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तपती धरती और बढ़ता अनाज का संकट; समय रहते समाधान तलाशने होंगे

इस समय हीट वेव और जलवायु जैसी समस्याओं पर चर्चा, गोष्ठियां आदि करने की बजाय धरातल पर काम करने की जरूरत है। जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए धरातल पर पूरी दुनिया में एक साथ काम करने की जरुरत है, तभी इस समस्या का कुछ समाधान किया जा सकता है।
#heatwave

साल दर साल पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है। पूरी दुनिया बढ़ते हुए तापमान को लेकर चिंतित है। जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग का सबसे ज्यादा असर तापमान में हो रही बढ़ोतरी के रूप में देखा जा रहा है। बढ़ते हुए तापमान को लेकर पूरी दुनिया में चिंता देखी जा रही है। इसी प्रकार से तापमान में लगातार बढ़ोतरी होती रही तो आने वाले वर्षों में बढ़ती हुई आबादी के लिए अनाज का संकट खड़ा हो सकता है।

आज दुनिया में शायद ही कोई ऐसा देश होगा जिस पर जलवायु परिवर्तन का कोई प्रभाव न पड़ रहा हो। बदलता हुआ जलवायु परिवर्तन किसी न किसी रूप में हर किसी को चोट पहुंचाने की क्षमता रखता है। लेकिन जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा प्रभाव खेती और किसानी पर देखा जा रहा है। यह कहना गलत ना होगा कि जलवायु परिवर्तन से किसानों के इसकी चपेट में आने की संभावना सबसे अधिक रहती है और वह इस से सर्वाधिक प्रभावित भी होते हैं।

भारतीय कृषि प्रमुख रूप से मौसम पर आधारित है और जलवायु परिवर्तन की वजह से होने वाले मौसमी बदलावों का इस पर बेहद गहरा असर पड़ता है। जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान में वृद्धि होना एक प्रमुख समस्या के रूप में उभरकर सामने आ रहा है। इसके अलावा वर्षा का कम होना, कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा की स्थिति देखी जा रही है। जलवायु परिवर्तन के चलते ही असमय वर्षा, ओले पड़ना आदि स्थितियां भी देखने को मिल रही हैं। प्रकृति के बदलते हुए मिजाज के कारण पैदा हो रहीं है यह स्थितियां खेती किसानी के लिए कोई शुभ संकेत नहीं हैं।

जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान में वृद्धि होना एक प्रमुख समस्या के रूप में उभरकर सामने आ रहा है। इसके अलावा वर्षा का कम होना, कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा की स्थिति देखी जा रही है।

जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान में वृद्धि होना एक प्रमुख समस्या के रूप में उभरकर सामने आ रहा है। इसके अलावा वर्षा का कम होना, कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा की स्थिति देखी जा रही है।

इस प्रकार की स्थितियों के कारण खेती लगातार घाटे का सौदा साबित हो रही है। जलवायु परिवर्तन से पैदा हो रहीं इन परिस्थितियों के चलते कृषि उत्पादन में गिरावट आ रही है और किसानों को घाटा उठाना पड़ रहा है। इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि किसानों को यह पता होना चाहिए इस जलवायु परिवर्तन की समस्या से कैसे मुकाबला किया जाए। यदि समय रहते हुए जलवायु परिवर्तन की इस समस्या की ओर ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाले समय में यह समस्या और विकराल रूप लेकर सामने आएगी। तब इसका मुकाबला कर पाना बहुत मुश्किल होगा।

इसलिए इस समय जरूरत इस बात की है इस समस्या पर चर्चा, गोष्ठियों आदि करने की बजाय धरातल पर काम करने की आवश्यकता है। जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए धरातल पर पूरी दुनिया में एक साथ काम करने की जरुरत है, तभी इस समस्या का कुछ समाधान किया जा सकता है।

वैश्विक आबादी बढ़ने के साथ पूरी दुनिया में खाद्यान्नों की वैश्विक मांग में भी बढ़ोतरी हो रही है। विकसित देशों में रहने वाले लोगों के भोजन में जहां प्रोटीन की मात्रा अधिक रहती है वही भारत जैसे विकासशील देशों में लोगों के भोजन में कार्बोहाइड्रेट की अधिकता है। इस सब की पूर्ति खेती में पैदा होने वाले खाद्यान्न, दलहन और तिलहन से पूरी होती है।

जिस तेजी से पूरे विश्व में आबादी बढ़ रही है और आने वाले 2050 तक यह आबादी का आंकड़ा 9 अरब से ऊपर तक होने का अनुमान लगाया जा रहा है। इसको देखते हुए खाद्य और कृषि संगठन का अनुमान है कि खाद आपूर्ति और मांग के बीच अंतर को कम करने के लिए वैश्विक कृषि उत्पादन 2050 तक दुगना करने की आवश्यकता होगी। आने वाले वाले वर्ष 2050 तक भारत की आबादी मैं भी बढ़ोतरी का अनुमान लगाया जा रहा है। इस को देखते हुए भारत की जनसंख्या का पेट भरने के लिए हमें भी अपने देश का कृषि उत्पादन दोगुना करना ही होगा।

भारत में 120 मिलियन हेक्टर ऐसी भूमि हैं जो किसी न किसी प्रकार की कमी से ग्रस्त है। भारत में लघु और सीमांत किसानों की संख्या 87% से अधिक है। यही छोटे तथा मझोले किसान इस से सर्वाधिक प्रभावित होते हैं।

एक अनुमान के अनुसार भयंकर सूखे की वजह से इन्हें घरेलू उत्पादन में 24 से 58% की कमी का सामना करना पड़ सकता है और घरेलू गरीबी में 12 से 33% तक की वृद्धि हो सकती है।

आंकड़ों के अनुसार भारत की कुल कृषि भूमि का 67% भाग मानसून और अन्य मौसम में होने वाली वर्षा पर निर्भर है। कृषि की मौसम पर अत्यधिक निर्भरता होने की वजह से फसलों पर लागत अधिक आती है विशेषकर उन क्षेत्रों में जो वर्षा पर निर्भर होते हैं। यदि मौसम वैज्ञानिकों की चेतावनी को समझें तो वर्ष 2050 तक गर्मियों में होने वाली मानसूनी वर्षा में 70% तक की कमी आ सकती है। गर्मियों में होने वाली मानसूनी वर्षा में आने वाली इस गिरावट से भारतीय कृषि को नुकसान होना तय है।

इतना ही नहीं अनुमान यह भी लगाया जा रहा है कि आने वाले 80 वर्षों में खरीफ फसलों के मौसम में औसत तापमान में 0.7 से 3.3 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो सकती है। यदि ऐसा हुआ तो इसके परिणाम स्वरूप वर्षा भी कमोबेश प्रभावित होगी जिसकी वजह से रबी के मौसम में गेहूं की उपज में 22% तक की गिरावट आ सकती है तथा धान का उत्पादन 15% तक कम हो सकता है।

वैश्विक जलवायु जोखिम सूचकांक पर नजर डालें तो वर्ष 2019 में भारत को इस सूची में 14वें स्थान पर रखा गया है। इस रैंकिंग में भारत के चार अन्य पड़ोसी देश और अधिक ऊंचे स्थान पर हैं म्यांमार तीसरे, बांग्लादेश सातवें, पाकिस्तान आठवें और नेपाल 11 वे स्थान पर है। यह सूचकांक स्पष्ट करता है कि भारत के यह चारो पड़ोसी देश चरम यानि एक्सट्रीम मौसमी घटनाओं से अधिक प्रभावित होते हैं।

इसका ताजा उदाहरण गत वर्ष पाकिस्तान में आई भयंकर बाढ़ के रूप में देखने को मिल चुका मिला है। यह सूचकांक मौत और आर्थिक नुकसान के मामले में चरम मौसमी घटनाओं तूफान, बाढ़ भीषण गर्मी आदि के मात्रात्मक प्रभाव का विश्लेषण करता है। इन प्रभावों का लेखा-जोखा पूर्ण रूप से साथ ही संबंधित शब्दों के साथ रखता है।

हालांकि भारत इस मामले में भाग्यशाली है कि उसके हिस्से में मानसून की अच्छी वर्षा आती है लेकिन बढ़ते तापमान की समस्या से भी देश को दो-चार होना पड़ रहा है। बढ़ता हुआ तापमान भारत जैसे देश के लिए गंभीर चिंता का विषय बन रहा है। जो कि देश की खेती-किसानी पर एक गंभीर संकट के रूप में देखा जा रहा है।

गत वर्ष 2022 के मार्च माह मैं भारत और पाकिस्तान में पैदा हुई असामान्य शुरुआती गर्मी की लहरों ने 122 साल पहले का रिकॉर्ड तोड़ दिया था। जलवायु परिवर्तन के कारण गत वर्ष मार्च माह में तापमान मैं हुई बढ़ोतरी के कारण देश मैं रबी का खाद्यान्न उत्पादन आशा के अनुरूप नहीं हुआ था।

इसके चलते भारत को गेहूं का निर्यात भी रोकना पड़ गया था। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने “हीटवेव 2022: कारण, प्रभाव और भारतीय कृषि के लिए आगे बढ़ने का रास्ता” शीर्षक से एक रिपोर्ट भी प्रकाशित की है। जिसमें जलवायु लचीला कृषि (निकरा) कार्यक्रम में राष्ट्रीय नवाचारों के माध्यम से किए गए विश्लेषण को शामिल किया गया है। गर्मी की लहरों से लड़ने, फसलों और मवेशियों की रक्षा करने के तरीकों का सुझाव दिया गया है।

बढ़ता हुआ का तापमान भारत में खेती-किसानी के निश्चित रूप से चुनौती बन कर उभर रहा है। हीटवेव असामान्य रूप से उच्च तापमान की अवधि है जो भारत के उत्तर पश्चिमी हिस्सों में गर्मियों के मौसम के दौरान होने वाले सामान्य अधिकतम तापमान से अधिक होती है। देखा जाए तो हीटवेव्स आमतौर पर मार्च और जून के बीच होते हैं और कुछ दुर्लभ मामलों में जुलाई तक भी देखने को मिलती है। चरम तापमान और परिणामी वायुमंडलीय स्थितियां इन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करती हैं। भारत में गर्मी की लहर का चरम महीना मई में होता है।

स्थानीय स्तर पर पुकारे जाने वाला नौतपा भी मई और जून के बीच में ही पड़ता है। आईएमडी के आंकड़ों पर नजर डालें तो एक दशक में गर्मी की लहर के दिनों की संख्या जहां वर्ष 1981 से 1990 के बीच 413 थी वह वर्ष 2011 से 2020 के बीच में बढ़कर 600 तक पहुंच गई है। यहां यह कहना गलत न होगा कि हर दशक में गर्मी की चरम स्थिति के दिनों की संख्या बढ़ रही है।

मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) द्वारा हीटवेव के वर्गीकरण के क्रम में मैदानों के लिए 40 डिग्री सेल्सियस या अधिक और पहाड़ी क्षेत्रों के लिए 30 डिग्री सेल्सियस अधिक तापमान हीटवेव्स में माना जाता है। यदि वास्तविक अधिकतम तापमान के रूप में देखें तो गर्मी की लहर 45 डिग्री सेल्सियस तथा अत्यंत गंभीर गर्मी की लहर को 47 डिग्री सेल्सियस से ऊपर तापमान जाने को माना गया है। इस बढ़ते हुए तापमान के लिए ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के साथ ही मानवीय करकों को कारण माना जा रहा है।

हीटवेव्स की स्थिति के कारण फसल उत्पादन और बागवानी के उत्पादन में कमी आ रही है। आईसीएआर की रिपोर्ट के अनुसार गर्मी के तनाव के कारण 15 से 25% तक की औसत उपज हानि की हो रही है। हीटवेव्स के प्रभाव के कारण नमी, तनाव, सनबर्न, फूलों की बूंद और बागवानी फसलों में कम फल सेटिंग जैसी समस्या देखने को मिल रही है। इतना ही नहीं पशुओं की मृत्यु और पशुओं की उत्पादन, उत्पादकता और प्रजनन क्षमता में भारी कमी देखी जा रही है।

दूध उत्पादन में भी 15 से 20% तक की कमी आई है। मुर्गी पालन में अंडे के उत्पादन में गिरावट के साथ-साथ ब्रायलर की मृत्यु दर में भी वृद्धि हुई है। हीटवेव के चलते भारत को 2030 तक काम के घंटों का 6% तक की कमी होने की संभावना व्यक्त की जा रही है।

इस समाधान के रूप में संरक्षण कृषि और शुष्क कृषि को बढ़ावा देने की आवश्यकता है। साथ-साथ प्रत्येक गांव को विभिन्न मौसमों में फसल, कीटों और महामारियों के बारे में मौसम आधारित पूर्व चेतावनी के साथ समय पर वर्षा के पूर्वानुमान की जानकारी दी जानी चाहिए। कृषि अनुसंधान कार्यक्रमों के तहत शुष्क भूमि अनुसंधान पर फिर से ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है। इसके तहत ऐसे बीजों को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए जो सूखे जैसी स्थिति में फसल उत्पादन जोखिम को 50% तक कम कर सकते हैं। गेहूं की फसल रोपण के समय में कुछ फेरबदल करने पर विचार किया जाना चाहिए।

एक अनुमान के अनुसार ऐसा करने से जलवायु परिवर्तन से होने वाली क्षति को 60 से 75% तक कम किया जा सकता है। किसानों को कम अवधि की सूखा एवं तापमान सहनशील फसलों की प्रजातियों को विकसित करके देने की आवश्यकता है। इसके साथ ही किसानों को मिलने वाले फसल बीमा कवरेज और उन्हें दिए जाने वाला कर्ज भी की मात्रा बढ़ाई जाने की आवश्यकता है। सभी फसलों को बीमा कवरेज देने के लिए इस योजना का विस्तार किया जाना चाहिए तथा बीमा कवरेज वास्तविक नुकसान के आधार पर प्रत्येक किसान को दिया जाए तो इस से किसानों के नुकसान की काफी हद तक भरपाई की जा सकती है।

खेती में वनीकरण को बढ़ावा देने के लिए एग्रो फॉरेस्ट्री को बढ़ाए जाने की जरूरत है। गाँवों की में ग्राम पंचायतों के माध्यम से सामाजिक को अधिक से अधिक बढ़ावा दिए जाने की भी आवश्यकता है। इसके साथ ही साथ जलवायु स्मार्ट कृषि और शून्य जुताई की पद्धतियों को अपनाते हुए रिसोर्स कंजर्वेशन तकनीकी को खेती में समावेशित करके इस समस्या पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है।

(डॉ. सत्येंद्र पाल सिंह, राजमाता विजयाराजे सिंधिया कृषि विश्वविद्यालय- कृषि विज्ञान केंद्र, लहार (भिंड) मध्य प्रदेश के प्रधान वैज्ञानिक एवं प्रमुख हैं।)

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