क्यों बढ़ गईं हैं जीरा की कीमतें, क्या जीरा किसानों को हो रहा है इससे फायदा?

भारत दुनिया में जीरा का प्रमुख उत्पादक और उपभोक्ता है, गुजरात और राजस्थान का घरेलू उत्पादन में 90% से अधिक का योगदान है। हालांकि, बदलते मौसम और बढ़ते जोखिम के कारण जीरा किसान दूसरी फसलों की ओर रुख कर रहे हैं। जीरे का रकबा तो कम हुआ ही उत्पादन भी घट गया है, जिससे आपूर्ति में कमी आई है। इससे जीरे की कीमतें 70 साल के उच्च स्तर पर हैं।
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प्रदीप खोजा बचपन से अपने पुश्तैनी खेत में जीरे की खेती में लगने वाली मेहनत को देखते हुए बड़े हुए हैं। उनके दादा ने जीरे की खेती करने की शुरूआत की थी। फिर उनके पिता ने इसे अपना लिया। और अब खोजा ने भी अपने खेतों में जीरे की फसल उगाने का विकल्प चुना है। आज वह 36 साल के हैं और मेहनत करने से उन्हें कोई गुरेज नहीं है। दरअसल राजस्थान के पाली इलाके की शुष्क, दुर्लभ वर्षा जलवायु परिस्थितियां जीरे की खेती के लिए एकदम उपयुक्त हैं।

लेकिन जीरे की खेती पर पीढ़ियों से चली आ रही पकड़ के बावजूद, आज पाली का यह किसान कशमकश के दौर से गुजर रहा है। जीरे की खेती का क्या करें और क्या न करें? यह सवाल उनके सामने मुंह बाए खड़ा है। जहां पहले वह 2.5 हेक्टेयर जमीन पर खेती कर रहा था, आज वह घटकर लगभग आधी यानी 1.2 हेक्टेयर रह गई है। कारण? खोजा ने गाँव कनेक्शन को बताया, बढ़ता जोखिम, उच्च लागत और बढ़ता नुकसान उन्हें इससे दूर ले जा रहा है। उन्होंने कहा कि वो अब बची हुई जमीन को रबी की दूसरी फसल रैडो (सरसों) उगाने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं।

खोजा जैसे हालात जालोर जिले की चितलवाना तहसील के गुराहेमा गाँव के लाला सरन के भी हैं। उन्होंने पिछले साल 60 बीघे (1बीघा = 0.13 हेक्टेयर) जमीन पर जीरे की खेती का थी। लेकिन इस साल उन्होंने इस घटाकर 40 बीघा कर दिया। वह बाकी की जमीन पर सरसों उगाकर अपने नुकसान की भरपाई करने की उम्मीद कर रहे हैं।

जलवायु परिवर्तन के प्रति जीरे की उच्च संवेदनशीलता के कारण गुजरात और राजस्थान में जीरा किसान सरसों की ओर रुख कर रहे हैं।

जलवायु परिवर्तन के प्रति जीरे की उच्च संवेदनशीलता के कारण गुजरात और राजस्थान में जीरा किसान सरसों की ओर रुख कर रहे हैं।

सरन ने आह भरते हुए कहा, “पिछले साल पूरा जीरा जल गया। ओले और अनियमित जलवायु ने जीरे की फसल को खराब कर दिया। मुझे 250 बोरी जीरे की उम्मीद थी लेकिन सिर्फ 50 बोरी जीरा ही हो सका।” सरन की एक बोरी में 60 किलो जीरा होता है।

राजस्थान भारत का दूसरा सबसे बड़ा जीरा उत्पादक राज्य है। धीरे-धीरे यहां के किसान जीरे की खेती से दूरी बनाते जा रहे हैं। जीरे के उत्पादन में गिरावट दर्ज की गई है। जाहिर है, इस सबके चलते जीरे की कीमत ने नया रिकॉर्ड बना लिया।

उंझा स्पाइस मार्केट में प्री-फसल महीने (जनवरी) और पोस्ट-फसल महीनों (मार्च और अप्रैल) [2018 से 10 जनवरी, 2023] में जीरे की कीमतों में गिरावट

पिछले हफ्ते 5 जनवरी को गुजरात के उंझा मसाला बाजार में जीरा अब तक के उच्चतम स्तर पर टूटा। इसकी कीमत 28,500 रुपये प्रति क्विंटल (1क्विंटल = 100 किलोग्राम) से शुरू हुई और अधिकतम कीमत 35,500 रुपये प्रति क्विंटल पर जाकर रूकी। उंझा एपीएमसी (कृषि उपज बाजार समितियां) एशिया का सबसे बड़ा मसाला बाजार है और जीरे के व्यापार के लिए एक प्रसिद्ध वाणिज्यिक केंद्र भी।

बाजार सचिव आरके पटेल ने गाँव कनेक्शन को बताया कि लगभग सात दशक पहले उंझा बाजार के अस्तित्व में आने के बाद से यह इस मसाले की उच्चतम दर है।

पटेल ने कहा, “यह पिछले साल का स्टॉक है जिसे व्यापारी निकाल रहे हैं। आपूर्ति कम है और वैश्विक बाजार में मांग काफी ज्यादा है। इसने जीरे को दुनिया के नक्शे पर ला दिया है।”

गुजरात और राजस्थान में जीरे के उत्पादन में गिरावट

भारत में विश्व के जीरे का 70 प्रतिशत से अधिक उत्पादन करने का अनुमान है। 2021-22 में, देश में लगभग 1,036,713 हेक्टेयर भूमि जीरे की खेती के अधीन थी, जिससे 725,651 टन जीरा पैदा हुआ। यह पिछले दो वर्षों में देश के जीरा उत्पादन से कम है- 2020-21 में 795310 टन और 2019-2020 में 912040 टन।

गुजरात और राजस्थान की राष्ट्रीय उत्पादन में 99 फीसदी हिस्सेदारी है। ये दोनों भारत के दो शीर्ष जीरा उत्पादक राज्य में बने हुए हैं। 2020-21 में गुजरात ने 420,000 टन और राजस्थान ने 303,504 टन जीरे का उत्पादन किया था।

वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय, भारत सरकार के अंतर्गत आने वाले स्पाइसेस बोर्ड ऑफ इंडिया के आंकड़ों की मानें तो दोनों राज्यों ने 2019-20 से 2021-22 तक पिछले तीन सालों में मसाले के उत्पादन के साथ-साथ जीरे की खेती के तहत भूमि क्षेत्र में गिरावट देखी है।

2019-20 में गुजरात में जीरे का 481,556 टन उत्पादन था। 2020-2021 में यह घटकर 474,523 टन और 2021-2022 में 420,000 टन हो गया- 12.78 फीसदी की संचयी गिरावट।

सीमावर्ती राज्य राजस्थान में बड़ी गिरावट देखने को मिली है। 2019-2020 में जीरे का उत्पादन 428,146 टन था, जो 2020-2021 में 318,688 टन पर आ गया। 2021-2022 में यह और नीचे गिरते हुए 303,504 टन पर पहुंच गया- 29.11 प्रतिशत की संचयी गिरावट (देखें ग्राफ)।

क्या इसके लिए जलवायु परिवर्तन जिम्मेदार है?

एग्रोनॉमी, कृषि विश्वविद्यालय, जोधपुर की सहायक प्रोफेसर आभा पाराशर ने समझाते हुए कहा, “उत्पादन पूरी तरह से जलवायु पर निर्भर है। जलवायु पैटर्न में हालिया बदलाव जीरे के लिए मौसम की उपयुक्त आवश्यकताओं को प्रभावित कर रहा है। फसल को कम तापमान और नॉन क्लॉड वेदर की जरूरत होती है, लेकिन अब सर्दियों में भी सामान्य से अधिक तापमान बना रहता है ।”

फेडरेशन ऑफ इंडियन स्पाइस स्टेकहोल्डर्स के अध्यक्ष देवेंद्र पटेल ने पराशर की बात से सहमती जताते हुए कहा कि जलवायु परिवर्तन ने जीरे की उपज को प्रभावित किया है। पटेल ने गाँव कनेक्शन को बताया, “जहां गुजरात और राजस्थान दोनों में 2018 से 2021 तक प्रति हेक्टेयर औसतन 530 किलोग्राम उपज देखी जा रही थी, वहीं 2021-22 में यह 445 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हो गई- प्रति हेक्टेयर 100 किलोग्राम की गिरावट आई है। सर्दियों के मौसम में सामान्य से अधिक तापमान के कारण अंकुरण बुरी तरह प्रभावित हुआ है।”

उत्पादन में गिरावट के कारण मांग और आपूर्ति में भी अंतर आ गया है। इसकी वजह से जीरा अब तक के उच्च स्तर पर कारोबार कर रहा है। पटेल ने कहा, “पिछले साल मार्च 2022 में कैरी फॉरवर्ड स्टॉक 28 लाख बैग था (एक बैग का वजन 55 किलोग्राम होता है), जबकि इस साल हमारे पास जनवरी की शुरुआत में सिर्फ 12 लाख बैग थे, जो मार्च में घटकर छह लाख बैग हो जाएंगे। पिछले साल की तुलना में कैरी फॉरवर्ड स्टॉक लगभग एक-चौथाई रह गया है।

जालोर जिले की चितलवाना तहसील के गुराहेमा गांव के लाला सरन (सबसे बाएं) ने पिछले साल जीरे की खेती के तहत जमीन को पिछले साल के 60 बीघा (1 बीघा = 0.13 हेक्टेयर) से घटाकर इस साल 40 बीघा कर दिया है, और सरसों के साथ एक मौका लिया है।

जालोर जिले की चितलवाना तहसील के गुराहेमा गांव के लाला सरन (सबसे बाएं) ने पिछले साल जीरे की खेती के तहत जमीन को पिछले साल के 60 बीघा (1 बीघा = 0.13 हेक्टेयर) से घटाकर इस साल 40 बीघा कर दिया है, और सरसों के साथ एक मौका लिया है।

उन्होंने आगे कहा, “पिछले वर्षों की औसत उपज 85 लाख बैग रही है, लेकिन 2021-22 में यह सिर्फ 50 लाख बैग थी। पिछले साल के 28 लाख बैग को मिलाकर, 2022 में हमारे पास 78 लाख बैग थे, जिनमें से 35 लाख का घरेलू उपयोग किया गया और 31 लाख का निर्यात किया गया। औसतन घरेलू मांग 42 लाख बोरी तक पहुंच जाती है।’

पराशर ने कहा, “जाहिर है कि बढ़ी हुईं कीमतें कम उत्पादन, जीरे की खेती के तहत कम भूमि क्षेत्र और उच्च वैश्विक और घरेलू मांग के कारण है।”

पटेल के अनुसार, “अगले 1.5 महीने इस फसल के लिए महत्वपूर्ण होंगे। अगर तापमान कम रहता है, तो उपज अभी भी बढ़ सकती है।”

क्या अब तक की सबसे ऊंची कीमत से जीरा उगाने वाले किसानों को फायदा होगा?

खोजा के जीरे की फसल अभी तैयार नहीं हुई है। उनके खेतों में निराई-गुड़ाई का काम जोरों पर है और वे 1.25 हेक्टेयर से कम से कम 28 बोरी जीरे के उत्पादन की उम्मीद करते हुए कड़ी मेहनत कर रहे हैं। वह परेशान इसलिए हैं क्योंकि पिछले साल भी उन्हें फसल से 40 बोरियां मिलने की उम्मीद थी, लेकिन जलवायु परिवर्तन और एक नई मुरझाने वाली बीमारी जिसे स्थानीय रूप से पीलिया कहा जाता है, ने उनकी सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया था। फसल कटने के बाद उनके हाथ में सिर्फ तीन बोरियां थीं। प्रत्येक बोरी में 50 किलो जीरा होता है।

निराश होते हुए खोजा ने कहा, “जीरा एक जोखिम भरा विकल्प है या फिर कहें कि यह एक जुआ है। एक औसत जीरा के पौधे की उंचाई 1.25 फीट होती है। मेरे खेतों में पिछले साल यह दो फीट लंबा था। पर पकी हुई फसल खराब हो गई। पीलिया कीट ने पूरे खेत का सफाया कर दिया। मुनाफे की तो बात छोड़िए, मैं लागत भी नहीं निकाल सका। इस बीमारी से फसल को बचाने के लिए कोई कीटनाशक उपलब्ध नहीं है।”

खोजा अपनी उपज को जैतारण तहसील में अपने गाँव निंबोल से 25 किलोमीटर दूर बिलाड़ा मंडी, जोधपुर में जाकर बेचते हैं। गुजरात का उंझा मसाला बाजार खोजा के गाँव से 250 किलोमीटर दूर है और वहां की तुलना में खोजा को अपनी फसल की काफी कम कीमत मिलती है। 5 जनवरी को जब उंझा में जीरे की उच्चतम कीमत 7,100 रुपये/20 किलोग्राम थी, बिलाड़ा मंडी ने उन्हें 5,600 रुपये/20 किलोग्राम की पेशकश की थी।

पाली जिले की जैतारण तहसील के निंबोल गांव के प्रदीप खोजा ने जीरे की खेती के लिए जमीन पिछले साल के 2.5 हेक्टेयर से घटाकर इस साल 1.2 हेक्टेयर कर दी है।

पाली जिले की जैतारण तहसील के निंबोल गांव के प्रदीप खोजा ने जीरे की खेती के लिए जमीन पिछले साल के 2.5 हेक्टेयर से घटाकर इस साल 1.2 हेक्टेयर कर दी है।

यहां जालौर के लाला सरन अपने आपको खोजा से थोड़ा बेहतर स्थिति में पाते हैं। भले ही उन्हें जीरे को बेचने के लिए 200 किलोमीटर दूर उंझा जाना पड़ता है लेकिन उन्हें अपनी उपज के लिए बेहतर कीमत मिल जाती है। पर ये कीमत उतनी नहीं होती, जितनी उन्हें उम्मीद होती है।

सरन ने शिकायती लहजे में कहा, “मेरे जैसे किसानों के उंझा मंडी पहुंचने से पहले कीमतें काफी बढ़ी होती हैं। हर साल का यही हाल है। लेकिन इस साल यह कुछ ज्यादा ही है। मुझे पता है कि किसी भी किसान के पास अभी फसल तैयार नहीं है। यह सब व्यापारियों की चाल है, जो पिछले साल की उपज को पहले तो स्टोर करके रख लेते है और फिर फसल तैयार होने से पहले उन्हें अधिक कीमत पर बेच देते हैं। जब तक हम अपनी फसल लेकर वहां पहुंचेंगे, तब तक अंतरराष्ट्रीय बाजार की जरूरतें पूरी हो जाएंगी और दरें गिर जाएंगी।”

उन्होंने कहा, “पिछले साल व्यापारियों को एक क्विंटल के लिए 20,000 रुपये मिले थे, लेकिन हमें प्रति क्विंटल जीरे की उपज के लिए सिर्फ 15,000 रुपये मिल पाए थे।”

खोजा और सरन जैसे जीरा किसानों के पास अपनी उपज के लिए कोई भंडारण स्थान नहीं है, ताकि वे बाजार की कीमतों में बढ़ोतरी और मुनाफा कमाने का इंतजार कर सकें। तिलहन की तरह जीरे का कोई न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) भी नहीं होता है।

जीरा उगाना: एक मुश्किल भरा काम

जीरे के बीज को बोने के लिए उसका पूरी तरह से सूखा होना जरूरी है, नहीं तो बीज फटेगा नहीं। खोजा ने गणेश और दिनकर के बैनर तले उपलब्ध हाइब्रिड बीजों को बाजार से 35 हजार रुपये प्रति क्विंटल पर खरीदा था।

जमीन की तैयारी भी मुश्किल है। खेतों को अच्छी तरह से जोतना पड़ता है, नहीं तो फसल ठीक से नहीं बढ़ती है। इसका सीधा सा मतलब है कि खेतों की अधिक जुताई करनी होती है।

खोजा ने कहा, “हम फसल से मिले जीरे को फिर से इस्तेमाल नहीं कर सकते,क्योंकि इसमें कुछ न कुछ नमी बरकरार रहती है। अगर हम इसे सुखा भी लें, तो यह कभी भी उतना सूखा नहीं हो सकता, जितना फसल उगाने के लिए जरूरी होता है। इसलिए इसे खरीदना पड़ता है। और फिर हम जोखिम क्यों लें?” लेकिन वहीं सरसों की फसल के साथ ऐसा नहीं है। नमी का जोखिम न होने के कारण पिछली फसल से ही सरसों के बीज प्राप्त किए जा सकते हैं।

जीरा उगाने में महिलाओं की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। जीरे के साथ उगी खरपतवार को स्क्वाट और मैन्युअल रूप से निकालने की जरूरत होती है। प्रक्रिया को स्थानीय रूप से निराई-गोदाई कहा जाता है। फसल के समय महिला मजदूर सूखे जीरे की झाड़ियों को चुनती हैं और खेत में उन्हें इकट्ठा करती हैं।

खोजा ने बताया, “मुझे पिछले साल अपने जीरे के खेत में काम करने के लिए लगभग 100 मजदूरों को लगाना पड़ा था। हर मजदूर पर रोजाना मजदूरी के रूप में लगभग 350-400 रुपये खर्च करने पड़ते। यह सब नुकसान की ओर ले जाता है।”

खोजा के नुकसान और सरसों की ओर मुड़ने का मतलब इन महिला मजदूरों के लिए काम का कम होना भी है। जीरा के विपरीत, सरसों को पूरी तरह से निराई की जरूरत नहीं होती है, क्योंकि फसल का सिर्फ ऊपरी भाग ही काटा और उपयोग किया जाता है और इस काम को पुरुष आराम से कर लेते हैं।

साठ साल की पप्पू देवी के 13 पोते-पोतियां है। वह खोजा के खेत में खेतिहर मजदूर के रूप में काम करती हैं। देवी का एक संयुक्त परिवार है, जिसका मतलब है कि बहुत सारे लोगों का पेट भरना। उनकी कमाई से घर की कई ज़रूरतों को पूरा करने में मदद मिलती है। जीरे की खेती से उन्हें काम मिलता रहता है। लेकिन जब ऐसा नहीं होता तो देवी को मजदूरी करने के लिए मनरेगा की तरफ रूख करना पड़ता है। पिछले साल उन्हें 100 दिनों के वादे के मुकाबले ग्रामीण रोजगार योजना के तहत 35 दिन काम मिला था।

40 साल की सुशीला देवी भी खोजा के खेत में मजदूरी करती हैं। उन्होंने कहा कि जीरे के फसल चक्र के दौरान उन्हें हर महीने 15-20 दिन का रोजगार मिल जाता है। उसने शिकायत की कि जीरे के तहत कम भूमि क्षेत्र ने उनके काम को भी प्रभावित किया है।

कृषि विश्वविद्यालय, जोधपुर में एग्रोनॉमी के सहायक प्रोफेसर पराशर ने गाँव कनेक्शन को बताया, “छोटे कद के कारण जीरे को बेहतर खरपतवार प्रबंधन की जरूरत होती है। लेकिन सरसों के मामले में ऐसा नहीं है। यह अत्यधिक संवेदनशील फसल है और इसमें संक्रमण काफी तेजी से लगता है। इस फसल को अधिक कीटनाशकों की आवश्यकता होती है। यह किसी भी तापमान परिवर्तन पर तुरंत प्रतिक्रिया करती है और मिट्टी से अधिक पोषक तत्व निकालती है। एक हेक्टेयर में एक किसान को जहां 25 क्विंटल सरसों मिलेगी, वहीं इतनी जमीन पर वह सिर्फ 15 क्विंटल जीरा उगा पाएगा।”

उन्होंने कहा, ‘दूसरी तरफ सरसों के अगर बाजार भाव को छोड़ दें तो यह सभी मोर्चों पर फायदा देने वाली फसल है। यह जीरे की तरह यह कोई व्यावसायिक कमोडिटी नहीं है।’

वह जीरे को लेकर बने एक लोक गीत को गुनगुनाने लगती है: ‘जीरो जीवरो बैरी रे, मत बाओ ना परन्या जिरो’। यह गीत मसाले की उच्च संवेदनशीलता का वर्णन करता है।

खोजा ने पिछले साल एक बीघा (0.25 हेक्टेयर) जमीन पर चार किलो जीरा बोया था। बदले में सिर्फ 750 ग्राम जीरा की पैदावार हुई थी। उन्होंने कहा, “इस फसल पर मोइला कीट आसानी से हमला कर देता है। इससे बचने के लिए फसल चक्र के दौरान कम से कम पांच बार शाकनाशी (हर्बिसाइड) छिड़काव की जरूरत होती है। अंतिम बार सिंचाई करने के बाद फिर से खरपतवारों को निकालना पड़ता है। खरपतवार और जीरे का अनुपात लगभग तीन गुना है। गहाई भी हाथ से ही की जाती है।”

हालांकि खोजा के पास अपनी लागत का सटीक लेखा-जोखा नहीं है, लेकिन अकेले कीटनाशकों के लिए उन्होंने प्रति हेक्टेयर औसतन 27,000 रुपये का खर्चा किया था। 2.5 हेक्टेयर जमीन पर जीरे की खेती के साथ यह लागत 67,500 रुपये बैठती है।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की एक रिपोर्ट में जीरे की प्रति हेक्टेयर लागत 61,817.32 रुपये आंकी गई है। इस आंकड़े के अनुसार, 2.5 हेक्टेयर के लिए खोजा की लागत लगभग 1.54 लाख रुपये होगी।

कृषि विशेषज्ञ बताते हैं कि जमीन के एक ही टुकड़े पर बार-बार एक ही फसल को उगाना उपज के लिहाज से सही नहीं है। पाली के कृषि विज्ञान केंद्र में एग्रोनॉमी सब्जेक्ट मैटर स्पेशलिस्ट महेंद्र कुमार चौधरी गाँव कनेक्शन को बताते हैं, “फसल का रोटेशन हमेशा अच्छा होता है। बार-बार जीरे की खेती करने से मिट्टी के पोषक तत्व खराब हो जाते हैं और एक समय के बाद उपज कम हो जाएगी।”

कृषि विश्वविद्यालय, जोधपुर के सहायक प्रोफेसर पराशर ने उनके इन विचार पर अपनी सहमति जताई।

जीरे की एक नई किस्म पर अनुसंधान की तत्काल आवश्यकता की ओर इशारा करते हुए पराशर ने कहा “किसान 2007 से GC 4 किस्म के जीरे का इस्तेमाल करते आ रहे हैं। यह एक मुरझाने वाली किस्म के रूप में जाना जाता था और अब किसानों को इसका सामना करना पड़ रहा है। GC4 के साथ और भी कई समस्याएं हैं। कोई भी किस्म ज्यादा से ज्यादा दस सालों तक अच्छा प्रदर्शन कर सकती है। इससे आगे अपनी क्षमता खो देगी।”

कम उत्पादन ने जीरे के निर्यात को भी प्रभावित किया है। पटेल ने बताया, ‘औसत जीरे का निर्यात 2.5 लाख टन है, जो 2022 में घटकर 1.7 लाख टन रह गया।’

दुनिया भर में जीरा के शीर्ष आयातक चीन, बांग्लादेश, अमेरिका, मिस्र, संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब हैं। साथ में 2019 में बीजों की आयात मांग के आधे से अधिक की पूर्ति भी यही देश करते हैं। प्रमुख आपूर्ति करने वाले देशों में अफगानिस्तान, सीरिया और तुर्की का नाम भी हैं।

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