सिंघु बॉर्डर (दिल्ली-हरियाणा)। “हमको एक साल सिंघु बॉर्डर आए हो गए। सर्दी चली गई, गर्मी चली गई, बरसात बीत गई। हमारा एक साल कैसे कटा है ये हम जानते हैं या हमारा रब जानता है।”
इतना कह कर 45 साल के गुरदीप सोढ़ी आसमान की तरफ देखते हैं। उनके पीछे 5-6 बुजुर्ग किसान बैठे हैं। जो उन्हीं की तरह पंजाब और हरियाणा से 26 नवंबर को दिल्ली कूच के दौरान दिल्ली के बॉर्डर पहुंचे थे और फिर यहीं बैठ गए।
वो आगे कहते हैं, “हमको इधर आए बहुत टाइम हो गया। बीवी-बच्चे खेत सब छोड़कर आए हैं। मोदी जी का धन्यवाद उन्होंने कृषि कानूनों को वापस ले लिया (वादा दिया)। लेकिन ये इनको पहले करना चाहिए था। इस फैसले का इन्हें कोई फायदा नहीं मिलेगा। पंजाब में 117 सीटें, इन्हें वहां 117 बंदे नहीं मिलेंग। हमने पिछले चुनाव में प्रकाश सिंह बादल को वोट दिया था, उसका गठजोड़ था, लेकिन अब हम बीजेपी को वोट नहीं देंगे।”
50 किल्ला (एकड़) जमीन के मालिक गुरदीप सोढ़ी, पंजाब के शहीद भगत सिंह नगर के नवांशहर के रहने वाले हैं। वो अपने गांव के सैकड़ों किसानों के साथ 25 नवंबर 2020 को दिल्ली कूच में शामिल हुए थे और 26 नवंबर से दिल्ली के सिंघु बॉर्डर पर आंदोलन में शामिल हैं।
गुरदीप सिंह, सिंघु बॉर्डर पर संयुक्त किसान मोर्चा की तरफ से आंदोलन को चलाने के लिए बनाई गई वार्ड व्यवस्था में वार्ड नंबर 14 के प्रधान भी हैं। गुरुदीप के वार्ड में ही फतेहगढ़ साहिब जिले के बुजुर्ग किसान अरजेंदर सिंह भी हैं। वो कहते हैं, ” पिछले 9 महीने में मैं सिर्फ एक बार गांव गया हूं। अपनी जमीन ठेके पर देकर आया हूं। हमारा जो नुकसान होना था हो गया लेकिन अगली पीढ़ी की जमीनें तो बच गईं।”
कृषि सुधार, निवेश बढ़ाने और किसानों की आमदनी बढ़ाने के नाम पर केंद्र सरकार जून 2020 में अध्यादेश के रुप में तीन कृषि बिल कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य विधेयक 2020, मूल्य आश्वासन और कृषि सेवाओं पर किसान (सशक्तिकरण और संरक्षण) समझौता अध्यादेश, 2020 और आवश्यक संशोधन बिल, लेकर आई थी, जिन्हें सितंबर 2020 में संसद ने पास किया। जिसके साथ ही पंजाब और हरियाणा समेत कई राज्यों के किसानों ने विरोध शुरु कर दिया। कृषि कानूनों की वापसी का मांग को लेकर कई राज्यों के किसान संगठनों ने मिलकर संयुक्त किसान मोर्चा बनाया और 25-26 नवंबर 2020 को दिल्ली कूच का ऐलान कर दिया।
ट्रैक्टर ट्रालियों में राशन लेकर लाखों किसानों का काफिला दिल्ली की तरफ चल पड़ा। इस दौरान किसानों को रास्तों में रोकने की तमाम कोशिशें हुईं, सड़कें खोदी गईं, सड़क पर बैरिकेड लगाए गए, मिट्टी के पहाड़ खड़े किए गए, पानी की बौछार और लाठीचार्ज हुआ, लेकिन किसान नहीं माने और आखिरकार दिल्ली की सीमाओं पर डेरा डाल दिया। किसानों को दिल्ली आए एक साल हो गया है। इस दौरान बातचीत के कई दौर चले, सर्दी, गर्मी और बरसात का मौसम बीता, आंदोलन के दौरान कई 700 के करीब किसानों की जान चली गई लेकिन आंदोलन जारी रहा। किसानों के लिए 19 नवंबर को गुरु पर्व की सुबह एक बड़ी खबर लेकर आई जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीनों विवादित कृषि कानूनों को वापस लेने का ऐलान कर दिया। पीएम मोदी ने किसानों से कहा कि वो अब अपने घरों और खेतों को लौट जाएं सरकार संसद के मॉनसून सत्र में कानून वापस ले लेगी।
पीएम मोदी इस ऐलान के बाद किसानों साल भर से अपने अधिकारों की जंग लड़ रहे किसानों के चेहरे खिल गए। सिंघु, बॉर्डर, टीकरी बॉर्डर, गाजीपुर बॉर्डर और शाहजहांपुर बॉर्डर पर मिठाईयां बांटी गई। लेकिन पीएम मोदी के फैसले का स्वागत तो किया लेकिन वापस लौटने से इनकार कर दिया।
पंजाब में मानसा जिले के कोंडली कला गांव के हरप्रीत सिंह (38 वर्ष) कहते हैं, “किसान खुश हैं लेकिन हम अभी पूरी तरह जीते नहीं है। एमएसपी का मुद्दा अहम है। पंजाब-हरियाणा में एमएसपी लागू है, लेकिन यूपी-बिहार में लोगों को एमएसपी नहीं मिलती है वो पूरे देश को मिलना चाहिए। हम चाहते हैं पीएम इस पर भी बात करें। 700 लोगों की शहादत के बाद ये दिन आया है, तो उनके जाने का गम भी लेकिन हम जीते हैं तो खुश हैं। देश के सभी किसानों को बराबर का हक मिलें। खेती आगे बढ़े।”
किसानों का ये आंदोलन कई मायनों में बहुत खास है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लगातार चर्चा में रहे इस आंदोलन को आजादी के बाद सबसे बड़ा किसान आंदोलन कहा जा रहा है। ये आंदोलन जिस तरह से आगे बढ़ा, उसके बारे न तो सरकार ने सोचा था न ही उन किसान संगठनों ने इस तरह के जनसमर्थन की कल्पना की थी।
पंजाब के प्रमुख किसान नेताओं में शामिल रामेंद्र सिंह कहते हैं, ” ये तो कोई नहीं कह सकता कि उनका आंदोलन कितना लंबा चलेगा। लेकिन हम लोग ये जरुर जानते थे कि हमारी लड़ाई कॉरपोरेट के खिलाफ है। इंटरनेशनल इकोनॉमिक्स एजेंडे को लागू करने के लिए जिस तरह से सरकार ने कदम बढ़ाए थे, हमें ये पता था कि अगर हम पंजाब से बाहर नहीं निकल पाए तो हमारी हालत कश्मीर जैसी होगी। इसीलिए हम लोगों ने ये तय किया था कि सबको जोड़ना है, उस वक्त हमें नहीं पता था कि ऐसे इतिहास बनेगा लेकिन अब जब ये आंदोलन एक मुकाम की तरफ बढ़ चला है तो इतिहास तो बन गई गया है। इस आंदोलन की चर्चा दुनिया के उन आंदोलनों में ही जिनका समय-समय पर जिक्र आता है।”
कृषि कानूनों के खिलाफ पंजाब में सबसे पहले विरोध के स्वर उठे थे। अलग-अलग किसान संगठन जिन्हें वहां जत्थेबंदियां कहा जाता है अपने-अपने क्षेत्रों में प्रदर्शन कर रहे थे, उनका मानना था कि पंजाब का किसान इसलिए टिका है क्योंकि वहां मंडियां और एमएसपी पर खरीद का ये बेहतरीन मॉडल है और नए कृषि कानून मंडियों (APMC)को खत्म कर देंगे, क्योंकि सरकार ने मंडियों में लगने वाले टैक्स को खत्म करने का प्रावधान किया था, साथ ही उन्हें आशंका थी कि मंडी नहीं रहेगी तो न्यूनतम समर्थन मूल्य यानि एमएसपी का ये मॉडल भी नहीं रहेगा। किसानों का कहना था जिस तरह से कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग कानून के प्रावधान हैं उनकी जमीनों पर कॉरपोरेट का कब्जा हो जाएगा। इन सबके खिलाफ पंजाब में कोरोना की लहर के बावजूद किसान रेलवे ट्रैक से लेकर सड़क तक अपनी आवाज़ उठा रहे थे। सिंतबर 2020 में तीनों कृषि कानूनों के पास होने के बाद हरियाणा की 32 प्रमुख किसान संगठनों (यूनियन) ने एक मोर्चा बनाया। हरियाणा और दूसरे राज्यों को यूनियन को जोड़ा फिर संयुक्त किसान मोर्चे का जन्म हुआ।
पंजाब के एक और प्रमुख किसान संगठन जम्हूरी किसान सभा के अध्यक्ष डॉ. सतनाम सिंह अजनाला गांव कनेक्शन इस दिशा में लंबी बात करते हैं। उनके मुताबिक एमएसपी सिर्फ पंजाब ही नहीं पूरे देश का सबसे बड़ा मुद्दा है। इसलिए लिए तो देशभर के 471 किसान संगठन संयुक्त किसान मोर्चा में शामिल हुए हैं।
किसान नेता डॉ. सतनाम सिंह अजनाला कहते हैं, “पंजाब-हरियाणा में धान-गेहूं की खरीद एमएसपी पर होती है लेकिन मक्का और दालें तो नहीं खरीदी जातीं। यहीं बात हमने यूपी, राजस्थान, मध्य प्रदेश और दूसरे किसानों को समझाई और उन्हें एक मंच पर लाए। 26-27 अक्टूबर, 2020 दिल्ली में दो दिन का मंथन हुआ। फिर हमने एक मंच तैयार किया। क्योंकि किसान रहेगा तो देश रहेगा, देश रहेगा तो फूड सिक्योरिटी रहेगी, किसान रहेगा तो देश की सुरक्षा भी रहेगी।”
वो आगे कहते हैं, ” शुरू में लोग कहते थे देश में इतने अलग-अलग धर्म, जाति सोच के लोग हैं उन्हें एक मंच पर कैसे लाएंगे, लेकिन हमने ये किया। इस आंदोलन से देश को एक धागे में पिरोया है। आंदोलन के चलते कई फायदे हुए हैं, जैसे पंजाब हरियाणा में पानी को लेकर जो लड़ाई चलती रहती थी वो बंद हो गई। क्योंकि हमें समझ आया कि हमारा असली दुश्मन तो कॉरपोरेट सेक्टर है, जिन्होंने हमारे कोयले की खानों, सोने, गैस, पहाड़ों और नदियों आदि पर कब्जा किया है।”
तो क्या पंजाब के किसानों को कॉर्पोरेट और विकास से परहेज हैं, खदान से निकले लोहे से बने ट्रैक्टर पर चढ़कर आप (किसान) यहां आए हैं और लोहे के तंबुओं में रहकर सरकार से लड़ाई लड रहे हैं?
इस सवाल के जवाब में डॉ. सतनाम सिंह अजनाला कहते हैं, “नहीं नहीं, वो लोहा टाटा, अंबानी का नहीं है। वो मिट्टी से निकला है और देश का है। ट्रैक्टर के नाम पर ही देश में लूट है, चीन तो हमें सवा लाख में ट्रैक्टर देने को तैयार है। हमारा देश प्राकृतिक संसाधनों के मामलों के काफी धनी है लेकिन सरकारों ने ठीक से काम नहीं किया।”
अब जबकि किसान आंदोलन का एक साल पूरा हो गया है, केंद्रीय कैबिनेट ने कानून वापसी की प्रक्रिया की औपचारिकताएं पूरी कर दी हैं। बिल संसद में 29 नवंबर को ही पेश किया जाएगा। इस दिन का किसान बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं क्योंकि उन्हें ये भी देखना है कि किसान कृषि कानूनों को वापस लेने के अलावा सरकार उनकी दूसरी मांगों पर किस तरह आगे बढ़ती है, प्रतिक्रिया देती है।
सतनाम कहते हैं, एमएसपी कानून तो बनना ही चाहिए लेकिन हम संसद के सत्र के तीन-4 दिन देखेंगे कि क्या होता है फिर आगे की रणनीति का ऐलान करेंगे।
किसान आंदोलन के बारे में शुरुआत में ये भी कहा गया कि ये सिर्फ बड़े किसानों का आंदोलन है लेकिन किसान संगठनों के मुताबिक देशभर में हुई उनकी किसान महापंचायतों में उमड़ी भीड़ ने साबित किया कि छोटा किसान कृषि कानूनों के नुकसानों को समझ रहा है।
हरियाणा में हांसी जिले के 5 एकड़ के किसान रामवीर सिंह पिछले कई महीनों से आंदोलन का हिस्सा है। वो घर आते जाते हैं लेकिन उनका ज्यादातर समय सिंघु बॉर्डर पर बीतता है। रामवीर सिंह कहते, हमारे हरियाणा में भी तो गेहूं-धान ही खरीदा जाता है। सरसों बाजरा तो खरीदते नहीं। थोड़ा बहुत कपास खरीदते हैं। जो मोटी-मोटी फसलें हैं उनकी एमएसपी चाहिए। बाकी चीजें तो प्राइवेट बिकती हैं। गारंटी कानून होना चाहिए कि इससे नीचे फसल नहीं बिकेगी।”
लेकिन ओपन मार्केट के बारे में कहा गया कि निर्यात बढ़ेगा, खेती की भलाई होगी? इस सवाल के जवाब में रामवीर कहते हैं कि 2-4 एकड़ का किसान अपनी फसल लेकर कहां जाएगा, उसके लिए ये व्यवहार नहीं।
क्या कृषि कानून की वापसी पीएम मोदी से पंजाब-हरियाणा के लोगों की नाराजगी कम हो जाएगी?
सिंघु बॉर्डर पर कोंडली से करनाल की तरफ जाने वाले रास्ते पर रिंग रोड से करीब हरियाणा के किसानों के तंबू- कैंप लगे हैं। यहां चारपाई पर कई किसान बैंठे हैं हुक्का पी रहे हैं। चर्चा का विषय वहीं कृषि कानून हैं।
सफेद कुर्ते पायजामे में हरियाणा में एक गांव के सरपंच और किसान चूडिया राम के मुताबिक वहां बैठे ज्यादातर लोगों ने 2019 के लोकसभा और हरियाणा के विधानसभा चुनावों में बीजेपी को वोट दिया था। चूडिया राम गांव कनेक्शन से कहते हैं, “मोदी काम तो अच्छे कर रहा था बस यू काम (कृषि कानून) गलत कर दिया। इसकी सराहना नहीं है।” वो आगे कहते हैं, ये कानून वापस ले लिया था तो हमारे उनके से कोई शिकायत नहीं, उन्हें अगले चुनाव में फिर वोट देंगे।”
वहीं बैठे हरियाणा के एक किसान रामफल कहते हैं, ” हम लोग जीत के बिल्कुल नजदीक हैं, जब जीत मिल जाएगी (कानून वापस हो जाएंगे),संतुष्ट हो जाएंगे तो चले जाएंगे। और हमने मोदी से कोई विरोध थोड़े हैं। हमारा तो नीतियों से विरोध है, नीति बदल जाएगी तो किसान बदल जाएगा, अपना खेती का काम करेगा।”
हुक्के की इस चर्चा से ऐसा लगता था कि कृषि कानूनों की वापसी के बाद इन किसानों की सरकार से नाराजगी एक हद तक कम हो जाएगी, लेकिन यहां करीब 100 फीट दूर सड़क दूसरी तरफ बैठे किसानों में ज्यादातर पंजाब के थे, जिनके में कई ने कहा कि ये फैसला भले ही यूपी पंजाब और विधानसभा चुनाव के मद्देनजर लिया गया हो लेकिन पंजाब में इसका फायदा नहीं मिलेगा।