भारत में पशुपालक अलग-अलग तरह के हैं तो उनके कल्याण की योजनाएं भी उसी के हिसाब से बनें

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भारत में पशुपालक अलग-अलग तरह के हैं तो उनके कल्याण की योजनाएं भी उसी के हिसाब से बनेंव्यवसायिक पशुपालक, छोटे पशुपालक, चरवाहे और पशु मालिकों से बना है भारतीय पशुपालन।

पशु हमेशा से कृषि का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। कृषक या किसान को अंग्रेजी भाषा मे 'फार्मर' शब्द से संबोधित किया जाता है। मरियम वेबस्टर शब्दकोश के अनुसार किसान वह है जो खेतों में फसल उगता है, अनाज पैदा करता है और जानवरों और मछलियों को पलता है।

विकसित देशों में फार्मर शब्द ही हर काम के लिए उपयोग में लाया जाता है। परंतु भारत मे इन सब कामों के लिए अलग-अलग शब्द है जैसे कृषि कार्य करने वाले को किसान जबकि पशुओं को पालने वाले को पशुपालक कहा जाता है। ये पशुपालक कई तरह के हो सकते हैं। देखने में तो ये छोटी सी बात लगती है लेकिन अलग अलग तरह के पशुपालकों की अलग अलग समस्याएं, समाधान, जरूरत और समाज में योगदान होता है।

इन विभिन्नताओं को समझे बिना, अगर सरकारी या गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा एक जैसा प्रयास किया जाएगा तो समय और संसाधनों की बर्बादी होगी। पशुपालकों को निम्न चार तरह से वर्गीकृत किया जा सकता है-

1.व्यावसायिक पशुपालक

2.घरेलू एवं छोटे पशु पालक

3.जीविकोपार्जन के लिए पशु के मालिक

4. चरवाहे

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1-व्यावसायिक पशुपालक : इस तरह के पशुपालक बहुत व्यवस्थित एवं वैज्ञानिक तकनीकी से पशुपालन करते हैं। इनका मुख्य उद्देश्य आमदनी करना है। ये मार्केट को भी समझते हैं और मुनाफा बढ़ाने के लिए प्रयासरत रहते हैं। उदाहरण: व्यवसायिक डेरी, पोल्ट्री और कहीं कहीं व्यवस्थित बकरी फार्म वाले पशुपालक

2. घरेलू एवं छोटे पशुपालक- विकासशील देशों के गांव में ज्यादातर पशुपालक इसी वर्ग में आते हैं और प्रायः देसी नस्ल की मुर्गियां, भेड़, बकरी , सुकर और गाय पालते हैं। इन पशुपालकों को कोई तकनीकी और मार्केट का ज्ञान नहीं होता और ये पशु इनकी जीवन शैली का एक हिस्सा होते हैं। आसपास पाए जाने वाली औषधीय वनस्पतियों और पेड़ पौधों का उपयोग पशुपालन एवम पशु स्वास्थ्य के लिए किया जाता है। इस तरह के पशु एवमं पोल्ट्री बिना किसी व्यावसायिक प्रयोजन के जीविकोपार्जन के लिए पशु के मालिक जाते हैं। उदाहरण: पूर्वी उत्तर प्रदेश के देसी सुकर पालक, ओडिशा, झारखंड और छत्तीसगढ़ के घरेलू मुर्गियों पालक

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बदली परिस्थतियों में चरवाहों के लिए बढ़ी समस्याएं। सभी फोटो- राहुल श्रीवास्तव

3.जीविकोपार्जन के लिए पशु के मालिक : आप आजकल भी सड़क पर कहीं न कहीं बैलगाड़ी, घोड़ागाड़ी, ऊंटगाड़ी या फिर गधे या खच्चर का उपयोग देख सकते हैं। आधुनिक दौर में ये शहरों में तो कम होते जा रहे हैं लेकिन अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में इनका महत्व है। इस तरह के जानवरों से कोई पशु उत्पाद (दूध या मांस) तो नहीं लिया जाता लेकिन ये परिवहन और भर ढोने के काम आते हैं। इनमे से अधिकतर नदियों के किनारे बसेरा बना के रहते हैं और प्रायः भटकते रहते हैं। इस तरह के पशुपालक बहुत ही गरीब श्रेणी में आते हैं । ब्रुक्स हॉस्पिटल एक अग्रणी संस्था है जो कि घोड़े, गधे और ख़च्चरों के स्वास्थ व कल्याण के लिए काम करती हैं।

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डेयरी उद्योग, बकरी व भेड़ पालक और कुकुट पालन पशुपालक की आमदनी का जरिया।

4. चरवाहे: कुछ समुदाय पीढ़ी दर पीढ़ी पशुओं के पालते रहे हैं। इस तरह के पशुपालक ऊपर बताये गए दूसरे वर्गों से अलग हैं । जैसे कि इस तरह के पशुपालक व्यावसायिक नहीं होते लेकिन पारंपरिक तरीके से पशुपालन करते हैं और बड़ी समझदारी से ये पशु स्वास्थ्य, पोषण और प्रजनन का ध्यान रखते हैं। इस तरह ये पहली और दूसरे जीविकोपार्जन के लिए पशु के मालिक से अलग हैं। जहां तक रही गरीब और जीविकोपार्जन बाकी बात तो ये समुदाय हमेशा गरीब नहीं होते। ये चरवाहे समुदाय अपने जानवरों को ले के भ्रमण करते रहते हैं। इसी वजह से इस तरह के पशुपालक, भ्रमण के दौरान आम संपत्तियों जैसे चारागाह, तालाब और जल संग्रह जैसे व्यवस्था के ऊपर निर्भर रहते हैं। यही इन पशुपालकों की सबसे बड़ी समस्या है, क्योंकि विकसित होते देश में अब ना चारागाह बच रहे हैं और न ही तालाब। उदाहरण: राजस्थान में ऊंट, भेड़ और बकरी पालने वाले समुदाय, मध्य प्रदेश और हिमाचल भेड़ एवं बकरी पालने वाले कुछ समुदाय

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निष्कर्ष- पशुपालकों के ये चार वर्ग (1) व्यावसायिक पशुपालक (2) घरेलू एवं छोटे पशु पालक (3) जीविकोपार्जन के लिए पशु के मालिक और (4) चरवाहे बिल्कुल अलग अलग होते हैं और किसी भी संस्था को वर्ग विशेष पशुपालकों की समस्याओं को समझने के बाद ही कोई प्रयास करना चाहिए जिससे कि सफलता प्राप्त हो सके।

लेखक-एम.वी.एस.सी. (मेडिसिन), एम.बी. ए. (एग्रीबिजनेस) हैं। ये उनके निजी विचार हैं।

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