क्या विकास आदिवासियों के हित में नहीं?

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क्या विकास आदिवासियों के हित में नहीं?Gaon Connection

जब से आदिवासी विस्तार और लोगों तक तथाकथित आधुनिक विकास ने अपनी पहुंच बनानी शुरू की है, तब से आदिवासी परंपराओं का विघटन भी शुरू हो गया है। सदियां इस बात की गवाह है कि जब-जब किसी बाहरी सोच या रहन-सहन ने किसी वनवासी क्षेत्र या समुदाय के लोगों के बीच प्रवेश किया है, आदिवासियों की संस्कृति पर इसका सीधा असर हुआ है। 

विकास के नाम पर वनवासियों की जमीनें छीनी गईं, बाँध बनाने के नाम पर इन्हें विस्थापित किया गया और दुर्भाग्य की बात है कि ये सारे विकास के प्रयास आदिवासी विकास के नाम पर किए जाते रहे हैं लेकिन वास्तव में ये सब कुछ बाहरी दुनिया के लोगों के हित के लिए होता है न कि आदिवासियों के लिए। जंगल में सदियों से रहने वाले आदिवासी जंगल के पशुओं के लिए खतरा नहीं हो सकते बल्कि जानवरों के संरक्षण और जंगल को बचाने के नाम पर जंगल में कूच करने वाली एजेंसियां जंगल के लिए ज्यादा बड़ा खतरा हैं। 

जब जंगलों में रहने वाले लोग बाहरी दुनिया के लोगों से मिलते हैं तो बाहरी चमक-दमक देखकर वनवासियों के युवा बाहरी दुनिया को जानना, समझना चाहते हैं। उन्हें अपनी संस्कृति, अपने लोगों की तुलना में बाहरी दुनिया ज्यादा मोहक लगती है और यहीं से पलायन की शुरुआत होती है। अपने गाँव के बुजुर्गों और उनके बताए ज्ञान को एक कोने में रखकर युवा वर्ग घर से दूर होने लगते हैं और यहीं से पारंपरिक ज्ञान के पतन की शुरुआत भी होती है। 

मध्यप्रदेश के पातालकोट घाटी की ही बात करें तो मुद्दे की गंभीरता समझ आने लगती है। लगभग 75  वर्ग किमी के दायरे में बसी इस घाटी को बाहरी दुनिया की नज़र 60 के दशक तक नहीं लगी थी। प्रकृति की गोद में, 3000 फीट गहरी बसी घाटी में, भारिया और गोंड आदिवासी रहते हैं। बाहरी दुनिया से दूर ये आदिवासी हर्रा और बहेड़ा जैसी वनस्पतियों को लेकर प्राकृतिक नमक बनाया करते थे। पारंपरिक शराब, चाय, पेय पदार्थों से लेकर सारा खान-पान सामान, यहीं पाई जाने वाली वनस्पतियों से तैयार किया जाता था। करीब 70 के दशक से हमारे तथाकथित आधुनिक समाज के लोगों ने जैसे ही घाटी में कदम रखा, स्थानीय आदिवासियों के बीच अंग्रेजी शराब, बाजारू नमक से लेकर सीडी प्लेयर और अब डिश टीवी तक पहुंच गया है। घाटी के नौजवानों का आकर्षण बाहर की दुनिया की तरफ होता चला गया। सरकार भी रोजगारोन्मुखी कार्यक्रमों के चलते ईको-टूरिज्म जैसे नुस्खों का इस्तेमाल करने लगी है लेकिन यह बात मेरी समझ से परे है कि आखिर पैरा-साइक्लिंग, पैरा-ग्लायडिंग, एडवेंचर स्पोर्ट्स के नाम पर पातालकोट घाटी के लोगों को रोजगार कितना मिलेगा और कैसे? 

पेनन आईलैण्ड में भी सरकारी आर्थिक योजनाओं के चलते एडवेंचर टूरिज्म जैसे कार्यक्रम संचालित किए गए ताकि बाहरी लोगों के आने से यहां रहने वाले आदिवासियों के लिए आय का नया जरिया बनना शुरू हो पाए। सरकार की योजना आर्थिक विकास के नाम पर कुछ हद तक सफल जरूर हुई लेकिन इस छोटी सफलता के पीछे जो नुकसान हुआ, उसका आकलन कर पाना भी मुश्किल हुआ। दरअसल इस आईलैंड में कुल 10000 आदिवासी रहते थे। बाहरी दुनिया के लोगों के आने के बाद यहाँ के युवाओं को प्रलोभन देकर वनों के सौदागरों ने अंधाधुंध कटाई शुरू की। वनों की कटाई के लिए आदिवासी युवाओं को डिजिटल गैजेट्स दिए गए, कुछ युवाओं को बाकायदा प्रशिक्षण के नाम पर जंगलों से दूर शहरों तक ले जाया गया। धीरे-धीरे युवा वर्ग अपने संस्कारों और समाज के मूल्यों को भूलता हुआ शहर कूच कर गया। आज इस आईलैंड में कुल मिलाकर सिर्फ 500 आदिवासी रहते हैं बाकी सभी घाटी और प्रकृति से दूर किसी शहर में बंधुआ मजदूरों की तरह रोजगार कर रहे हैं। 

आईलैण्ड में बाहरी लोगों के रिसॉर्ट, वाटर स्पोर्ट हब, मनोरंजन केंद्र बन गए हैं लेकिन विकास की ऐसी प्रक्रिया में एक आदिवासी समुदाय का जो हश्र हुआ, वह चिंतनीय है। पातालकोट जैसे प्राकृतिक क्षेत्रों में पेनन आईलैंड की तरह ईको टूरिज़्म का होना मेरे हिसाब से बाहरी दुनिया के लिए एक खुला निमंत्रण है जिसके तहत लोग यहाँ तक आएं और पैसिफिक व पेनन आईलैंड जैसी समस्याओं की पुनरावृत्ति हो। यहा टूरिज़्म की संभावनाओं को देखते हुए मोटेल और रिसॉर्ट्स बनाने की योजनाएं हैं यानी पातालकोट में भी आधुनिकता और डिजिटलीकरण की धूप पहुंचने लगी है। पेड़ों की अंधाधुंध कटाई हुई है, पलायन तेज हो गया है और देखते ही देखते ये घाटी और यहां की सभ्यता भी खत्म हो जाएगी। 

आदिवासी गाँवों से निकलकर जब शहरों तक जाते हैं, गाँवों की शिक्षा को भूल पहले शहरीकरण में खुद को ढाल लेते हैं और इस तरह चलता रहा तो गाँव के बुजुर्गों का ज्ञान उन्हीं तक सीमित रहेगा और एक समय आने पर सदा के लिए खो भी जाएगा। पर्यटन के नाम पर ब्राजील जैसे देश में पिछले सौ साल में 270 आदिवासी समुदायों में से 90 पूरी तरह से विलुप्त हो चुके हैं यानी करीब हर दस साल में एक जनजाति का विनाश हो चुका है।            

(यह लेखक के स्वतंत्र विचार हैं)

 

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