जलवायु परिवर्तन का असर: पान किसानों के लिए खेती अब गुज़रे ज़माने की बात?

बदलते मौसम और बढ़ती गर्मी के बीच पान किसानों को डर है कि अगली पीढ़ी कहीं परंपरा ही न छोड़ दे। कभी गाँव के बाहर बरेजों में लहलहाती पान की बेलें अब गिनी-चुनी रह गई हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पादन घट रहा है, लागत बढ़ रही है और किसानों का हौसला टूट रहा है।
betel leaf farming climate change heatwaves

अपने बरेजा में पान फ़सल देखते हुए; शीतला प्रसाद को चिंता सता रही है कि इस बार और गर्मी बढ़ी तो आने वाले साल में उन्हें भी पान की खेती न छोड़नी पड़ जाए। 

74 साल के शीतला प्रसाद चौरसिया उत्तर प्रदेश के लखनऊ ज़िले के बैरीसालपुर गाँव के रहने वाले हैं; कई साल पहले बैरीसालपुर और उसके पास के निगोहा, नगराम,  पल्हरी और समेसी जैसे आधा दर्जन गाँवों के ज़्यादातर किसान पान की खेती किया करते थे; पहले गाँव के बाहर तालाबों के आसपास के मिट्टी के टीलों पर पान के बरेजा ही दिखायी देते थे, लेकिन अब सिर्फ़ कुछ बरेजा बचे हैं, जिनमें से कई में तो लोग सब्ज़ियों की खेती करते हैं। 

शीतला प्रसाद चौरसिया गाँव कनेक्शन से बताते हैं, “पुरखों के समय से यहाँ पान की खेती हो रही है; मेरी उम्र बीत गई यही करते-करते, लेकिन अब तो कोई खेती नहीं करना चाहता, मैं भी जब तक हूँ तो कर रहा हूँ नहीं तो मेरे बच्चे तो खेती छोड़ ही देंगे।”

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बढ़ती गर्मी, बे-मौसम बारिश से पान किसानों को काफी नुकसान उठाना पड़ रहा है; खेती की लागत तो बढ़ ही रही है, लेकिन उत्पादन न के बराबर हो रहा है। जलवायु परिवर्तन की मार केवल फसलें बर्बाद हो रही हैं, बल्कि उन किसानों के सपने भी टूट रहे हैं जिन्होंने पीढ़ियों से इस परंपरा को जीवित रखा है।

पान की खेती सिर्फ एक आर्थिक गतिविधि नहीं है; यह हमारी सांस्कृतिक विरासत का एक अभिन्न अंग है। यह हमारी परंपराओं, हमारे रीति-रिवाजों और हमारे सामाजिक जीवन में गहराई से रचा-बसा है। शादियों से लेकर त्योहारों तक, पूजा-पाठ से लेकर मेहमान नवाजी तक, हर शुभ अवसर पर पान का अपना महत्व है। अगर पान की खेती खतरे में पड़ती है, तो न केवल किसानों की आजीविका प्रभावित होगी, बल्कि हमारी सांस्कृतिक पहचान भी कमजोर होगी।

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देश में लगभग 33000 हेक्टेयर में पान की खेती होती है, उत्तर प्रदेश के साथ ही पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, ओडिशा, उत्तर प्रदेश, केरल, त्रिपुरा, तमिलनाडु, नागालैंड, मध्य प्रदेश और तेलंगाना जैसे राज्यों में पान की खेती होती आयी है। इन राज्यों में यह सिर्फ एक कृषि गतिविधि नहीं, बल्कि एक जीवनशैली है।

इन खेतों में काम करने वाले किसान, मिट्टी और मौसम के साथ एक गहरा रिश्ता साझा करते हैं। वे पान की नाजुक बेलों को अपने बच्चों की तरह पालते हैं, उन्हें एक खास मचान के अंदर उगाते हैं, जिन्हें ‘बरेजा’ कहा जाता, जहां छाया और नमी का एक आदर्श वातावरण बनाया जाता है। पहले बरेजा तालाबों के बगल टीले पर ही लगाएं जाते क्योंकि इन्हें घड़े में पानी भरके सिंचाई की जाती, साथ ही ऊंचाई पर होने से बारिश में जल भराव की समस्या भी नहीं होती। 

पान की खेती आसान नहीं होती है; इसमें मेहनत की ज़रूरत होती है। हर पत्ते को सावधानी से देखा जाता है, हर बेल को सहारा दिया जाता है, ताकि वह हरी-भरी रहे और अच्छी पैदावार दे।

पान की बेलें मार्च-अप्रैल के महीने में लगायी जाती हैं और दो महीने में फसल तैयार हो जाती है। 

लेकिन पिछले कुछ वर्षों में, प्रकृति का मिजाज बदल गया है। मार्च-अप्रैल के महीने में ही गर्मी बढ़ रही है हीट वेव की वजह से मार्च का महीना, जो कभी सुहावना होता था, अब झुलसाने वाली गर्मी लेकर आता है। 2025 की मार्च में, भारतीय मौसम विभाग ने दक्षिण भारत के कई हिस्सों में तापमान में असामान्य वृद्धि दर्ज की। कोलकाता जैसे शहरों में, मार्च के अंत में तापमान 40 डिग्री सेल्सियस को पार कर गया, जो सामान्य से कहीं अधिक था। पान की बेलें, जो ठंडी और नम हवा में पनपती हैं, इस असहनीय गर्मी को सहन नहीं कर पाती हैं। उनकी पत्तियां पीली पड़ जाती हैं, उनकी वृद्धि रुक जाती है, और आखिर में पूरी फसल बर्बाद हो जाती है।

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शीतला प्रसाद चौरसिया आगे कहते हैं, “पहले इतनी गर्मी नहीं पड़ती थी, वही मई-जून में गर्मी पड़ती, तब तक पौधे बड़े हो जाते, लेकिन अब तो अभी ही इतनी गर्मी है फ़सल कैसे बच पाएगी।”

ये सिर्फ़ उत्तर प्रदेश के इस गाँव की समस्या नहीं है, एक रिपोर्ट के अनुसार केरल, जिसे कभी पान की खेती का गढ़ माना जाता था, आज संकट के गहरे बादल में घिरा हुआ है। 2011-12 में, इस राज्य में पान की खेती का कुल उत्पादन 367 करोड़ रुपये था। लेकिन जलवायु परिवर्तन के कहर ने सब कुछ बदल दिया। 2022-23 में, यह आंकड़ा घटकर मात्र 123 करोड़ रुपये रह गया – एक चौंकाने वाली 66% की गिरावट। यह सिर्फ एक आर्थिक नुकसान नहीं है; यह उन हजारों किसानों की उम्मीदों का टूटना है, जिन्होंने अपनी पूरी जिंदगी इस खेती को समर्पित कर दी। 

लखनऊ के पान उत्पादक किसानों ने या तो खेती ही छोड़ दी और जिनके पास बरेजा बचा भी है, उसमें लौकी, कद्दू, कुंदरु और परवल जैसी फ़सलों की खेती करते हैं। 

उत्तर प्रदेश के महोबा का दशावरी पान और बिहार के नवादा ज़िले का मशहूर मगही पान भी जलवायु परिवर्तन की मार से नहीं बच पाया है, पिछले पाँच सालों में यहाँ के बहुत सारे किसानों ने पान की खेती छोड़ दी। 

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भारत वैश्विक पान उत्पादन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है, हर साल 5.18 मिलियन डॉलर का 1,620.06 मीट्रिक टन पान के पत्तों का निर्यात करता है। संयुक्त अरब अमीरात, वियतनाम, भूटान, नेपाल और मलेशिया जैसे देशों में भारतीय पान की भारी मांग है। लेकिन अगर हमारे खेत ही सूख जाएंगे, हमारी फसलें ही बर्बाद हो जाएंगी, तो हम अपने देशवासियों की जरूरतों को कैसे पूरा करेंगे और विदेशों में क्या निर्यात करेंगे?

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