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बिहार के इस लैब में तैयार हुआ चमत्कारी बाँस, एक बार की लागत दे सकती है 100 साल से ज़्यादा मुनाफा

बिहार में कृषि वैज्ञानिकों ने लैब में मीठे बाँस का अनूठा पौधा तैयार किया है जिससे चिप्स, कटलेट और अचार जैसे तमाम उत्पाद बना सकते हैं। इस पौधे की उम्र 100 साल से भी ज़्यादा है।
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अगर आपसे कहा जाए कि किसी फसल से एक बार की लागत से 100 साल से भी ज़्यादा मुनाफा कमाया जा सकता है तो शायद आपको यकीन न हो, लेकिन ये सच है।

बिहार की राजधानी पटना से करीब 260 किलोमीटर दूर तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय के टीएनबी कॉलेज में, बाँस की ऐसी प्रजाति विकसित की गई है जो कमाल की है। कृषि वैज्ञानिकों ने मीठे बाँस का पौधा तैयार किया है जिससे न सिर्फ चिप्स, कटलेट और अचार जैसे तमाम उत्पाद बना सकते हैं बल्कि आप अपनी दूसरी पीढ़ी को आमदनी का स्थाई हल दे सकते हैं।

ख़ास बात ये है कि इसे बंजर ज़मीन और वैसी ज़मीन जहाँ पर अन्य खेती की संभावना नहीं है वहाँ भी इसकी खेती की जा सकती है।

“बाँस का इस्तेमाल देश में सदियों से होता रहा है। हम यहाँ पिछले 20 वर्षों से बाँस पर रिसर्च कर रहे हैं और पाँच साल से मीठे बाँस पर काम करना शुरू किया है।” प्रोफेसर डॉ. अजय कुमार चौधरी ने गाँव कनेक्शन को बताया। बम्बू मैन ऑफ बिहार नाम से मशहूर डॉ. अजय की पहल से टीएनबी कॉलेज में देश का पहला बम्बू टिशू कल्चर लैब शुरू हुआ है।

वो आगे कहते हैं, “देश में ये पहला बंबू टिशू कल्चर लैब है जहाँ पर बाँस के पौधे तैयार किए जा रहे हैं। अभी हम वन विभाग की मदद से पौधे लगाने का काम कर रहे हैं। बाँस की ख़ास बात ये होती है कि इसे कहीं भी लगाया जा सकता है, न इसकी ज़्यादा देखरेख की ज़रूरत होती है और न इसमें ज़्यादा लागत लगती है।”

यहाँ के लैब में तैयार मीठे बाँस के पौधों को छपरा, सीवान, पूर्णिया सहित कई जगहों पर भेजा गया है।

डॉ. अजय ने बताया, “राष्ट्रीय बाँस मिशन और राज्य बाँस मिशन के तहत वन विभाग मीठे बाँस के पौधे बड़े पैमाने पर लगवाएगा, वन विभाग किसानों को 10 रुपए के हिसाब से पौधे देगा और अगर तीन साल तक 50 प्रतिशत तक पौधे बच गए हैं तो वन विभाग प्रति पौधे के हिसाब से उनकी देख रेख के लिए 60 रुपए देगा और 10 रुपए भी वापस कर दिए जाएँगे।”

दूसरे कई देशों में इस तरह के बाँस की खेती होती है, लेकिन भारत में इस तरह का पहला प्रयोग है। प्रोफेसर चौधरी के अनुसार इस बाँस से कई तरह के उत्पाद बनाए जा सकते हैं।

डॉ चौधरी का मानना है कि इसकी खेती से किसानों को दोगुना मुनाफा होगा। वो आगे कहते हैं, “अगर सब सही रहा तो यूनिवर्सिटी में रिसर्च का काम बड़े पैमाने पर शुरू होगा, अभी इस लैब में एक बार में लगभग 2 लाख पौधों को तैयार किया जाता है। “

भारत में बाँस को हरा सोना भी कहा जाता है क्योंकि यह एक टिकाऊ और बहुउपयोगी प्राकृतिक संसाधन और भारतीय संस्कृति का एक अहम हिस्सा है। लेकिन ज़्यादातर लोगों को यह पता ही नहीं होगा कि बाँस सिर्फ इमारती लकड़ी नहीं, बल्कि एक औषधि और खाद्य भी है।

बाँस की कुछ प्रजातियाँ तो एक दिन में एक मीटर तक बढ़ने की क्षमता रखती हैं। यह अद्भुत पौधा गर्म और ठंडा दोनों वातावरण में बढ़ता है।

बाँस मुख्य रूप से अफ्रीका, अमेरिका और एशिया में पाया जाता है। भारत में बाँस ज़्यादातर उत्तर-पूर्वी राज्यों बंगाल, बिहार, मध्य प्रदेश, ओडिशा, तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक के जंगलों में पाए जाते हैं। चीन के बाद भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा बाँस उत्पादक देश है।

बाँस लगभग 1500 से अधिक उपयोगों के लिए जाना जाता है और दुनिया में आर्थिक रूप से सबसे महत्वपूर्ण पौधों में से एक है। बाँस के शूट्स (कटे हुए बाँस के अंकुर) का भोजन के रूप में और कई पारंपरिक खाद्य पदार्थों में उपयोग किया जाता है। पुराने समय से ही बाँस के कोपलों का इस्तेमाल खाद्य पदार्थ के तौर पर होता आया है।

डॉ अजय कुमार चौधरी के अनुसार बाँस का इस्तेमाल कैंसर जैसी बीमारियों से बचने के लिए बनने वाली दवाइयों में किया जा सकता है। आने वाले समय में बाँस प्लास्टिक के सबसे बड़े विकल्प के रूप में माना जा रहा है।

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