कृषि शिक्षा में बदलाव: अगले सत्र से हर छात्र एक साल सीखेगा उद्यमिता, जाएगा खेत में

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कृषि शिक्षा में बदलाव: अगले सत्र से हर छात्र एक साल सीखेगा उद्यमिता, जाएगा खेत मेंगाँव कनेक्शन

लखनऊ। देश की कृषि शिक्षा के रुख को निर्धारित करने में सबसे महत्वपूर्ण व देश के सबसे बड़े कृषि वैज्ञानिकों में से एक डॉ नरेंद्र सिंह राठौर, उप-महानिदेशक (कृषि शिक्षा), भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने गाँव कनेक्शन से अपनी खास बातचीत में देश के खेती के आगे खड़ी चुनौतियों पर विस्तार से बातचीत की। पेश हैं कुछ अंश:

प्रश्न- देश की कृषि शिक्षा की कमियों को दूर करने के लिए भविष्य में क्या बदलाव लाने जा रहे हैं?

उत्तर- हमें अपने खेती के छात्रों को अंतरराष्ट्रीय स्तर का बनाना है। इसके लिए शिक्षा में जिस प्रायोगिक भाग को जोडऩे और उद्यमिता के विकास की आवश्यकता है उसे हम पूरी करने की कोशिश में हैं। संचार तकनीकी की मदद से खेती के छात्रों को दुनियाभर की खेती की जानकारी से जोडऩा है। शिक्षा, उद्यमिता और रोज़गार ये तीन अंग ऐसे हैं जिन्हें देश की कृषि शिक्षा का अभिन्न अंग बनाना होगा। हम ये चाहते हैं कि हमारे कृषि के छात्र नौकरी खोजने वाले न बनें, वो नौकरी देने वाले बनें, वो खुद उद्यमी बनें, इसके लिए हम देश की कृषि शिक्षा में अगले वर्ष से ही ज़रूरी बदलाव कर रहे हैं। 

तीन साल में छात्र फील्ड पर काम करने के लिए ज़रूरी जानकारी पा लेता है इसलिए अब से अपने चौथे साल में हर कृषि छात्र इस तरह के कार्यक्रमों में, औद्योगिक जानकारी में, कौशल विकास के कार्यक्रामों में मदद करेगा, उदाहरण के तौर पर अगले साल आखिरी वर्ष के कृषि छात्र दाल पर शोध-प्रयोग, किसानों के खेतों पर प्रदर्शन और जानकारी वितरण यह सब करेंगे, उनकी शिक्षा का अंग होगा। दूसरी कमी ये भी दूर कर रहे हैं कि हमारे सभी ग्यारह स्नातक विषयों के पांच साल पुराने सिलेबस को हम नई शोधों और तकनीकों की जानकारी के साथ वर्तमान स्तर तक ला रहे हैं। हम अपने छात्र को वही सुविधाएं, ज्ञान और तकनीक देंगे जो विदेशों में छात्र को मिलती हैं ताकि हमारा छात्र विदेश न भागे। 

तीसरा हम कृषि शिक्षा को ज्य़ादा आकर्षक बनाने का प्रयास कर रहे हैं ताकि ज्यादा समझदार और योग्य छात्र देश में कृषि शिक्षा को चुनेें, फिलहाल खेती की पढ़ाई में देखा गया है कि ज्य़ादातर अयोग्य छात्र आते हैं, अच्छे छात्र मेडिकल या इंजीनियरिंग जैसे क्षेत्रों को प्राथमिकता देते हैं। इसके लिए हम कृषि विश्वविद्यालयों में खेती की पढ़ाई के लिए आधारभूत सुविधाओं और संरचनाओं के विकास की ओर ध्यान दे रहे हैं, इसी दिशा में हमने देश भर में 350 करोड़ रुपए खर्च करके लगभग 400 उन्नत कृषि शिक्षा के केंद्र विकसित किये हैं। ये शुरुआत है आगे भी इस दिशा में पैसा खर्च किया जाता रहेगा। 

चौथा बदलाव हमने अपने अध्यापकों में किया, उन्हे वर्तमान कृषि के बदलावों, तकनीकों और जानकारियों से जोड़ा, क्योंकि बहुत से ऐसे शिक्षक हैं जिन्होंने 1980-90 में पढ़ाई पूरी की थी, तो वो आधुनिक ज्ञान से अछूते न रह जाएं। इसी लिए हमने उन्हें विदेशों की तकनीकों से अवगत कराने के लिए वहां के दौरे कराए गए। अब दौरे छात्रों को भी कराए जा सकते थे लेकिन हमने सोचा कि यदि एक शिक्षक उन्नत होता है तो वह अपने साथ सैकड़ों छात्रों को उन्नत करेेगा। 

प्रश्न- देश में वैज्ञानिकों की कितनी कमी है, इसकी वजह क्या है?

उत्तर- वर्तमान में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के सभी केंद्रों को मिलाकर हमारे पास केवल 6000 वैज्ञानिक हैं, जबकि हमें ज़रूरत है दो लाख कृषि वैज्ञानिकों की। भारत में प्रति 10 लाख व्यक्तियों पर 48 कृषि वैज्ञानिक हैं जबकि जापान के पास प्रति 10 लाख पर साढ़े तीन हज़ार और अमेरिका में साढ़े चार हज़ार कृषि वैज्ञानिक प्रति दस लाख जनसंख्या पर हैं। इस कमी का सबसे बड़ा कारण तो देश की मूलभूत शिक्षा की कमी है। आज हमारे देश की जनसंख्या का कुल 5.6 प्रतिशत लोग ही स्नातक हैं। इसके अलावा हमारे देश में 73 कृषि विश्वविद्यालय हैं, जिनमें से हर साल 25 हज़ार के आस-पास कृषि में स्नातक या परा-स्नातक निकल पाते हैं, अब इतने बड़े कृषि पर आधारित देश में 25 हज़ार की संख्या का क्या महत्व। इसके अलावा कृषि वैज्ञानिकों की जो संख्या है भी उसका राज्यों के बीच वितरण भी गलत है। उदाहरण के तौर पर महाराष्ट्र के पास बहुत ज्यादा वैज्ञानिक हैं और बिहार के पास कम। इन समस्याओं को मुहिम बनाकर निपटाना होगा।

प्रश्न- देश में कृषि के क्षेत्र में होने वाले शोधों या तकनीकी खोजों के व्यावसायिक उत्पादन की समस्या को कैसे दूर करेंगे?

उत्तर- कृषि में खोजी जाने वाली सभी तकनीकी खोजों के व्यावसायिक उत्पादन के लिए हमने 'एग्रीनोवेट' एजेंसी स्थापित की है जो कंपनी एक्ट के तहत रजिस्टर्ड है और देश भर के कृषि विश्वविद्यालयों या किसी के भी द्वारा किए जाने वाली तकनीकी खोजों के विस्तार किए जाने की क्षमता जैसे तकनीकी रूप से, आर्थिक रूप से और सामाजिक रूप से अपनाई जा सकने वाली है या नहीं, इसको परख कर उसके व्यावसायिक उत्पादन पर जोर देती है। हमारी ये एजेंसी तो इतनी सशक्त हो चुकी है कि विदेशों में कृषि विश्वविद्यालय की स्थापना कैसे हो, इस स्तर तक काम करने लगी है।

प्रश्न- देशी नस्ल की गायों की संख्या घटने के कारण क्या रहे, स्थिति कैसे सुधरेगी?

उत्तर- जब श्वेत क्रांति आई तो उद्देश्य सिर्फ यही था कि दूध का उत्पादन कैसे बढ़ाया जाए, क्योंकि कुपोषण की समस्या बहुत बड़ी थी, प्रति व्यक्ति प्रोटीन की खपत बढ़ानी थी। अब क्योंकि गाय का दूध उत्पादन कम था और भैंस ज्यादा दूध देती थी, उसमें फैट भी ज्यादा मात्रा में होता था तो भैंस पालन का ही खूब प्रचार किया गया, गायों पर ध्यान कम दिया गया। लेकिन अब फिर से गोवंश पर, गायों को बढ़ावा देने पर सबका ध्यान लौटा है। (गिर, साहिवाल और गंगातीरी जैसी) देशी नस्लों के प्रचार पर काम होने लगा है, हालांकि उनकी संख्या बहुत कम है तो तेजी से संख्या में बढ़ोतरी करनी होगी और दुग्ध उत्पादन बढ़ाने पर शोध करना होगा। सरकार ने भी इसी लिए कई नई योजनाएं चलाई हैं, जिनमें से कुछ में गोपालन पर जोर दिया जा रहा है और कुछ योजनाएं इस बात पर जोर दे रही हैं कि कैसे गाय केवल दूध ही नहीं खेती के लिए भी बहुत उपयोगी हैं। इस सब से आशा है कि आने वाले कुछ ही सालों में देशी गायों के संरक्षण और संवर्धन का काम बहुत तेजी से चलेगा और परिणाम देखने को मिलेंगे।

प्रश्न- जैविक खेती के प्रचार और खाद्य सुरक्षा बनाए रखने की जिम्मेदारी समानान्तर चलने में क्या चुनौतियों हैं?

उत्तर- खेती में लगातार बढ़ते रसायन के प्रयोग से होने वाले दुष्प्रभावों को रोकने के लिए प्राकृतिक खेती या जैविक खेती हमारी आवश्यकता तो है लेकिन ये नहीं कहा जा सकता कि देश भर के 14 करोड़ किसान एक साथ जैविक खेती करने लगें। हमारे देश के सामने चुनौती यह भी है कि हमें वर्तमान के 263 मिलियन टन उत्पादन को हर साल तीन प्रतिशत की दर से बढ़ाते जाना है, क्योंकि जनसंख्या बढ़ रही है। लेकिन यह भी नहीं कहा जा सकता है कि जैविक खेती से उत्पादन घटता है क्योंकि देखा गया है कि जैविक तौर-तरीकों से खेती शुरू करने के दो से तीन साल में उत्पादन पहले जितना ही होने लगते है, फायदा ये है कि अब होने वाले उत्पादन मिट्टी को स्वस्थ बनाए रखेगा और इंसान को भी। आवश्यकता हर किसान को जागरूक करने की है जिसमें हम लगे हुए हैं।

प्रश्न- कृषि उत्पादों की बिक्री और किसानों को मुनाफा दिलाने के लिए भविष्य में कौन से उपाए कारगर होंगे?

उत्तर- ऑनलाइन राष्ट्रीय कृषि बाज़ार अवधारणाओं जैसी मार्केटिंग और ट्रेडिंग तकनीकों के प्रयोग से सबसे अच्छा तो यह होगा कि किसान को उसके उत्पाद को सही मूल्य मिलने लगेगा। ऐसा इसलिए क्योंकि बिचौलिये खत्म होने की पूरी संभावना है। उदाहरण के तौर पर हमारा देश विश्व के कुल फल उत्पादन का 10 प्रतिशत अकेले पैदा करता है, सब्ज़ी में 15 प्रतिशत अकेले पैदा करता है लेकिन फिर भी हम देखते हैं कि जमाखोरी के चलते दाम आसमान छूने लगते हैं। प्याज़ के मामले में यही तो हुआ था, इससे राहत मिलेगी और जो खेत से लेकर बाज़ार तक की कीमत का जो अंतर है वो किसान को मिलेगा, बिचौलिए को नहीं।

 

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