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कान्हा राष्ट्रीय पार्क से विस्थापित बैगा आदिवासियों की मदद के लिए बढ़े हाथ, अब खेती बाड़ी के साथ ही कर रहे दूसरे काम

मध्य प्रदेश में कान्हा राष्ट्रीय पार्क से विस्थापित हुए आदिवासियों ने अपनी जगह के लिए दावा करने के लिए सालों तक संघर्ष किया है। बैगा जनजाति के 32 परिवारों का एक समूह अब बफर ज़ोन के चिचरंगपुर गाँव में रहता है, जहां एक गैर-लाभकारी संस्था उन्हें खेती और आजीविका के अन्य साधनों का प्रशिक्षण दे रही है।
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कान्हा राष्ट्रीय उद्यान, मध्य प्रदेश। बैगा जनजाति की धीमरन बाई 70 साल की हैं। लेकिन उन्हें आज भी 48 साल पहले की बरसात की वो सुबह अच्छी तरह से याद है, जब वह अपने पति चरण सिंह बैगा और अपने नवजात शिशु के साथ ओमरई गाँव के अपने घर को छोड़ने के लिए मजबूर हो गई थीं।

उनका गाँव कान्हा राष्ट्रीय पार्क के अंदर स्थित था। इस नेशनल पार्क को 1973 में एक बाघ अभयारण्य घोषित किया गया था। इसके बाद यहां रहने वाले आदिवासियों को यह जगह छोड़ने के लिए कहा गया। इस साल रॉयल बंगाल टाइगर को भारत का राष्ट्रीय पशु घोषित कर, भारत सरकार ने प्रोजेक्ट टाइगर भी लॉन्च किया था।

आदिवासी महिला ने गाँव कनेक्शन को बताया, “मेरी गोद में छोटा बच्चा था। बारिश का मौसम था और सरकार ने हमें हमारे घरों से निकाल दिया। सालों तक हम भूख से तड़पते रहे। अपना पेट भरने और अपने बच्चों को खिलाने के लिए जंगलों में भटकते रहे।”

वह सालों तक अपने पति के साथ मजदूरी करने के लिए एक गांव से दूसरे गांव भटकती रहीं थी। और आखिर में चिचरंगपुर आकर बस गईं। लेकिन यहां आकर भी उन्हें सुकुन नहीं मिला था. सालों तक बिना खेती और रोजगार के वे अपने दिन काटते रहे। बालाघाट जिले का चिचरंगपुर गाँव मध्य प्रदेश में टाइगर रिजर्व के बफर जोन में स्थित है।

कान्हा में स्थित एक गैर-लाभकारी संगठन ‘अर्थ फोकस कान्हा’ ने उनकी परेशानियों को समझा और उनकी सहायता के लिए आगे आया। आज उनका जीवन बदल गया है। यह संस्था 2019-20 से चिचरंगपुर में 32 बैगा परिवारों के साथ मिलकर काम कर रही है और उन्हें खेती और रोजगार से जोड़ रही है।

कहा जा सकता है कि बरसों की मशक्कत के बाद चिचरंगपुर गांव के बैगा दंपति और कुछ साथी आदिवासी परिवारों ने खेती और आजीविका के अन्य साधनों को अपनाकर एक नया जीवन शुरू किया है।

गैर-लाभकारी आजीविका टीम के कार्यक्रम कॉर्डिनेटर किशन पुरी ने गांव कनेक्शन को बताया, “हमने गाँव के लोगों के पलायन को रोकने के मकसद के साथ बैगा परिवारों के साथ काम करना शुरू किया था।” उन्होंने कहा, “शिक्षा और स्थिर आजीविका मुख्य समस्याएं थीं और इसलिए हमने कान्हा के बफर जोन में स्थित गांवों के साथ काम करने के लिए जुट गए।”

इन इलाकों में तीन चीजों पर गैर-लाभकारी काम कर रहा है – प्रवास को रोकना, समुदायों को उनके गाँव के भीतर आमदनी का जरिया खोजना और बंजर भूमि को खेती लायक बनाना।

पुरी के मुताबिक, विस्थापित बैगा परिवारों के साथ काम करना आसान नहीं था। ये लोग सालों से घोर गरीबी, भुखमरी और अभाव में जी रहे थे। बच्चों के पास पढ़ने के लिए कोई जगह नहीं थी। काम की तलाश में यहां से वहां घूमते अपने माता-पिता के साथ वे भी भटकते रहते थे।

खेती में जुटी विस्थापित आदिवासी

काम की तलाश में इधर-उधर भटकने के बाद 1992 में धीमरन बाई और चरण सिंह अन्य 32 परिवारों के साथ चिचरंगपुर में आकर बस गए।

चरण सिंह बैगा ने कहा, “यह पूरा जंगली इलाका था। हमने खाने के लिए कुछ उगाने के लिए जमीन को साफ किया। यह कठोर जमीन थी। एकदम बंजर। हर साल धान की सिर्फ एक फसल ही यहां हो पाती थी, वह भी पर्याप्त बारिश होने पर। “

उन्होंने कहा कि यह काफी मुश्किल था। कई आदिवासी परिवारों ने अपनी हिम्मत छोड़ दी थी। वह अब अपनी जमीन पर कुछ भी नहीं उगा पा रहे थे। खेती को छोड़ वो मजबूरन प्रवासी मजदूर बनने की राह पर चल निकले। या तो पूरे परिवार रोजी-रोटी की तलाश में इधर-उधर भटकता रहता था या फिर सिर्फ पुरुष ही अपने परिवारों को छोड़कर चले जाते थे।

गोधर बैगा भी विस्थापित होने के बाद अपने परिवार के साथ चिचरंगपुरा आ गए थे। 67 वर्षीय ने गाँव कनेक्शन को बताया, “अन्य बैगा लोगों के साथ हमने कुछ जंगलों को साफ किया और यहां आकर बस गए।”

गोधर के मुताबिक, विस्थापित आदिवासियों ने बंजर जमीन पर बाजरा उगाने की कोशिश की थी। लेकिन जंगली जानवर फसल को बर्बाद कर देते थे। उन्होंने बताया, ” सो, हमें काम के लिए दूसरे गांवों में जाने के लिए मजबूर होना पड़ा।”

फिलहाल गोधर चिचरंगपुरा गांव में खेती कर रहे हैं। उन्होंने कहा, “मैं अब सब्जियों के अलावा अपने खेत में मटर और छोले भी उगा रहा हूं।” उनके अनुसार, बहुत से किसान तो पहली बार सरसों, हल्दी, अदरक और बाजरा की भी खेती कर रहे हैं। कुछ अपने इस्तेमाल के लिए खेती करते हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जो अतिरिक्त फसल को बेचकर थोड़ी-बहुत कमाई कर लेते हैं।

विस्थापित होने से पहले गोधडर के पास कान्हा के मुख्य क्षेत्र में 20 एकड़ जमीन थी। अब चिचरंगपुर में वह लगभग पांच एकड़ जमीन के मालिक हैं।

अर्थ फोकस कार्यक्रम कोर्डिनेटर पुरी ने कहा, “हम उन्हें सरकारी योजनाओं से जोड़कर, अच्छी किस्म के बीज मुहैया कराते हैं. इसके अलावा उनके खेतों की सिंचाई के लिए पंप की व्यवस्था करके खेती की तरफ उन्हें फिर से मोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। हम उन्हें खाद और कीटनाशक बनाने की ट्रेनिंग भी दे रहे हैं।”

गैर-लाभकारी संगठन आदिवासियों को कागजी कार्रवाई जैसे फॉर्म भरना, , योजनाओं के लिए आवेदन करना आदि में मदद करता रहा है। साथ ही उन्हें किसी भी नई आने वाली सरकारी योजनाओं के बारे में भी जानकारी देता रहता हैं।

संगठन और भी कई तरीकों से गांव वालों की मदद कर रहा है। यह उनके लिए बागवानी विभाग से पौधे लाता है, कृषि विज्ञान केंद्रों से बीज खरीदता है और उन्हें प्राकृतिक संसाधनों जैसे गाय के गोबर आदि से खाद और कीटनाशक बनाने का प्रशिक्षण देता है। संगठन के इन्हीं प्रयासों के चलते आदिवासी फिर से खेती की ओर मुड़ पाए हैं.

अर्थ फोकस के संस्थापक विपुल गुप्ता ने गाँव कनेक्शन को समझाया, “हम उस पर्यावरण को बहाल करने की कोशिश कर रहे हैं जो आदिवासी विस्थापित होने के बाद खो चुके हैं। हम आदिवासियों को उनकी बंजर भूमि में पेड़ और झाड़ियाँ लगाने में मदद कर रहे हैं।”

उनके मुताबिक कान्हा टाइगर रिजर्व के बफर जोन में आने वाले चिचरंगपुरा में आदिवासियों को वन विभाग से खेती करने की अनुमति मिली हुई है।

आजीविका के अन्य साधन

एक अनूठी पहल में बागवानी विभाग, पंचायत विभाग और गैर-लाभकारी अर्थ फोकस कान्हा ने मिलकर आदिवासी किसानों को मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम) के तहत उनके खुद के खेतों पर काम करने में मदद की है, ताकि वह एक स्थिर आमदनी पा सकें।

चिचरंगपुरा में 12 परिवारों के हर दो सदस्य जुलाई 2022 से मनरेगा योजना का लाभ उठा हो रहे हैं। चरण सिंह ने कहा, ” हमें मनरेगा के तहत 15 दिनों के लिए काम मिलता है, इससे महीने में 2,800 रुपये की कमाई हो जाती हैं।”

एक महीने पहले चिचरंगपुरा के आदिवासी किसानों ने बागवानी विभाग, कृषि विभाग और राष्ट्रीय बांस मिशन के साथ मिलकर अपनी आवंटित जमीन के 30 फीसदी हिस्से पर लगभग एक हजार बांस के पौधे लगाए थे। इससे उनकी खेतों को सुरक्षा और एक तरह की प्राकृतिक बाड़ मिल गई। इसके अलावा यह राजस्व का एक स्रोत भी बन गया।

विपुल गुप्ता ने कहा, “हमारा इरादा उन्हें कुछ भी दान में देना जैसा नहीं है। बल्कि समुदायों को खुद के लिए लड़ने और आत्म-सम्मान के साथ जीवन जीने और ऐसा करना जारी रखने के लिए सशक्त बनाना है।”

कान्हा टाइगर रिजर्व के फील्ड डायरेक्टर एसके सिंह ने गाँव कनेक्शन को बताया कि आदिवासियों के विस्थापित होने के बाद मुआवजे के तौर पर आदिवासियों को रहने और खेती करने के लिए एक से चार एकड़ जमीन दी गई है।

चरण सिंह बैगा ने बताया कि सालों तक भटकने के बाद उन्हें 2009 में ये मुआवजा मिल पाया था। 2006 के वन अधिकार अधिनियम के तहत, उन्हें चिचरंगपुरा में 1.565 हेक्टेयर (लगभग पांच एकड़ भूमि) का वन अधिकार पट्टा मिला। उन्होंने कहा, “कान्हा के मुख्य क्षेत्र में मेरे पास 80 एकड़ जमीन थी। हमारे पास अपना तालाब था जहाँ से हम सिंचाई के लिए पानी भरते थे।” यहां इसी तरह हर आदिवासी परिवारों को कुछ न कुछ जमीन दी गई है। कुछ को चार एकड़, कुछ को सात…

आदिवासी समुदायों के अधिकारों के लिए काम करने वाली बालाघाट स्थित एकता परिषद के एस. भोंडे के अनुसार, “1973-74 में जब आदिवासी निवासियों को विस्थापित किया गया था, तो उनमें से प्रत्येक को अस्थायी रूप से रहने के लिए सिर्फ एक एकड़ जमीन दी गई थी। आज भी पांच या छह विस्थापित गांवों के निवासी बेघर और बिना जमीन के रह रहे हैं।”

केंद्र सरकार के राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण ने बताया, “पुराने राष्ट्रीय उद्यान क्षेत्र (अब कोर/महत्वपूर्ण बाघ आवास के रूप में अधिसूचित) में 45 गाँव थे। पिछले कुछ सालों में 32 वन गाँव को उनकी इच्छा से मुख्य क्षेत्र के बाहर स्थानांतरित कर दिया गया. इससे जंगली जानवरों भी रहने के लिए अतिरिक्त जगह मिल गई …”

उधर मध्य प्रदेश सरकार ने अपने बाघ अभयारण्यों को मानवीय हस्तक्षेप से मुक्त बनाने के लिए केंद्र सरकार से 2,500 करोड़ रुपये मांगे हैं ताकि मौजूदा 89 गांवों को पांच बाघ अभयारण्यों के कोर और बफर जोन से स्थानांतरित किया जा सके।

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