लखनऊ। उत्तर प्रदेश में बड़ी संख्या में ऐसी जमीनें हैं जहां पर सिंचाई की सुविधा नहीं होने के कारण वहां पर परंपरागत तरीक से खेती नहीं हो पा रही है लेकिन ऐसी बेकार पड़ी जमीनों पर किसान अरण्डी की खेती करके लाभ कमा सकते हैं। अरण्डी की मांग सबसे ज्यादा विकसित देशों में है। पेट्रोलियम पदार्थ से बढ़ रहे प्रदूषण से बचने के लिए विकसित देशों ने अरण्डी के तेल को ईंधन के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। अरण्डी की बुवाई करने का सही समय अगस्त से लेकर सितंबर तक होता है।
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिक डा. विनोद कुमार सिंह ने बताया ” किसानों की जो बेकार भूमि है या जहां पर सिंचाई की सुविधा नहीं है वहां पर अरण्डी की खेती करके किसान मुनाफा कमा सकते हैं। इसकी खेती पर श्रम और लागत दोनों कम आता है। ”
यह भी पढ़ें : उत्तर प्रदेश में बढ़ेगी सोयाबीन की खेती
उन्होंने बताया कि अरण्डी की फसल तेल वाली फसलों के अंतगर्त आती है, इसका तेल बहुत महत्वपूर्ण होता लेकिन यह खाने के काम नहीं आता। अरण्डी के तेल का इस्तेमाल डाई, डिटर्जेंट, दवाएं, प्लास्टिक के सामान, स्याही, पालिश, पेंट और लुब्रिकेंट बनाने में होता है। एक अनुमान के मुताबिक अरण्डी से 250 प्रकार की सामाग्री तैयारी की जाती है। भारत दुनिया का सबसे ज्यादा अरण्डी पैदा करने वाला देश है। ऐसे में उत्तर प्रदेश में भी अरण्डी की खेती की खेती को बढ़ावा देने के लिए कृषि विभाग और विभिन्न कृषि विश्वविद्यालय सहयोग कर रहे हैं।
यह भी पढ़ें : घाटा पूरा करने के लिए दोबारा कर रहे मूंगफली की खेती
भारत में 7.3 लाख हेक्टेयर में इसकी खेती की जाती है। भारत में इसके उत्पादन गुजरात, आँध्रप्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक, तमिलनाडु एवं उत्तर प्रदेश में होता है। उत्तर प्रदेश में अरण्डी की खेती तराई क्षेत्र के पीलीभीत, खीरी, सीतापुर, बहराइच, श्रावस्ती, संतकबीरनगर, गोंडा, गोरखपुर में होती है।
अरण्डी की खेती के लिए जलोढ़ और तराई के क्षेत्र उपयुक्त होते हैं। सितंबर में बुवाई करने पर 180 दिनों में यह फसल तैयार हो जाती है। उत्तर प्रदेश को ध्यान में रखते हुए टा-3 नामक अण्डी की किस्म को विकसित किया गया है। इसका तना हरा होता और इसके फल चटकने वाले होते हैं। इस प्रजाति की औसत उपज क्षेमता प्रति हेक्टेयर 12 से लेकर 14 कुंतल होती है। अण्डी की बुवाई के लिए प्रति हेक्टेयर 15 किलोग्राम बीज की जरूरत पड़ती है। बुवाई हल पीछे कतारों में 90 सेंटीमीटर की दूरी पर करते हैं।
यह भी पढ़ें : औषधीय खेती में बनाया मुकाम , 3 बार नरेन्द्र मोदी कर चुके हैं इस यह किसान को सम्मानित
अरण्डी के खेत में वैसे तो रोग कम लगते हैं लेकिन इसके बाद भी कृषि वैज्ञानिकों ने इसकी निराई और गुड़ाई पर विशेष ध्यान देने को कहा है। कृषि वैज्ञानिक डा. विनोद कुमार सिंह ने बताया कि अरण्डी की बुवाई के तीन सप्ताह बाद पहली निराई और गुड़ाई करनी चाहिए। उन्होंने बताया कि अरण्डी पर कैस्टर सेमीलूपर कीट का खतरा रहता है। इस कीट की पहचान यह है कि इसकी सूड़ियां सलेटी काले रंगी की होती हैं, जो पत्ती खाकर नुकसान पहुंचाती हैं। इसकी रोकथाम के लिए कीटनाशी क्यूनालफास की डेढ़ लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए। अरण्डी से प्रति हेक्टेयर 60 कुंतल पैदावार ली जा सकती है।
यह भी पढ़ें : किसान आधे दामों पर खरीद सकते हैं ट्रैक्टर और पावर टिलर
इस समय दुनिया भर में अरण्डी के तेल का उत्पादन दस लाख टन हो रहा है, जिसमें भारत की भागेदारी 8 लाख टन है। अरण्डी के बीज में 40 से लेकर 60 प्रतिशत तेल होता है। सामान्य समय में अरण्डी का बीज 4 से लेकर 6 हजार रूपए प्रति कुंतल बिकता है। इसका तेल बाजार में 60 से लेकर 70 रुपए प्रति लीटर के भाव से बिकता है।
इन नामों से भी जानते हैं
अंग्रेजी में अरण्डी को कैस्टर कहते हैं। इसे एरण्ड, अरण्ड, अरण्डी, अण्डी आदि और बोलचाल की भाषा में अण्डउआ भी कहते हैं, यह गाँव के बाहर आमतौर पर पाया जाता है। इसके पत्ते पांच चौड़ी फाँक वाले होते हैं। लाल व बैंगनी रंग के फूल वाले इस पेड़ में कांटेदार हरे आवरण चढ़े फल लगते हैं। पेड़ लाली लिए हो तो रक्त अण्डी और सफेद हो तो श्वेत अण्डी कहलाता है। इसके गुणों के कारण इसे कॉसमेटिक इंडस्ट्री में साबुन (सोप), लोशन्स, मसाज के तेल और यहा तक की दवाइयां बनाने मे भी प्रयोग किया जाता है|