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लीची किसानों के लिए क्यों मुश्किल हो रहा है लागत निकाल पाना

देश की कुल लीची उत्पादन का आधा बिहार में होता है, लेकिन पिछले कई साल से लगातार बढ़ती गर्मी ने फसल को प्रभावित किया है।
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गर्मियों के मौसम में बाज़ार में आने वाली गुलाबी लीची हर किसी का मन लुभाती है; अगर आपसे कहा जाए कि आने वाले समय में शायद लीची ही न मिले? ऐसा हम नहीं मौसम वैज्ञानिक और लीची किसान कह रहे हैं।

मौसम में उतार-चढ़ाव और बढ़ती गर्मी ने लीची किसानों को रुला दिया है। बिहार के पूर्वी चंपारण जिले के महसी गाँव के किसान कौसर अली के अनुसार इस बार उनकी लीची का लगभग 80 प्रतिशत तक नुकसान हो गया है। कौसर अली गाँव कनेक्शन से बताते हैं, “जब लीची के बढ़ने का समय था, तब ही लू चलने लगी थी; इससे फल जल गए और अभी जब बारिश हुई तो फल फट गए, शाही लीची को सबसे ज़्यादा नुकसान हुआ है।”

बिहार के हजारों किसान लीची की खेती से जुड़े हुए हैं, यहाँ पर पूरे देश के आधे से ज़्यादा लीची का उत्पादन होता है। भारतीय बागवानी डेटाबेस के अनुसार, साल 2011 में बिहार ने कुल 216,900 मीट्रिक टन लीची का उत्पादन हुआ, इसके बाद पड़ोसी राज्य पश्चिम बंगाल में उत्पादन हुआ, जिसमें 81,200 मीट्रिक टन की उपज दर्ज की गई। लेकिन बदलते मौसम से उत्पादन पर असर पड़ रहा है।

लीची एग्रो फार्मर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष बच्चा बाबू सिंह गाँव कनेक्शन से बताते हैं, “इस बार गर्मी बहुत देर तक पड़ी, देर से जाड़ा शुरू हुआ और देर तक रहा; मार्च-अप्रैल में जब फल लगने शुरू हुए तो ऐसी पछिया चली कि फल झड़ गए, इससे सिर्फ 15-20 प्रतिशत फल बचे हैं।”

बिहार में दो किस्मों की लीची का उत्पादन होता है, एक शाही लीची और दूसरी चाइना लीची। शाही लीची जल्दी तैयार होती है, जबकि चाइना किस्म देर में तैयार होती है। इसलिए ज़्यादा नुकसान शाही किस्म की बागवानी वाले किसानों को हुआ है। बिहार के मुजफ्फरपुर, पूर्बी चंपारण, वैशाली, सीतामढ़ी, पश्चिम चंपारण प्रमुख लीची उत्पादक जिले हैं।

डॉ राजेंद्र प्रसाद केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के पोस्ट ग्रेजुएट डिपार्टमेंट ऑफ प्लांट पैथोलॉजी एंड नेमेटोलॉजी के विभागाध्यक्ष डॉ एसके सिंह गाँव कनेक्शन से बताते हैं, “ऐसा नहीं है कि अप्रैल-मई महीने में बढ़ी गर्मी से लीची उत्पादकों को नुकसान हुआ है; इसकी शुरुआत नवंबर महीने में ही हो गई थी, जब तापमान बढ़ गया था।”

पौधों की वृद्धि दो तरीकों से होती है, एक जब पत्तियों की वृद्धि होती है और दूसरा जब फल लगते हैं तब।

सितंबर के महीने में फूल और फल लगने का समय शुरू हो जाता है, लेकिन अगर आपने 15 सितंबर के बाद खेत की गुड़ाई कर दी या सिंचाई कर दी तो पेड़ में नई पत्तियाँ आने लगती हैं। ऐसे में रिप्रोडक्टिव फेज, वेजिटेटिव फेज में कन्वर्ट हो जाएगा। उसमें नई-नई पत्ती निकल आएगी, फल नहीं आएँगे।

वो आगे कहते हैं, “बिहार में जब नवंबर में तापमान बढ़ा तो इससे नई पत्तियाँ आ गईं, नई पत्तियों के आ जाने से इस बार फ्लावरिंग बहुत कम हुई है और जब फ्रूट की ग्रोथ होती है तब 37 डिग्री से ज़्यादा तापमान नहीं होना चाहिए।”

विश्व स्तर पर, भारत चीन के बाद सबसे अधिक मात्रा में लीची का उत्पादन करता है। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ हॉर्टिकल्चर रिसर्च के मुताबिक देश भर में करीब 83,000 हेक्टेयर में लीची की खेती होती है। बिहार में 35,000 हेक्टेयर में फैले लीची के बाग हैं।

“हर साल तीन दिनों से ज़्यादा हीट वेव नहीं चलती है, लेकिन इस बार हीट वेव ज़्यादा दिनों तक रही। इसकी शुरुआत अप्रैल में ही हो गई थी, अप्रैल का महीना लीची किसानों के लिए इतना खराब रहा; लेकिन मई में बारिश होने से कुछ राहत हुई, अगर ऐसी स्थिति मई में भी रहती तो लीची किसानों को बहुत नुकसान होता, “डॉ एसके सिंह ने आगे कहा।

अप्रैल के महीने में जब गर्मी बढ़ी तो उसके छिलके जल गए, जिससे वहाँ के टिश्यू डेड हो गए। इसके बाद जब मई महीने में पानी गिरा तो फल फट गए। इस बार लीची में गुठली ज़्यादा बड़ी है, पल्प बहुत कम है।

आखिर बिहार में लीची का भविष्य क्या है? के सवाल पर डॉ एसके सिंह आगे कहते हैं, “अगर लीची की भविष्य की बात करें तो जिस तरह से हीट वेव साल दर साल बढ़ रहा है, ऐसे में किसान अगर अपनी खेती के तौर तरीके बदलाव नहीं करेगा तो लीची की खेती करना मुश्किल होगा, इसके लिए ज़रूरी है कि वो अपने बाग में ड्रिप के साथ ही ओवर हेड स्प्रिंकलर भी लगाएँ; इससे नीचे साथ ही पेड़ों को ऊपर से भी पानी मिलता रहेगा, जितना भी तापमान बढ़ेगा, ओवरहेड स्प्रिंकलर चलाने से तापमान कम हो जाएगा।”

बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के बिसनपुर बखरी गाँव के लीची किसान सुधीर कुमार पांडेय की डेढ़ हेक्टेयर लीची की बाग है। वो कहते हैं, “किसानों को अब ज़्यादा ध्यान रखना होगा, हम लोगों ने पहले से ही ध्यान दिया था, इसलिए कम नुकसान उठाना पड़ा; ऐसा तो अब हर साल होने वाला है, इसलिए हम किसानों को भी तैयार रहना होगा।”

वो आगे बताते हैं, “इस बार बहुत से व्यापारी बाग छोड़कर चले गए, क्योंकि जितनी लागत लगाते उतना भी फायदा नहीं होता; ऐसे में हम किसानों को ही व्यवस्था करनी होगी, तभी फसल बचा पाएँगे।”

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