत सिंह की तलवार भी रखी हुई। यह तलवार मित्र अरुण पयासी ने भेंट की थी। इसके अलावा अंग्रेजों के जमाने का एक सेर का बाट भी है। एक सेर आज के एक किलोग्राम से 100 ग्राम कम होता था।”

तीन कमरों में संग्रहालय लेकिन पर्याप्त नहीं

पद्मश्री बाबूलाल दाहिया का यह अनूठा संग्रहालय गाँव के ही घर में बना हुआ है। छत में ही इसके लिए कमरे तैयार कर कृषि और ग्रामीण भारत की पुरानी चलन से बाहर हो चुकी चीजें रखी हैं। वह बताते हैं, ”साहित्य लेखन और शोध कार्यों की किताबें लिखी हैं। इनसे दो-तीन लाख रुपए इकठ्ठा हुए थे। और भी कुछ कवि सम्मेलनों से मिल गया। उसी बचत से यह तीन कमरे तैयार किए हैं। हालांकि यह पर्याप्त नहीं हैं दो और बन जाएं तो सपना पूरा हो जाएगा। इसके लिए सरकार से आग्रह करेंगे।”

‘सर्जना ने एकत्रित की सामग्री

बाबूलाल दाहिया संग्रहालय में रखी वस्तुओं और सामग्री को इकट्ठा करने का श्रेय सर्जना को देते हैं। यह एक सांस्कृतिक, सामाजिक और साहित्यिक संस्था है। बाबूलाल इसके संस्थापक हैं। वो बताते हैं, “इतना बड़ा काम सर्जना नामक संस्था ने किया है। इसका गठन 2002 में किया गया था। हालांकि अब मैं केवल सदस्य हूं। सुरेश दाहिया इसके अध्यक्ष हैं और बसंत तिवारी सचिव हैं।

इस संग्रहालय में दशकों पुराने ताले हैं, महाराजा की ऐतिहासिक तलवार भी जो इस संग्रहालय को और भी अलग बनाती है। इसके अलावा अंग्रेजों के जमाने का बाट भी रखा हुआ है।

इस संग्रहालय में दशकों पुराने ताले हैं, महाराजा की ऐतिहासिक तलवार भी जो इस संग्रहालय को और भी अलग बनाती है। इसके अलावा अंग्रेजों के जमाने का बाट भी रखा हुआ है।

देशी बीजों का बीज बैंक भी

जहां वर्तमान में संग्रहालय बनाया गया है वहां से 200 मीटर की दूरी पर बीज बैंक भी बनाया गया है, इसमें धान और गेहूं के देशी बीज संरक्षित कर रखे गए हैं। बाबूलाल बताते हैं ” बचपन में देखा करते थे कि खेतों में कई तरह की धान लगी रहती थी लेकिन जब बड़े हुए तो खेतों से गायब हो गई। यहीं से देशी बीजों के संरक्षण की ललक जागी। इसका बीज बैंक हैं जहां पर 250 प्रकार के देशी अनाज के बीजों का संग्रहण है। जिसमें धान और गेहूं दोनों हैं।”

क्या-क्या रखा है संग्रहालय में

बांस: चरहा टोपरा ,ओसमनिहा झउआ,गोबरहा झउआ, छन्नी टोपरिया, ढोलिया, टुकनी, ढेरइया, बंसा, घोटा,झांपी, झपलइया, दौरी,छिटबा, बेलहरा, बिजना, कुड़वारा, झलिया, झाला।

मिट्टी: हडिय़ा, तेलइया,पइना, मरका, मरकी,डहर, घड़ा, घइला, तरछी, डबुला दोहनी, मेटिया, ताई, नाद, दपकी,दिया, चुकड़ी, कलसा, तेलहड़ा, डबलुइया, करब,नगडिय़ा की कूड़, चिलम, हुक्का और गुल्लक।

काष्ठ: हल, जुआ, बैैलगाड़ी, नाडी, खटिया, मचिया, मचबा, मचेड़ी, कोनइता की पारी, चकिया की पारी, चकरिया, चकिया के बेट, चौकी, पीढ़ा, ढोलकी के बारंग, बेलना, घर का छप्पर, तखत, कुआं की ढिकुरी, थामहा, केमार, दरवाजे का चउकठ, खूंटी, खुरपी का बेंट, कुदारी का बेंट, फरुहा का बेंट, कुल्हाड़ी का बेंट, हंसिया का बेंट, पाटी, बोड़की, परछी के खम्भे, पांचा, खरिया की कोइली, मोगरी, कठउता, कठउती, कुरुआ, पइला, कुरई, मूसल, ढेरा, कुरइली।

लौह: हंसिया, खुरपी, कुदारी, फरुहा, सबरी, सब्बल, कुल्हाड़ी, कुल्हाड़ा, कुंडा, ताला- चाबी, बसूला, रोखना, करछुली, चिमटा, डोल, कराही, हल की कुसिया, कील, कांटा, झंझरिया, छन्ना, तवा, गड़ास, गड़ासा, बरछी-भाला, तलवार, खुरपा, बल्लम, पासु, अमकटना, सरोता, बड़ा सरोत, पलउहा हंसिया, मूसल की साम, कजरउटा, अखइनी, रोखना, बसूला, रमदा, गिरमिट, रांपी, फरहा एवं परी।

पत्थर : लोढिय़ा, कांडी, जेतबा, कुडिय़ा, चकिया, पथरी, लोढ़बा, चौकी, खल, होड़सा, कठौती।

धात : लोटा, थाली, कटोरा-कटोरी, बंटुआ, गिलास, हांडा, परात, भुजंगी, कलसा, तबेलिया, पीतल का लोटा, गंजा, पीतल की छोटी डोलची, घण्टी, कोपरी, पीकदान, कांसे का एक लैंप भी, फूलदान, पईना, पानदान, पील की बड़ी डोलची (डोंगा), फूल के खोरवा, बटलोह, पीतल के गघरा, पीतल के दौरी।

चमड़ा : बैल की घण्टी व घुघ, जुएं में बैल के नधने के लिए जोतावर, बीज बोने के लिए ढोलिया की चर्म पट्टी, खेती से जुड़े कार्य हेतु लोहार की धौकनी, किसानों के केश कर्तक, नाई के छुरा की धार परताने के लिए चर्म पट्टिका, चर्म चरण पादुका, मसक, छोटे-छोटे बछड़े के गले में बांधने वाली ताबीज, चमौधी।

सन अम्बारी एवं बैलों के बाल से बनी सामग्री: मुस्का, गोफना, खरिया, रस्सी नारा, गेरमा, तरसा का रस्सा, भारकस, मोहरा, गडाइन, कांस की सुमडेरी।

महिलाओं द्वारा निर्मित: कुठला, कुठली, कुठुलिया, पेउला, गोरसी, सइरी।

(सामग्रियों के नाम बघेलखण्ड की आम बोलचाल में प्रचलन के आधार पर हैं।) 

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