लखनऊ। जीएम सरसों के पैरोकार एक तरफ जहां दावा कर रहे हैं कि जीएम सरसों की खेती से पैदावार बढ़ेगी, वहीं देश के जाने माने कृषि विशेषज्ञ और कृषि वैज्ञानिकों ने जीएम सरसों की उत्पादकता को चुनौती दी है। 30 मई को चंडीगढ़ में ‘खेती विरासत मिशन’ की तरफ से आयोजित ”सरसों सत्याग्रह कांफ्रेंस ” में रोहतक के डाॅ. राजेन्द्र सिंह चौधरी ने एक डाक्यूमेंट प्रस्तुत करके यह बताया कि देसी सरसों की जो किस्में हैं, वह जीएम सरसों की किस्म डीएमएच-11 से ज्यादा पैदावार करती हैं।
इस रिपोर्ट में उन्होंने विस्तार से बताया कि सरसों की वर्तमान देसी किस्मों से प्रति हेक्टेयर 2800 हेक्टेयर से 2900 किलो की उपज देती है जबकि जीएम सरसों की किस्में प्रति हेक्टेयर 2600 से लेकर 2700 किलो ही पैदावार देती हैं।
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आपको बता दें कि डाक्टर राजेंद्र ने यह रिपोर्ट ऐसे वक्त में पेश की है, जब हाल ही में वन एवं पर्यावरण मंत्रालय से संबंद्ध् आनुवांशिक अभियांत्रिकी आकलन समिति यानी जीईएसी ने दिल्ली विश्वविद्यालय के एक शोध केन्द्र के वैज्ञानिकों की ओर से विकसित जीएम सरसों की किस्म डीएमएच-11 की वाणिज्यिक खेती की सिफारिश की है। हालांकि, देश में इसके बाद से ही जीएम सरसों की खेती को लेकर विवाद बढ़ चुका है।
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इसके लेकर कृषि विशेषज्ञों के साथ ही साथ किसान तक विरोध कर रहे हैं। उनका तर्क है कि जीएम सरसों की खेती करने से देश में सरसों की परंपरागत खेती खत्म हो जाएगी। यही नहीं, किसानों को बीज के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर निर्भर रहना पड़ेगा। कृषि और खाद्य नीति से जुड़े मामलों के जाने-माने विशेषज्ञ डाक्टर देविंदर शर्मा ने बताया ” सरसों सत्याग्रह कांफ्रेंस में विशेषज्ञों ने प्रजेंटेशन देकर बताया कि जीएम सरसों से बनने वाले तेल का मनुष्यों पर क्या असर पड़ेगा, हालांकि इसको लेकर अभी तक कोई परीक्षण नहीं हुआ है।
विशेषज्ञों ने बताया है कि यहां तक कि जीएम सरसों का जानवरों पर भी कोयी परीक्षण नहीं किया गया है। ऐसे में जीएम सरसों के उपयोगी होने का दावा ही गलत है। ”
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राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े स्वदेशी जागरण मंच और भारतीय किसान संघ के नेताओं का भी दावा है कि जीएम सरसों की खेती को अनुमति देने की सिफारिश में जल्दबाजी दिखायी गई है जबकि खेती से कोई खास फायदा नहीं होने वाला है. उल्टे इनसे कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों के बढ़ने तथा जैव विविधता के लिए खतरा हो सकता है. स्वदेशी जागरण मंच के राष्ट्रीय सह संयोजक अश्विनी महाजन ने कहा है कि जीएम सरसों को लेकर सरकार जो दावा कर रही है वह बिल्कुल गलत है।
अश्विनी महाजन ने कहा ” हम जीएम सरसों के खिलाफ हैं. इससे हमारी जैव विविधता प्रभावित होगी। यह पर्यावरण और स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाने वाला है, क्योंकि इनसे कैंसर जैसी बीमारियां पैदा हो सकती हैं। इससे मधुमक्खीपालन, फसलों का परागण और उत्पादन प्रभावित होगा। उन्होंने कहा कि फ्रांस के वैज्ञानिक एरेक सेरेलिन ने चूहों को जीएम फसल खिलाया और देखा गया कि उनकी तीसरी पीढ़ी में भारी मात्रा में कैंसर का प्रकोप हुआ। उन्होंने कहा जीएम सरसों की खेती पर रोक लगाने के लिए उन्होंने प्रधानमंत्री को भी पत्र लिखा है।
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राजस्थान के बाद देश के दूसरे बड़े सरसों उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश के किसान भी जीएम सरसों को लेकर असमंजस में हैं। उत्तर प्रदेश में 7.81 लाख हेक्टेयर में सरसों की खेती होती है। बाराबंकी जिले के गदिया गांव के किसान जगजीवन ने बताया कि वह सरसों की खेती करते हैं। पिछले रबी सीजन में देसी सरसों की फसल लगाने से अच्छा उत्पादन हुआ है। ऐसे में जीएम फसल की हमें जरूरत नहीं है।
ललितपुर जिले के महरौनी ब्लाक के मनिवार के गांव के भानू प्रताप सरसों के बड़े किसान हैं। उन्होंने बताया कि उन्होंने जीएम सरसों को लेकर चर्चा तो सुनी है लेकिन इसके बाद में उन्हें बहुत पता नहीं है। लेकिन अभी जो देसी सरसों वह बो रहे हैं वह अच्छी उपज दे रहा है।
झांसी जिले में भी बड़ी मात्रा में सरसों की खेती होती हैं यहां के बबीना ब्लाक के सरवा गांव की किसान राधेश्याम कुशवाहा ने बताया कि जीएम सरसों के बारे में उन्होंने चर्चा सुनी है। लेकिन कृषि केन्द्र के वैज्ञानिकों ने बताया है कि यह हमारे खेतों के लिए ठीक नहीं है। जीएस सरसों की व्यवसायिक खेती को लेकर अभी किसानों को बहुत जानकारी नहीं है, हालांकि विभिन्न किसान संगठनों की जीएम सरसों के खतरे को लेकर जागरुकता पैदा की जा रही है।
भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता धर्मेन्द्र मल्लिक ने बताया ” विदेशी बीज कपंनियों और जीएम इंडस्ट्री के दबाव में सरकार जीएम सरसों के खेती की अनुमति दी है। यह फैसला वापस होना चाहिए। जीएम सरसों से देश का किसान विदेशी कपंनियों पर निर्भर होकर कर्जदार हो जाएगा।”
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