प्रशासनिक सेवा की तैयारी कर रहे रितेश ने जब दादाजी से आज के खान पान से गायब हुए मोटे अनाजों के बारे में जानना चाहा तो उन्होंने सामने दरवाजे पर खाली पड़ी गाय की नाद को दिखाते हुए कहा –
“ऐसे ही सब खत्म नहीं होता। हमने तेजी से आगे बढ़ने की चाह में धीरे धीरे उन छोटी लेकिन उपयोगी चीजों को नजरअंदाज कर दिया है जो खेती बाड़ी और गाँव की दिनचर्या में अहम थे।”
मोटे अनाज जिनके प्रोत्साहन के लिए केंद्र सरकार तमाम कार्यक्रमों का आयोजन कर रही है, वो कभी घर में पर्याप्त मात्रा में रखे होते थे। उन पर केवल घर के इंसान ही नहीं बल्कि मवेशी और अन्य जीवों का भी खानपान निर्भर करता था। नयी पीढ़ी शहर की सड़क पर जैसे जैसे आगे बढ़ी, उन्हें गाँव से जुड़ी चीजें तुच्छ और पिछड़ेपन की निशानी लगने लगी। ज्वार बाजरी को जानवरों का चारा बताया गया, लोगों ने इसे निम्न स्तर का खाना समझा और फिर इनकी मांग में कमी आने लगी।
रितेश के दादा की कही ये बाते कोरी नहीं है। ये सच है कि किसान जो कभी छोटे से खेत में अपना गुजर बसर कर लेता था अब उसे बाजार में सही दाम में बिकने वाले अनाज को महत्व देना पड़ता है। आज जो हम पोषक तत्वों की कमी, तमाम बीमारियों के प्रति अपनी प्रतिरोधक क्षमता में कमी देख रहे हैं या मवेशियों को केवल पशु आहार के भरोसे छोड़ रहे है, इन सब परिस्थितियों की नींव 70 – 80 के दशक से ही पड़ने लगी थी।
गाँव की आबादी आर्थिक मानकों पर भले ही पिछड़ी थी, पर सेहत के मानकों पर शहरी आबादी से कहीं बेहतर थी। कहने को भारत एक कृषि प्रधान देश है, पर किसी बड़ी योजना को बनाते समय ग्रामीण क्षेत्रों की जीवनशैली पर उसका क्या प्रभाव पड़ेगा इसतरफ शायद ही किसी का ध्यान जाता है।
आज किसान की जेब तो खाली है ही, उसकी सेहत भी ख़राब है। दरअसल जब देशी फसल की उपज कम हुई, गाय दूध कम दे रहीं थी, सिंचाई के साधन नहीं थे तो लोगों ने खेती और उससे जुड़े व्यवसाय से दूरी बनाना शुरू कर दिया। किसान अपने बेटे को किसान नहीं बनाना चाहता, इससे बदतर क्या होगा? किसी भी व्यवसाय में परंपरागत ज्ञान रखने वाले जब उसे छोड़ते हैं तो समाज के लिए यह अच्छा संकेत नहीं होता है।
किसानों ने ज़मीन बेची, खेती की जमीन पर घर और फार्म हाउस बन गए। किसान अपनी ही जमीन पर किराएदार से होते गए। वो गेहूं बेच कर आटा खरीद रहा है, गुड़ बेच कर चीनी। फसल काटने के समय उसे दाम नहीं मिलता और वो औने-पौने दाम में फसल बेच कर अपनी उधारी चुकाता है और फिर अगली फसल की कमाई तक बाजार के भाव से चीजें खरीदता है।
अफ़सोस भरी साँस लेते हुए दादा जी अब घुटने पर हाथ रख नीचे देखते हुए चुप हो गए। जैसे उन्होंने अब उम्मीद छोड़ दी हो। रितेश को शायद अपनी पूरी पीढ़ी की तरफ से ग्लानि महसूस हुई और उसने अपने नोट बुक में सब लिखना शुरू किया।
इंसान के विकास क्रम में खेती की बड़ी भूमिका रही है। शुरुआती दौर में मोटे अनाजों की ही पैदावार हुई थी। औद्योगिक क्रांति और हरित क्रांति के बाद इनकी पैदावार में काफी कमी आयी। जिसके कारण इनकी प्रति हेक्टेयर कम उपज, सरकार का गेहूं और चावल की कृषि पर खास ध्यान, सिंचाई के उन्नत साधन आने के साथ बाजार में इनकी मांग लगातार गिरती चली गई। भारत आज भी मोटे अनाज का सबसे बड़ा उत्पादक और उपभोक्ता है, लेकिन अन्य अनाजों की तुलना में इनकी मांग और बिक्री ज्यादा नहीं बढ़ी।
हाल ही में भारत सरकार ने साल 2023 को वैश्विक मोटे अनाज के वर्ष में मनाने का प्रस्तावना संयुक्त राष्ट्र के सामने रखा, जिसको सदस्य देशों से भी सहयोग मिला। निश्चित ही इस प्रयास से देश में इनका उत्पादन बढ़ेगा। किसानों को इसका फायदा मिलेगा और धीरे धीरे इनकी प्रासंगिकता को भी बल मिलेगा।
जो अनाज कभी गाँव की थालियों में होते थे आज उनको फिर से खानपान की मुख्यधारा में लाने के लिए सभी को कोशिश करनी होगी। किसानों को यकीन दिलाना होगा कि जो वो फसल उगाएंगे बिकेगी। खरीददार और बाजार दोनों की जरुरत है। भारत में हरित क्रांति ने खाद्य विविधता को ख़त्म कर दिया जिससे हमारे खेतों और थाली से मोटे अनाज का महत्व भी कम हो गया। विश्व स्तर पर भी,इन अनाजों ने चावल, गेहूं और मक्का के लिए अपना महत्व खो दिया है, जो दुनिया के अनाज उत्पादन का 89 फ़ीसदी हिस्सा है।
भारत में लगभग छह से सात तरीके के मोटे अनाज उगाए जाते हैं, जिसमें पर्ल मिलेट (बाजरा), फिंगर मिलेट (रागी), फॉक्सटेल मिलेट (कंगनी), प्रोसो मिलेट (बारगु), सोरगम (ज्वार), लिटिल मिलेट (समाई), कोदो मिलेट (अरका) शामिल हैं।
भारत में अब क्यों बढ़ी रही है मोटे अनाजों की मांग
भारत कई कारणों से मोटे अनाजों पर अब ध्यान बढ़ा रहा है। बाजरा सूखा-प्रतिरोधी फसल है जिसे खराब मिट्टी और कम वर्षा वाले क्षेत्रों में उगाया जा सकता है। यह भारत के उन हिस्सों में एक महत्वपूर्ण खाद्य स्रोत बन जाता है जहां अन्य फसलें नहीं उग सकती हैं। देश में वर्षा आधारित खेती ,कुल खेती का 60 प्रतिशत है। ऐसे इलाकों में मोटे अनाज की खेती से किसानों की निर्भरता सिंचाई के साधन और मानसून की अनियमितता पर कम हो सकती है।
आंकड़े बताते हैं कि भारत दुनिया में मोटे अनाज का 5वां सबसे बड़ा निर्यातक है। साल 2021-22 में 64.28 मिलियन डालर मूल्य के मोटे अनाजों का निर्यात किया गया। पूरे एशिया में मोटे अनाज के उत्पादन में भारत का 80 फीसदी हिस्सा है।
साल 2022 में मोटे अनाज की पैदावार की बात करें तो भारत 19 प्रतिशत वैश्विक हिस्सेदारी के साथ सबसे बड़ा उत्पादक था। उस साल भारत ने कुल 17.60 मिलियन मेट्रिक टन का उत्पादन किया, जिसमें 4.40 मिलियन मीट्रिक टन ज्वार और बाकी 13.20 मिलियन टन दूसरे मोटे अनाज थे।
पूरे विश्व में कुल मोटे अनाज के उत्पादन का 66 फीसदी ज्वार और बाकी 34 फीसदी में दूसरे मोटे अनाज आते हैं। मोटे अनाज की खेती ज्यादातर एशियाई और अफ्रीकी देशों में होती है जिनमें भारत, चीन , नाइजीरिया, माली देश में सबसे अधिक उत्पादन होता है। जबकि मोटे अनाज की खपत साल 2022 में दुनिया में 90.43 मिलियन मीट्रिक टन थी। जिसमें सबसे अधिक खपत 17.75 मिलियन मीट्रिक टन भारत और उसके बाद 13.70 मिलियन मेट्रिक टन चीन में हुई।
इसकी कुल खपत का लगभग 30 प्रतिशत जानवरों के खाने में उपयोग होता है। बाकी 70 फीसदी का इस्तेमाल खाने में, बीज संरक्षण में और औद्योगिक क्षेत्र में होता है। ज्वार की 40 फीसदी खपत जानवरों के खाने के तौर पर होती है। इसे मक्के के विकल्प के रूप में जानवरों के आहार में दिया जाता है, जिसकी वजह से इसकी बाजार में मांग बनी रहती है।
मोटे अनाज की बढ़ती मांग को देखते हुए भारतीय किसानों के लिए यह अच्छी आमदनी का रास्ता बन सकता है। उच्च प्रोटीन, जटिल कार्बोहाइड्रेट और उच्च फाइबर सामग्री वाले खाद्य उत्पादों के लिए विश्व में जबरदस्त रुचि है। स्वास्थ्य चेतना और खान पान की शैली में जो बदलाव आ रहे हैं उनसे इन अनाजों की मांग में ज़ोर आया है।
चिकित्सक भी मानते हैं की इनके प्रयोग से शरीर का वजन संतुलित रखने के साथ, मधुमेह, रक्तचाप और दिल संबंधी समस्याओं को नियंत्रित करने में सहायता मिलती है ।
कन्नड़ भाषा में एक कहावत है कि, जो चावल खाता है वो चिड़िया के समान हल्का होता है, जो ज्वार खाता है वो भेड़िये की तरह मजबूत और ताकतवर होता है और जो रागी खाता है वो निरोगी रहता है।
रितेश के दादा अब भले खेती नहीं करते हो, भारत में होने वाले मोटे अनाज के फायदे जरूर बताते हैं। जैसे -पर्ल मिलेट यानि बाजरा वजन को नियंत्रित करने में सहायक सिद्ध होता है। इससे आंतों की सेहत भी अच्छी बनी रहती है।
जबकि सोरगम जिसे ज्वार कहते हैं कार्बोहाइड्रेट का सबसे अच्छा स्रोत है। इसे मोटे अनाज का राजा कहा जाता है। विश्व में सबसे ज्यादा उत्पादन और खपत इसकी ही है।