इस माँ ने अपनी सात साल की बेटी के बलात्कारी को पहुंचाया जेल इसलिए समाज ने कर दिया बेदखल

मदर्स डे पर पढ़िए इस बहादुर माँ की कहानी...जिन्होंने अपनी बेटी की सिसकियों को घर की चाहरदीवारी के अन्दर कैद नहीं होने दिया बल्कि समाज के अड़ियल रवैये को ताक पर रखकर आवाज़ उठाई और अपनी सात साल की बेटी के दोषी को सजा दिलाने में कामयाब रहीं।

Neetu SinghNeetu Singh   12 May 2019 6:51 AM GMT

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इस माँ ने अपनी सात साल की बेटी के बलात्कारी को पहुंचाया जेल इसलिए समाज ने कर दिया बेदखल

रांची (झारखंड)। मदर्स डे पर सलाम इस बहादुर माँ को जिसने अपने क्षेत्र में पहली बार समाज और कानून से लड़ाई लड़कर अपनी सात वर्षीय रेप पीड़िता बेटी के दोषी को सजा दिलाई। इस माँ की इस बेबाकी को समाज स्वीकार नहीं कर पाया और इन्हें समाज से बेदखल कर दिया।

दुबली पतली आत्मविश्वास से भरपूर सरिता देवी (बदला हुआ नाम) (35 वर्ष) अपने डेढ़ साल के बेटे को पीठ में दुप्पट्टे से बांधते हुए रुधी आवाज़ में कहती हैं, "मेरी बेटी के साथ जो हुआ उस तकलीफ की भरपाई तो मैं कभी नहीं कर सकती पर उस लड़के को सजा दिलाकर मन को तसल्ली जरुर है। मेरे आवाज़ उठाने पर हमें बिरादरी से बहार कर दिया गया। लोग हमें रास्ते में देखकर दूर हो जाते हैं। गाँव वाले कहते हैं हमने रिपोर्ट लिखाकर गाँव की बदनामी कर दी है।"

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सरिता की सात साल की बेटी के साथ वर्ष 2014 में उस समय रेप हुआ जब वो धान के खलिहान में खेल रही थी। घटना के लगभग छह साल बाद भी सरिता के उस जख्म के घाव अभी तक भरे नहीं हैं क्योंकि आज भी वो हर दिन समाज की बदसलूकी का सामना करती है। पर सरिता ने तानों की परवाह किये बगैर न केवल समाज से लड़ाई लड़ी बल्कि दोषी को सजा दिलाने में भी कामयाब रहीं। सरिता रांची के एक सुदूर गाँव की रहने वाली आदिवासी समुदाय की एक महिला है। जो मेहनत मजदूरी करके अपने परिवार का भरण-पोषण करती है।

सरिता उस दौर को याद करते हुए अपने आंसुओं को नहीं रोक पायीं। जब उसे उसकी बिरादरी से बेदखल कर दिया गया था। साड़ी के पल्लू से आंसू पोंछते हुए बोली, "मेरी बच्ची उस समय बहुत छोटी थी उसकी तकलीफ मुझसे बर्दास्त नहीं हो रही थी। गाँव के लोग दस हजार रूपये देकर मामला को रफ़ा-दफ़ा करने की बात कर रहे थे। बहुत दबाव था धमकियां मिल रहीं थीं पर मैंने सोच लिया था मेरी बेटी के साथ जो हुआ उससे बुरा तो मेरे साथ कुछ नहीं हो सकता।" इतना बोलकर सरिता कुछ देर के लिए खामोश हो गयी। हम उनके आँखों में भरे आंसू और चेहरे की उदासी से उनकी तकलीफ को भली-भांति महसूस कर रहे थे।

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खुद को सम्भालते हुए सरिता बोली, "घटना के शुरुआती कुछ महीनों तक लोग हमें पानी नहीं भरने देते थे। कोई मुझसे बात नहीं करता था। लोग रास्ते में अगर हमें आते हुए देख लें तो दूर खड़े हो जाते थे। छुआछूत मानते थे। हमें आसपास मजदूरी मिलना मुश्किल हो गया था। हमारे छोटे से खेत में लगी फसल का भी नुकसान कर दिया।" ये बताते-बताते सरिता का गला भर आया और वो अपने आंसुओं को रोक नहीं पायी। वो देश के बने कानून पर भी खीजती है। नाराजगी जाहिर करते हुए बोली, "मैंने दोषी को सजा तो दिला दी पर लड़का नाबालिग होने की वजह से उसको ताउम्र जेल में सजा नहीं मिली तो लोग मुझे इस बात का ताना देने लगे कि हम कुछ कर नहीं पाए। गाँव के लोगों को कानून से कोई मतलब नहीं होता वो तो सिर्फ ये देखते हैं किसी केस में दोषी को सजा कितनी मिली। हम लड़ाई जीतकर भी कभी-कभी उनके तानों से खुद को हारा हुआ पाते हैं।"

महिला मुद्दों पर कानूनी सलाह देने वाली आली संस्था की वकील कनक लता जो इस केस को देख रहीं थी वो बताती हैं, "इस महिला ने जो किया वो बहादुरी का काम है। रेप जैसी घटनाएँ इसलिए बाहर नहीं आ पाती क्योंकि समाज के लोग सहयोग ही नहीं करते हैं। अगर समाज के रूखे रवैये से ये महिला भी हिम्मत हार लेती तो ये घटना दूसरी घटनाओं की तरह घर की चाहरदीवारी में ही दम तोड़ देती।" वो आगे बताती हैं, "लड़का नाबालिग था इसलिए केस किशोर न्याय बोर्ड में चला गया। फिर भी जितनी सजा मिलनी चाहिए थी वो उस लड़के को मिली। इस पूरे केस में बड़ी बात ये रही महिलाएं अब समाज की तानाशाही से लड़कर अपने हक के लिए आवाज़ उठाने लगी हैं। ये महिला उसका उदाहरण है।"

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अपने हक के लिए आवाज़ उठाने में न केवल सरिता के साथ समाज ने बदसलूकी की बल्कि उस बेटी का भी घर से निकलना दूभर कर दिया जिसके साथ ये घटना हुई थी। सरिता के पास इतने पैसे नहीं थे कि वो गाँव छोड़कर शहर में रहने लगे इसलिए उन्होंने अपनी बेटी को हास्टल भेजने का फैसला ले लिया। आज सरिता की बेटी वहीं पांचवी कक्षा में पढ़ रही है पर सरिता अपने पति और डेढ़ साल के बेटे के साथ अभी भी उसी गाँव में रह रही है। सरिता ने हालातों से लड़ते-लड़ते अब खुद को मजबूत कर लिया है।

सरिता बताती हैं, "गाँव में जब मजदूरी मिलना बंद हो गया तो हमने रांची में दूसरा काम तलाशना शुरू कर दिया। आज एक अस्पताल में काम करती हूँ। दिनभर हम माँ बेटे अस्पताल में ही रहते हैं। पति बाहर जाकर मजदूरी करने लगे हम लोग रात में केवल सोने के लिए ही घर आते हैं।" वक़्त गुजरने के साथ-साथ सरिता ने हालातों से अब समझौता करना सीख लिया है। आज भी वो आत्मविश्वास से कहती है, "आज मैं इस बात से खुश हूँ की जितनी भी सही मैंने उस लड़के को सजा तो दिला दी। मेरे आवाज़ उठाने से और महिलाओं को हिम्मत मिली होगी। समाज का अड़ियल रवैया भी पस्त हुआ होगा।"

        

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