केड़िया (जमुई), बिहार। अभी ज्यादा समय नहीं हुआ है, जब रासायनिक छिड़काव वाले खेतों की निराई-गुड़ाई करने से केडिया गांव की महिलाओं के हाथों में दर्दनाक फोड़े हो जाते थे। छालों से भरे हाथों से, वे खेतों और घरों में काम करने के लिए मजबूर थीं। ऐसी स्थिति में भी उन्हें अपने मिट्टी के चूल्हों में लकड़ी जलाकर खाना बनाना पड़ता था। उनके बच्चे रसायनों और उर्वरकों के छिड़काव वाली खेती के उपज से बना खाना खाते थे और अक्सर बीमार पड़ जाते। पहले से ही जीने के लिए संघर्ष कर रहे किसानों को इस खर्च का अतिरिक्त भार उठाना पड़ रहा था।
लेकिन अब ऐसा नहीं है। उनका जीवन पूरी तरह से बदल चुका है।
केड़िया में एक जैविक किसान बिंदु देवी ने गांव कनेक्शन को बताया, “हमारी जिंदगी बदल गई है। छाले पड़े हाथों से बहते खून और तेज खांसी की जगह, अब हंसी और अच्छे स्वास्थ्य ने ले ली है। हमारे पास अपने बच्चों की शिक्षा और अपनी आकस्मिक जरूरतों को पूरा करने के लिए भी काफी पैसा है। “
अपनी एक शर्मीली मुस्कान के साथ वह कहती हैं, “रासायनिक खेती छोड़ कर, गोबर की खाद की खेती ने हमारी ज़िंदगी खुशहाल बना दी।”
बिहार की राजधानी पटना से 170 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में, जमुई जिले का केड़िया गांव, भारत के जैविक खेती के नक्शे पर अपनी एक खास जगह बना चुका है। इसे राज्य के पहले ‘जैविक’ गांव के रूप में जाना जाता है। कुल 100 घरों वाले इस गांव के आधे परिवारों ने जैविक खेती की ओर रुख किया है। केडिया गांव में, रासायनिक खेती से जैविक खेती पर आने के बाद जो भी बदलाव आए हैं, उनके बारे में जानने और सीखने के लिए कई राज्यों के गैर सरकारी संगठन, सरकारी एजेंसियां और अधिकारी यहां आते रहे हैं। बिहार के अन्य गांवों में जैविक खेती के ‘केड़िया मॉडल’ को लागू करने की योजना पर काम चल रहा है।
लेकिन केड़िया गांव की इस उपलब्धि का जश्न मनाते हुए, जिसे अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है, वो है केड़िया की महिलाओं का पर्यावरण के अनुकूल कृषि में योगदान। दक्षिण बिहार के इस गांव को जैविक बनाने में ग्रामीण महिलाओं ने काफी मेहनत की है। और उनके जीवन पर इसका सीधा और सकारात्मक प्रभाव भी पड़ा है।
कांति देवी के पास खेती की तीन बीघा जमीन और छह गायें हैं। उन्होंने गांव कनेक्शन को बताया, “गांव की महिलाएं अपनी गायों का गोबर और मूत्र एक जगह इकट्ठा करती हैं। उससे खाना बनाने वाली गैस बनाती हैं और उसी गोबर को खेतों में खाद के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है। वर्मी खाद से हमें अच्छी फसल मिलती है। इससे खाने का स्वाद भी बेहतर होता है और हमारे बच्चे भी जल्दी-जल्दी बीमार नहीं पड़ते। काफी पैसा बच जाता है।”
जैविक गांव की ओर
केड़िया में जैविक खेती करने का ये सफर 2014 में शुरू हुआ था। उस समय ग्रीनपीस इंडिया के तत्कालीन वरिष्ठ फूड फॉर लाइफ कैम्पैनर इश्तियाक अहमद ने खेतों में रसायनों और उर्वरकों के इस्तेमाल से होने वाले नुकसान और प्रतिकूल प्रभावों के बारे में गांव वालों को जागरूक किया था। साथ ही उन्होंने जैविक खेती पर स्विच करने से होने वाले फायदों के बारे में भी जानकारी दी थी।
“बिहार लिविंग सॉइल्स” अभियान में केड़िया गांव को चुना गया था। यह अभियान रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों जैसे कृषि रसायनों पर निर्भरता को कम करने के लिए चलाया जा रहा है। ताकि बायोमास-आधारित जैविक पूरक का इस्तेमाल करके मिट्टी के स्वास्थ्य और जैव विविधता को फिर से जीवंत किया जा सके। यह मिट्टी में मौजूद पोषक तत्वों को फिर से वापस लाने का एक प्रयास है।
पटना के रहने वाले अहमद फूड फॉर फ्युचर कैम्पैनर के तौर पर काम करते हैं। उन्होंने गांव कनेक्शन को बताया, “हमारा उद्देश्य सरकार और ग्रामीण समुदाय के बीच एक सेतु की तरह काम करना और सरकारी योजनाओं को केड़िया के ग्रामीणों तक पहुंचाना था ” उन्होंने आगे कहा, “केड़िया में वर्मी कम्पोस्ट और मवेशी-शेड सहित सभी योजनाएं लागू की गई हैं। ये सभी मौजूदा सरकारी कार्यक्रमों, जैसे मनरेगा, स्वच्छ भारत मिशन, जैविक कृषि योजना, आदि का हिस्सा हैं।”
250 से ज्यादा वर्मी-बेड, 22 बायोगैस प्लांट, 40 कुएं, 15 सीमेंट पशु शेड, और 20 इकोसैन (इको-स्वच्छता) शौचालय (जो मानव मल और मूत्र को अलग करते हैं) को सरकारी सहायता और ग्रामीणों को दी जाने वाली सब्सिडी के साथ बनाया गया है। कृषि विभाग ने इन सभी के निर्माण के लिए कुल इनपुट लागत पर 50 प्रतिशत सब्सिडी की पेशकश की।
ग्रीनपीस इंडिया के प्रोजेक्ट कोर्डिनेटर संतोष कुमार सुमन ने गांव कनेक्शन को बताया, “केड़िया की महिलाओं ने इस गांव को जैविक खेती अपनाने में मदद करने में एक बड़ी भूमिका निभाई है। वे ही हैं जो गोबर इकट्ठा करती हैं, मवेशियों की देखभाल करती हैं और वर्मी-कम्पोस्ट बनाती हैं।” वह कहते हैं, “जब हमने यहां काम करना शुरू किया तो गांव बंजर था। आज यह साफ और हरा-भरा है।”
गांव की मिट्टी से जुड़ी ये बेटियां
केड़िया में ज्यादातर घरों में मवेशी हैं। महिलाएं गाय के गोबर को इकट्ठा करती हैं जिसे बायोगैस प्लांट (सिंटेक्स की प्लास्टिक की पानी की टंकियों से बनाया गया है) में डाला जाता है और गांव की रसोई में गैस की आपूर्ति की जाती है। जबकि बायोगैस प्लांट के नीचे बचे गोबर को, संयंत्र के ठीक बगल में स्थित वर्मी-बेड में डाल दिया जाता है। वर्मी-बेड में मौजूद केंचुए गोबर को समृद्ध जैविक खाद में बदल देते हैं।
संतोष कहते हैं, “एक बायोगैस संयंत्र में रोजाना, 25 किलो गोबर और 25 लीटर पानी डाला जाता है। इससे बनने वाली गैस का इस्तेमाल खाना बनाने में किया जाता है। और बचे हुए गोबर से वर्मी कम्पोस्ट बनता है। यह सारा काम केडिया की महिलाएं करती हैं।”
वर्मी कम्पोस्ट और बायोगैस के अलावा, गांव की महिलाएं गोमूत्र से जैविक स्प्रे भी बनाती हैं जैसे अमृतपानी, बीजामृत, ब्रह्मास्त्र, आदि।
केड़िया निवासी रंजू देवी ने गांव कनेक्शन को बताया, ” हम गोबर से वर्मीकम्पोस्ट बनाते हैं और गोमूत्र से अमृतपानी।” वह समझाते हुए बताती हैं, “अमृतपानी बनाने के लिए एक किलो गोबर, एक लीटर गोमूत्र, एक किलो बेसन, एक किलो नीम के पत्ते, एक किलो आम के पत्ते, एक मुट्ठी पीपल के पेड़ के नीचे की मिट्टी और 250 ग्राम गुड़ मिलाते हैं। इसका या तो फसलों पर छिड़काव किया जाता है, या बरसात के मौसम में हम इसे खेतों में डाल देते हैं। यह फसलों की जड़ों को कीटों से बचाता है।”
स्वच्छता, स्वास्थ्य और हाथों के छालों से छुटकारा
रंजू देवी ने कहा,”लगभग दस साल पहले, हम अपनी फसलों में रसायन और कीटनाशक का इस्तेमाल करते थे। इससे अक्सर हाथों में फोड़े-फुंसी हो जाया करती थीं। लेकिन अब वर्मीकम्पोस्ट से ऐसी कोई समस्या हमें नहीं होती है।”
वह आगे बताती हैं, “इसके अलावा, पहले मवेशियों को खुले में रखा जाता था और बारिश के मौसम में, गोमूत्र के साथ गोबर मिलाकर पूरे गांव में बहता रहता था। गांव में गंदगी और बीमारियां फैलती थीं। अब, हमारे पास एक पाशु-शेड है। गांव में साफ-सफाई बनी रहती है। और हमें बारिश के मौसम में गोबर के बहने या या चारों तरफ फैलने को लेकर परेशान नहीं पड़ता है।” गोबर और गोमूत्र को इक्ट्ठा करना भी अब आसान हो गया है।
वहीं बिंदू देवी का कहना हैं, “सबसे बड़ी राहत हमारी आंखों और फेफड़ों को मिली है। जब हम गोबर के उपले या लकड़ी से पारंपरिक चूल्हे पर खाना पकाते थे, तो चुल्हे से निकलता धुआं हमारी आंखों में जाता था। इससे हमारे फेफड़ों को भी नुकसान पहुंच रहा था।” वह आगे कहती हैं, “खाना बनाते समय हमारे हाथों से गोबर की गंध भी आती थी। लेकिन अब ऐसा नहीं है क्योंकि अब हम बायोगैस पर खाना बनाते हैं।”
आर्थिक रूप से भी मजबूत हुए
गांव में रहने वाली पूनम देवी ने गांव कनेक्शन को बताया, “जब हम पहले रसायनिक खेती किया करते थे, तो धान और गेहूं की फसलों के लिए रासायनिक उर्वरक – यूरिया या डीएपी – के दो बैग खरीदना जरूरी था। एक बैग की कीमत बारह सौ रुपये है।” वह याद करते हुए कहती हैं, “रोपई के दौरान, हमारे पास जो भी पैसा होता था, वह खत्म हो जाता। उस समय अगर बच्चे हमसे किताबें मांगते, तो हम नहीं खरीद पाते थे। यहां तक कि अगर बच्चे बीमार पड़ जाए, तो हम उन्हें डॉक्टर के पास ले जाने से भी बचते थे। हमारे पास उनकी फीस और दवाएं खरीदने के लिए पैसा ही नहीं होता था।”
हालांकि, जैविक खेती को अपनाने से यह सब बदल गया है। पूनम देवी ने कहा, “अब हम खेती के लिए वर्मीकम्पोस्ट का उपयोग करते हैं। जिससे यूरिया और डीएपी पर खर्च होने वाले प्रति बोरी बारह सौ बच जाते हैं। उस पैसे को हम अपने बच्चों के लिए कपड़े खरीदने या उनकी शिक्षा पर खर्च करने के लिए बेहतर तरीके से इस्तेमाल कर सकते हैं। अब टेंशन नहीं होती है।”
संतोष कुमार ने कहा कि ये महिलाएं पथप्रदर्शक हैं। और उन महिलाओं के लिए एक प्रेरणा हैं जो जैविक खेती कर अपना जीवन बदल सकती हैं।
जाहिर है, जब कोई गांव जैविक हो जाता है, तो वो अपनी महिलाओं की जिंदगी को खुशहाल बना देता है।