सिसवारा (बाराबंकी), उत्तर प्रदेश। जनवरी की ठंडी दोपहर में निकली हल्की सी धूप का कोई मुकाबला नहीं है, इस सर्द मौसम में शाहीन बानो स्ट्रॉबेरी के खेत में खड़ी होकर गुनगुनी धूप सेंक रहीं हैं। वह इस खेत का रख रखाव करती हैं। यह काफी मेहनत का काम है मगर उसे कोई शिकायत नहीं है।
30 साल की बानो ने गाँव कनेक्शन को बताया, “यह धान के खेत में घुटने भर पानी में खड़े होने से कहीं बेहतर है।”
दो किलोमीटर दूर बाराबंकी जिले के दुरेला गाँव में रहने वाली बानो हर रोज पैदल चलकर पड़ोस के सिसवारा गाँव में स्ट्रॉबेरी के खेत में जाती हैं। 47 साल के किसान सत्येंद्र वर्मा इस खेत के मालिक हैं, जिन्होंने जिले में सबसे पहले स्ट्रॉबेरी की खेती करने की शुरूआत की थी।
उनका खेत चारों ओर से सरसों, आलू और गेहूं की फसलों से घिरा है। जाहिर तौर पर स्ट्राबेरी की खेती करने वले वह इस इलाके में अकेले हैं। 5 एकड़ में फैला उनका स्ट्रॉबेरी का यह खेत, सिसवारा के देवा ब्लॉक में ग्रामीणों के लिए एक मील का पत्थर बन गया है।
एक दशक पहले 2012 में हिमाचल प्रदेश की यात्रा के बाद वर्मा ने स्ट्रॉबेरी की खेती करने का फैसला किया था। उन्होंने गाँव कनेक्शन को बताया, “यह धान और गेहूं जैसी पारंपरिक फसलों की तुलना में कई गुना फायदेमंद है। मैं अपने गाँव में एक हजार पौधे लेकर आया था। उस समय फसल के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी। फिर भी मैंने इसकी खेती करने का मन बना लिया था।”
उसके बाद आज तक स्ट्रॉबेरी किसान वर्मा ने पीछे मुड़कर नहीं देखा है। उनके खेतों से हर साल 800 क्विंटल स्ट्राबेरी की पैदावार होती है और 20 लाख रुपये का लाभ होता है। अच्छी कमाई के अलावा वर्मा ने अपने बाग में काम करने वाले 40 ग्रामीणों को रोजगार भी दिया हुआ है।
उन्होंने कहा, “करीब 40 मजदूर मेरे खेतों में छह महीने तक लगातार काम करते हैं। इनमें से ज्यादातर महिलाएं हैं। बुवाई का मौसम सितंबर-अक्टूबर के आसपास शुरू होता है और फसल फरवरी-मार्च में चरम पर होती है।” शुरुआत में उन्हें मजदूरों को स्ट्रॉबेरी की खेती का बुनियादी प्रशिक्षण देना पड़ा था। लेकिन वे काफी जल्दी सीख गए और अब यहां काम करने के लिए उत्सुक रहते हैं। वर्मा ने कहा, “छह महीने के लिए यह उनकी कमाई का एक नियमित जरिया है।”
सुमन देवी ऐसी ही एक खेतिहर मजदूर हैं, जो काफी समय से स्ट्रॉबेरी के खेतों में काम कर रही हैं। वह इसे अपने लिए फायदे का सौदा बताती हैं। उन्होंने गाँव कनेक्शन को बताया, “सरसों, धान और गेहूं जैसी अन्य फसलों में मेरे जैसे मजदूर लगातार छह महीने तक नहीं कमा सकते हैं। लेकिन स्ट्रॉबेरी की खेती में यह संभव है।”
उनके मुताबिक, मजदूरों को सप्ताह में एक छुट्टी भी मिलती है और उन्हें हर महीने 6,000 रुपये मेहनताना दिया जाता है। 32 साल की खेतिहर मजदूर ने कहा, “तबीयत खराब होने पर भी हमें छुट्टी मिल जाती है।”
सुमन के साथ काम करने वाली मोहिनी ने बताया कि स्ट्रॉबेरी के बागों में काम करने के लिए खास तरह की ट्रेनिंग और काफी मेहनत की जरूरत होती है। लेकिन यह मुख्य फसलों में काम करने जितना थका देने वाला नहीं होता है।
मोहिनी ने कहा, “धान के खेतों में घुटने तक पानी में खड़ा होना पड़ता है। कई बार जोंक हमारे पैरों पर चिपक जाती हैं। वो हमारा खून चूसती रहती हैं और हमें इसका अहसास तक नहीं हो पाता है। लेकिन यह काम सम्मानजनक है और पैसे भी समय पर मिल जाते हैं।”
खेती से जुड़ने के बाद बहुत कुछ सीखा
वर्मा ने बताया कि स्ट्रॉबेरी की खेती के लिए काफी मेहनत और पैसे की जरूरत होती है। उसके बाद ही ये फसल फायदे का सौदा बन पाती है। लेकिन शर्त यही है कि खेती की तकनीक का सही ढंग से पालन किया जाए।
उन्होंने कहा, “2012 में मुझे हिमाचल से एक हजार पौधे मिले थे। उन्हें मैंने 2012-2013 में एक बीघा जमीन पर लगाया और खेती पर 7 हजार रुपये का निवेश किया। सौभाग्य से फसल अच्छी रही और मैं लखनऊ में अपनी उपज बेचकर लागत वसूल करने में सफल रहा।”
आज वह पांच एकड़ जमीन पर स्ट्रॉबेरी की खेती करते हैं और करीब 20 लाख रुपये का मुनाफा कमाते हैं। यह सब एक दिन में नहीं हुआ, वर्मा के लिए यह निरंतर सीखने की यात्रा रही है।
उन्होंने कहा, “बहुत बाद में यानी 2015 में मैंने बुवाई की तकनीक, कीटनाशक, उर्वरक, ड्रिप सिंचाई और स्ट्रॉबेरी की किस्मों के बारे में जाना। इससे मुझे अपना मुनाफा बढ़ाने में मदद मिली।”
वर्मा 2015 में महाराष्ट्र के महाबलेश्वर के बिलार गाँव में स्ट्रॉबेरी उगाने के लिए प्लास्टिक शीट, मैटेड रो सिस्टम, ड्रिप सिंचाई और कीटनाशक प्रबंधन के उपयोग के बारे में जानने के लिए गए थे।
वर्मा ने कहा, “अपने खेतों में इन तकनीकों को शामिल करने के बाद मेरी मेहनत और किस्मत तेजी से काम करने लगी। बचपन में हमारे पास बस एक छोटी सी जमीन थी। जिससे परिवार का पेट भरने के लिए अनाज पैदा हो पाता था। आज, स्ट्रॉबेरी की खेती और प्रयोग के लगभग 10 सालों के बाद मेरे पास एक घर, दो कार हैं। मेरे बच्चे लखनऊ के निजी स्कूलों में पढ़ते हैं। अगर मैं मुख्य फसलों के साथ लगा रहता तो इतना सब कर पाना मेरे लिए असंभव होता।
उनके मुताबिक, जब उन्होंने स्ट्रॉबेरी उगाना शुरू किया, तब इलाके में किसी ने इस फल को पहले देखा तक नहीं था। वर्मा ने बड़े गर्व के साथ कहा, “शुरुआत में इसे बड़ी मात्रा में बेचना मुश्किल था। हमने लखनऊ में फलों के जूस की दुकानों को अपने मेन्यू में स्ट्रॉबेरी जूस शामिल करने के लिए राजी किया। मैंने उनमें से कुछ को मिल्कशेक बनाने के लिए स्ट्रॉबेरी पल्प कंसन्ट्रेट बनाने के लिए भी तैयार कर लिया था। यह सब करने के लिए मेहनत और लोगों को समझाने की जरूरत होती है। हम स्ट्रॉबेरी की आपूर्ति करने में अग्रणी रहे हैं।”
दूसरे किसानों को भी देते हैं प्रशिक्षण
वर्मा ने बताया, “जब भी आस-पास के गाँवों के किसान स्ट्रॉबेरी की खेती के लिए मार्गदर्शन के लिए मेरे पास आते हैं, तो मैं उन्हें छोटी जोत के साथ प्रयोग शुरू करने के लिए कहता हूं। ऐसे कई किसान हैं जिन्होंने जल्दबाजी और ज्यादा फायदा पाने के लिए सीखने के पहलू की उपेक्षा की और नुकसान उठाया।”
उन्होंने आगे कहा, “स्ट्रॉबेरी एक विदेशी फल है और ऐसी फसलों के लिए स्थानीय सरकार का समर्थन भी नहीं मिलता है। स्ट्रॉबेरी की खेती और वहां किसानों को समझने के लिए हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और महाराष्ट्र जैसे राज्यों का दौरा करना पड़ा था।”
वर्मा ने चेतावनी देते हुए कहा, “ऐसी फसलों के लिए खेती की तकनीक और बाजार की जानकारी का होना बेहद जरूरी होता है। कई किसान YouTube पर वीडियो देखते हैं और अनुभव न होने के बावजूद बड़े पैमाने पर पैसा लगा देते हैं। अनुभव महत्वपूर्ण है। मगर शुरुआत हमेशा छोटे स्तर पर करें।”
बाराबंकी में जिला उद्यान अधिकारी ने गाँव कनेक्शन को बताया कि स्ट्रॉबेरी की खेती के लिए विभाग प्रति हेक्टेयर 50 हजार रुपये की आर्थिक सहायता देता है।
जिला उद्यान अधिकारी महेश कुमार श्रीवास्तव ने गाँव कनेक्शन से कहा, “यह एक नकदी फसल है और इसके लिए महत्वपूर्ण निवेश की जरूरत है। हालांकि सरकार चाहती है कि किसानों को उनकी उपज पर उच्च लाभ मिले जो मुख्य खाद्य फसलों में संभव नहीं है। पूरे जिले में लगभग 40 एकड़ (16.9) हेक्टेयर भूमि पर स्ट्रॉबेरी की खेती की जाती है।”
किसान सत्येंद्र वर्मा ने कहा कि कुल इनपुट लागत की बात करें तो प्रति हेक्टेयर 50,000 रुपये की सहायता ज्यादा नहीं है।
वर्मा बताते हैं “हम इस सरकारी मदद को लेने से बचते हैं। न सिर्फ इनपुट लागत के मामले में राशि बहुत कम है, बल्कि इसे पाने के लिए औपचारिकताओं और कागजी कार्रवाई में लगने वाला समय भी काफी ज्यादा है। इसके अलावा भुगतान मुश्किल से समय पर हो पाता है। ”
फिलहाल खेत में खड़ी शाहीन बानो स्ट्रॉबेरी खाने के मूड में नहीं हैं। वह मुस्कराते हुए कहती हैं ” उसका स्वाद अच्छा लगता है लेकिन अभी काफी ठंडा है। इसे खाने से गला खराब हो जाएगा।”