रतालू के क्रिस्पी चिप्स, कटलेट और मिठाई, जी हाँ सुन कर यकीन नहीं हुआ न लेकिन ये जल्द सच होने वाला है।
ओडिशा में स्थानीय रूप से बाना अलू के नाम से जाना जाने वाला रतालू इन दिनों माइक्रोस्कोप परीक्षण से गुज़र रहा है।
कोरापुट जिले के सुनाबेड़ा शहर में ओडिशा के सेंट्रल यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं की एक टीम यह पता लगाने की कोशिश कर रही है कि इस कंद में किस हद तक पोषक तत्व बरकरार रह पाते हैं। अब तक की रिपोर्ट काफी सकारात्मक और शरीर के लिए इसे फायदेमंद बता रही है। यानी जल्द ही इसके तरह -तरह के पकवान आप बना कर खा सकेंगे।
शोधकर्ता यूनिवर्सिटी के ‘बायोडाइवर्सिटी एंड कँजर्वेशन ऑफ नैचुरल रिसोर्सिस’ विभाग से हैं।
रिसर्च का नेतृत्व करने वाले देबब्रत पाँडा ने कहा कि जँगली रतालू को व्यावसायिक रूप से बढ़ावा देने की संभावना पर काम किया जा रहा है।
पांडा ने गाँव कनेक्शन को बताया, “रतालू को प्रोसेस करने और उससे कुकीज़ और स्नैक्स बनाने के बाद भी इसमें पोषक तत्व बरकरार रहते हैं।”
यह रिसर्च तीन साल तक चलने वाले प्रोजेक्ट जँगली रतालू की फाइटो केमिकल प्रोफाइलिंग का हिस्सा है। यह प्रोजेक्ट 2022 में शुरू किया गया था और इसका मकसद पूर्वी राज्य की जंगली रतालू किस्मों को बढ़ावा देने की कोशिशों से जुड़ा है।
पाँडा के मुताबिक, कोरापुट जिले के 45 गांवों में जँगली रतालू की 32 किस्मों का अध्ययन और मूल्याँकन किया गया था, ताकि यह जाना जा सके कि व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए कौन सी किस्म सबसे सही है।
देबब्रत पाँडा ने कहा, “हमारी टीम का सबसे ज़्यादा ध्यान जँगली रतालू की उन नौ किस्मों पर था, जिनका काफी ज़्यादा इस्तेमाल किया जाता है। इन किस्मों में पिट, तारगई, काशा, सिका, कुलिया, सोरोंडा, पिटा, चेर्नगा और नाँगल शामिल हैं।”
लेकिन जँगली रतालू से जुड़ी रिसर्च सिर्फ प्रयोगशालाओं तक ही सीमित नहीं है। शोधकर्ताओं ने कोंध, परोजा, भूमिया, भत्रास और दुरुआस आदिवासी समुदायों के 100 से ज़्यादा ग्रामीणों के साथ बातचीत भी की थी।
उन्होंने इस समुदाय द्वारा खाई जाने वाली पत्तियों, फूलों,फलों और जड़ों की 122 जँगली पौधों की किस्मों को लिया था। आखिर में और ज़्यादा बारीकी से जाँच करने के लिए जँगली रतालू की काशा और सोरोंडा जैसी किस्मों को चुना गया।
पाँडा ने कहा, “टीम ने कोरापुट के जेपोर में जगन्नाथ मिलेट हब नामक स्टार्टअप से हाथ मिलाया और उनकी मदद से कुकीज़ और अन्य स्नैक्स तैयार किए। उनका मकसद यह पता लगाना था कि बेकरी उत्पादों में इस्तेमाल होने के बाद जंगली रतालू के पोषक तत्व कितनी अच्छी तरह से बरकरार रहते हैं।”
पाँडा के अनुसार, कोरापुट जिले के 45 गांवों में जंगली रतालू की 32 किस्मों का अध्ययन और मूल्यांकन किया गया ताकि यह जाना जा सके कि व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए कौन सी किस्म सबसे बेहतर है।
और परिणाम आशाजनक थे। इन जँगली रतालू को बेक करने के बाद भी इनमें उच्च प्रोटीन, फाइबर और विटामिन सी का स्तर काफी ज़्यादा था।
पाँडा ने कहा, “इन परिणामों को देख, हम समझ गए थे कि जँगली रतालू के संरक्षण के लिए कदम उठाए जाने चाहिए और इसे व्यावसायिक रूप से बढ़ावा दिया जाना चाहिए। अगर ऐसा किया जाता है, तो अरेबिका कॉफी और सुगंधित काला जीरा चावल की तरह जंगली रतालू भी कोरापुट की पहचान बढ़ा सकते हैं। ”
परंपरागत रूप से, ओडिशा के आदिवासी समुदाय जँगलों से रतालू इकट्ठा करते हैं, उन्हें धोते हैं, उन्हें दो से तीन दिनों तक भिगोते हैं या उन्हें नरम बनाने और स्वाद को बेहतर करने के लिए उबालते हैं।
स्वदेशी जनजातियाँ उन्हें ओडिया महीने पूषा (जनवरी-फरवरी) के दौरान मनाए जाने वाले एक त्योहार के दौरान इकट्ठा करते हैं।
जेपोर, कोरापुट में एमएस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन (एमएसएसआरएफ) के कृषि वैज्ञानिक कार्तिक लेंका ने गाँव कनेक्शन को बताया, “उन्हें कच्चा खाने से मतली और उल्टी हो सकती है।”
कोरापुट के बालीगुड़ा गाँव की पद्मा पुजारी ने बताया कि किस तरह से स्थानीय लोग जँगली रतालू को पकाते हैं और नियमित रूप से उनका सेवन करते हैं। उन्होंने कहा, “हम उन्हें छीलकर पहले उसका पेस्ट बनाते हैं और खाने से पहले उसमें थोड़ा गुड़ मिलाते हैं। हम इन्हें भूनते भी हैं और बेक भी करते हैं। और हाँ , हम उन्हें काटते हैं और धूप में सुखाते भी हैं।”
कोरापुट के काचीगुड़ा गाँव के दामोदर हातला ने कहा, जँगली रतालू को आग पर भी भूना जाता है और फिर बड़े चाव के साथ उसे खाया जाता है।
जंगली रतालू त्यौहारों का एक हिस्सा भी हैं। स्वदेशी जनजातियां उन्हें ‘ओडिया महीने पूषा (जनवरी-फरवरी)’ के दौरान मनाए जाने वाले एक त्यौहार के लिए इकट्ठा करते हैं। बिलापुटा गाँव के कोंध आदिवासी बुदु हँताला ने बताया, “हम जँगलों से रतालू इकट्ठा करते हैं, उसे खाने से पहले अपने पहाड़ी देवता डँगारा और अपने मवेशियों को चढ़ाते हैं।”
हालाँकि, जँगलों में जँगली रतालू की कमी को लेकर कुछ चिंताएँ भी है। कृषि वैज्ञानिक लेंका ने कहा, “आदिवासी रतालू को ज़मीन से खोदकर निकालते हैं। लेकिन उन्हें फिर से उगाया जा सके इसके लिए वहाँ कुछ भी नहीं छोड़ा जाता है। एमएसएसआरएफ ने भविष्य में इस्तेमाल के लिए जीन पूल के रूप में चार किस्मों – पिट, सोरोंडा, चेर्नगा और तारगाई को संरक्षित किया है।”
कोरापुट में एक गैर-सरकारी संगठन, फाउंडेशन फॉर इकोलॉजिकल सिक्योरिटी ने सेमिलीगुडा और पोट्टांगी ब्लॉकों के 70 गाँवों में जँगली रतालू लगाना शुरू कर दिया है।
एफईएस कार्यक्रम प्रबंधक प्रदीप मिश्रा ने गाँव कनेक्शन को बताया, “हम बारिश के दौरान पेड़ों की छाया में कँडा लगाते हैं ताकि वे अच्छी तरह से फल-फूल सकें। आदिवासी सर्दियों के महीनों में कँडा इकट्ठा करते हैं। हम उन्हें सलाह देते हैं कि वे सभी को न खोदें, कुछ को फिर से उगने के लिए छोड़ दें।”
जँगली रतालू से बने उत्पादों को लोकप्रिय बनाने की माँग बढ़ रही है। उद्यमी सरकार से माँग कर रहे हैं कि बाजरा की तरह, इसे भी आगे बढ़ाने के लिए सरकारी सहायता दी जानी चाहिए ताकि इस पौष्टिक अहार को प्रोसेस्ड किया जा सके और व्यापक रूप से बेचा जा सके।
जेयपोर में जगन्नाथ मिलेट हब के निदेशक, जगन्नाथ चिनार ने कहा, रतालू को सरकार से उसी तरह के संरक्षण की ज़रूरत है जैसे बाजरा को मिला है। उन्होंने गाँव कनेक्शन को बताया, “बाजरा कुकीज और स्नैक्स से हमें हर महीने लगभग 200,000 रुपये का कारोबार मिलता है। अगर सरकार रतालू बेकरी उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए कुछ अभियान चलाए, तो रतालू भी इसी तरह का कारोबार ला सकता है।”