खेती के बारे में एक किसान से बेहतर कौन समझ सकता है, तभी तो भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) ने जैविक पाठ्यक्रम के लिए कृषि विशेषज्ञों और जैविक कृषि पद्धति अपना रहे प्रगतिशील किसानों की कमेटी बनाई है। इस कमेटी में राजस्थान के दो किसानों को शामिल किया गया है, जो पिछले कई वर्षों से प्राकृतिक खेती करते आ रहे हैं।
दसवीं पास पद्मश्री हुकुमचंद पाटीदार
राजस्थान के झालावाड़ के नामित मानपुरा गांव के 65 वर्षीय किसान हुकुमचंद पिछले कई वर्षों से प्राकृतिक खेती करते आ रहे हैं। इसके लिए उनको साल 2018 में राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने पद्मश्री से सम्मानित किया था।
40 एकड़ में प्राकृतिक खेती कर रहे हुकुम चंद पाटीदार की राह इतनी आसान नहीं थी, वो बताते हैं, “जब मैंने जैविक खेती शुरू की जो लोग कहने लगे कि ये व्यक्ति तो पागल हो गया है और आर्थिक रुप से कमजोर हो जाएगा, दुनिया आसमान में उड़ रही है और ये अभी भी धरती पर चल रहे हैं, ऐसे अनेक शब्द मेरे बारे में कहते थे।”
वो आगे कहते हैं, “समाज द्वारा प्रताड़ना भी सही, अपमानित भी हुए आर्थिक नुकसान भी हुआ, पर अंत में धीरे-धीरे अब पूरा विश्व इस ओर अग्रसर हो रहा है। इसके अलग अलग मॉडल हो सकते हैं, इसमें प्राकृतिक खेती हो सकती है, जैविक खेती हो सकती है इस समय जिस मॉडल पर काम हो रहा है, उसे नाम दिया गया है प्राकृति एवं गोवंश आधारित जैविक खेती।”
प्राकृतिक खेती शुरू करने के बारे में वो बताते हैं, “2004 में मैंने डेढ़ एकड़ में शुरू किया था, अभी हम 40 एकड़ में खेती कर रहे हैं। पूरे फार्म में इसी पर आधारित खेती होती है। शुरू में एक-दो साल तक तो परिवार ने साथ नहीं दिया, लेकिन बाद में बच्चों से लेकर बुजुर्ग तक मेरा साथ देते रहे, इसका असर रहा कि उनके स्वास्थ्य पर 75% व्यय की कमी आयी है।”
“साल 2004 से शुरुआत की थी और राजस्थान में पहली बार हमने इसकी शुरुआत की थी, उस समय एक संकल्प किया था क्यों न हम कृषि में ऐसा परिवर्तन लाएं, जिसमें हमारे सामने जितनी भी समस्याएं हैं, चाहे वो पर्यावरण की हों पशुधन की है, मानव स्वास्थ्य की है, मृदा के बिगड़ते स्वास्थ्य की है, “उन्होंने आगे बताया।
हुकुमचंद पाटीदार कहते हैं कि प्राकृतिक वनस्पतियों को कृषि में शामिल किया जाना चाहिए, गोवंश का मतलब गोवंश के आदान को कृषि में शामिल किया जाए, इससे गोवंश को बचाने में भी सफल होंगे। इसके साथ ही मिट्टी में जीवांश की घटती मात्रा भी वो एक तरह से समाप्त होने के कागार पर है, अगर यह समाप्त होता तो एक तरह से धरती बंजर हो सकती है। तो इसको बढ़ाने के लिए प्राकृतिक खेती की तरफ हमें आगे बढ़ना चाहिए।
वो बताते हैं, “ये जो सूक्ष्म जीवाणु मिट्टी को उपजाऊ बनाने में मदद करते हैं। वैदिक काल का एक शब्द है ‘जीवो जीवस्य भोजनम्’ जिसका अर्थ है जीव जीव का भोजन है, इसी पर हम कर रहे हैं, पिछले 17-18 साल से आगे भी करते रहेंगे।इसको अपनाने से खेती की लागत में कमी आयी है, फसल की उपज की गुणवत्ता बेहतर हुई।
बीएससी पास करके बाद रतनलाल डागा ने शुरू की खेती
राजस्थान के जोधपुर जिला मुख्यालय से लगभग 40 किमी दूर मथानिया गाँव में 60 एकड़ में 71 वर्षीय रतनलाल डागा प्राकृतिक खेती करते हैं। उनके फार्म पर अनाज से लेकर, सब्जी, फल और मसालों तक की खेती होती है।
बीएससी के बाद खेती शुरू करने वालेरतनलाल डागा बताते हैं, “मैंने साल 1973 में एग्रीकल्चर से बीएससी की उसके बाद पिता जी के साथ खेती में लग गया। मेरे दादा जी और पिता जी दोनों खेती करते थे और मेरे दादा जी का एक उसूल था कि सबको पढ़ लिखकर खेती करनी चाहिए, मुझे भी इसीलिए उन्होंने बीएसी करने को भेजा।”
वो आगे कहते हैं, “पढ़ाई करने के बाद जब मैं वापस आया तो पिता जी के साथ दो सालों तक खेती की वो बहुत अच्छी खेती करते थे, लेकिन उनकी खेती करने के तरीके और मेरे खेती के तरीके में अंतर था फिर उन्होंने कहा कि जमीन लो और कुछ कर के दिखाओ। उसके बाद से मैंने 1976 से अपनी अलग खेती शुरू कर दी, शुरू में सात एकड़ जमीन ली, फिर धीरे-धीरे उसे ही आगे बढ़ाता रहा।”
शुरू में रतनलाल भी रसायनिक खेती ही करते रहे, प्राकृतिक खेती की शुरूआत के बारे में वो कहते हैं, “मैंने भी पहले रसायनिक खेती ही शुरू की थी, कई साल तक रसायनिक खेती ही करता रहा। साल 1994 में किसान संघ से जुड़ गया और 1999 में बैंगलोर के कृषि विश्वविद्यालय एक मीटिंग में गया वहां के प्रिंसिपल साहब ने बताया कि आप जो अभी खेती कर रहे हो, यह खेती आगे चलकर बहुत खतरनाक साबित होगी, क्योंकि जो खेत की मिट्टी है, उसमें धीरे-धीरे जीवांश की मात्रा खत्म हो रही है आपकी खेती की लागत बढ़ती जाएगी।”
बस वहां से लौटने के बाद उन्हें समझ में आया कि वो जो रसायनिक खेती कर रहे हैं, उसमें धीरे-धीरे उन्होंने यूरिया और दूसरे रसायनों की मात्रा बढ़ा दी है, जिसकी वजह से खेती की लागत भी बढ़ती जा रही है और कमाई भी कम हो रही है। बस वहीं से साल 2002 में रसायनिक खेती से प्राकृतिक खेती की ओर आए।
वो बताते हैं, “लेकिन एक गलती की पूरी खेती को रसायन से प्राकृतिक खेती की ओर ले आया, जिसका असर ये हुआ कि 2001 और 2002 में प्रोडक्शन एकदम जीरो पर आ गया, इसका नुकसान भी हुआ।”
“फिर 2003 में मैंने स्टडी शुरू कि लोग बता रहे हैं कि इतनी अच्छी खेती कर रहे हैं मेरा क्यों नुकसान हो रहा है, तब बहुत पता करने पर समझ आया कि जिस तरह से मानव शरीर को अफीम देते हैं और इसके बाद एकदम से छोड़ देते हैं तो क्या हालत होती है, वही हाल खेती का भी हो रहा है। इसलिए खेती को धीरे-धीरे रसायन मुक्त करो और जीवांश की मात्रा बढ़ाते जाओ, “उन्होंने आगे बताया।
वो बताते हैं, “मेरी एक व्यक्ति से बात हुई कि मुझे जोधपुर में दुकान दो मैं आपको रसायन मुक्त उत्पाद दूंगा, उन्होंने मुझे साल भर के लिए फ्री में दुकान दी। मैं गेहूं, बाजरा, ज्वार, मोंठ, तिलहन, दलहन, मसालों में सौंफ, मिर्च, मेथी, धनिया, अजवाइन सबकी खेती करता गया। अब तो आंवला, अनार, बेर जैसे फलों के भी बाग लिए हैं, अभी हाल ही में अंजीर और सेब भी लगाया है।”
आईसीएआर ने बनायी है 12 सदस्यी कमेटी
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट में प्राकृतिक खेती के पाठ्यक्रम को शामिल करने के लिए 12 सदस्यों की कमेटी बनायी है।
केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय, इंफाल के कुलपति डॉ अनुपम मिश्रा इस कमेटी के अध्यक्ष हैं। कमेटी के सदस्यों में गोविंद वल्लभ पंत कृषि विश्वविद्यालय की कृषि वैज्ञानिक डॉ सुनीता पांडेय, आनंद कृषि विश्वविद्यालय के माइक्रोबायोलॉजी वैज्ञानिक डॉ आरवी व्यास, महाराणा प्रताप कृषि विश्वविद्यालय के शोध निदेशक डॉ एसके शर्मा, राजमाता विजयाराज सिंधिया कृषि विद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ प्रकाश शास्त्री, केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान (काजरी) के वैज्ञानिक डॉ अरुण कुमार शर्मा, भारतीय कृषि प्रणाली अनुसंधान संस्थान के प्रधान वैज्ञानिक डॉ एन रविशंकर, तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिक डॉ ई सोमासुंदरम, सीएके हिमाचल प्रदेश कृषि विद्यालय के प्राकृतिक खेती के प्रोफेसर डॉ रामेश्वर कुमार, प्रगतिशील किसान रतन डागा, पद्मश्री हुकुमचंद पाटीदार, इंदौर के अजय केलकर, ओडिशा सरकार के पूर्व संयुक्त निदेशक (पशु चिकित्सा) डॉ बलराम साहू शामिल हैं।
कमेटी के सभी सदस्य दो महीनों में आईसीएआर को अपनी रिपोर्ट देंगे, जिसके आधार पर ग्रेजुएट, पोस्ट ग्रेजुएट और डिप्लोमा कोर्स के सिलेबस में प्राकृतिक खेती को शामिल किया जाएगा।