मध्य प्रदेश के बघेलखंड में भाई दूज के दिन गोवर्धन पर्वत और जनजुइया देवी पूजा की अनूठी परंपरा
बघेलखंड के गाँव में गोवर्धन पूजा से अलग एक परंपरा सदियों से चली आ रही है। दीवाली के बाद भाई दूज के दिन भी यहां गोबर से बने पहाड़ की पूजा होती है। इस पहाड़ को महिला का स्वरूप दिया जाता और इसका शृंगार भी किया जाता है।
Sachin Tulsa tripathi 26 Oct 2022 8:51 AM GMT
सतना (मध्य प्रदेश)। देश के ज्यादातर हिस्सों में दिवाली के दूसरे दिन गोवर्धन पर्वत की पूजा की जाती है लेकिन, लेकिन मध्यप्रदेश के बघेलखंड में भाई दूज के दिन भी एक पर्वत की पूजा की जाती है।
इस पर्वत को गोबर से बनाया जाता है। बस इस पर्वत का स्वरूप महिला का बनाया जाता है। इस पर्वत का श्रृंगार भी विवाहित महिला जैसा ही किया जाता है। लोक मान्यता में महिला स्वरूप के गोबर से बने पर्वत को जनजुइया दाई के नाम से पुकारा जाता है।
98 साल को हो चुकी कैमा उन्मूलन की निवासी सुकवरिया चौधरी जब 9 साल की थी तब से जनजुइया दाई की पूजा कर रही हैं। सुकवरिया गाँव कनेक्शन से बताती हैं, "9-10 साल की रही होंगी तब से जनजुइया की पूजा करती आ रही हूं। दिवाली के बाद भाई दूज के दिन गोबर से जनजुइया बनाते हैं। इसका महिलाओं जैसा श्रृंगार भी करते हैं। इसके बाद दूध, दही,मिठाई भी खिलाते हैं।"
गाँव की लोक परंपरा से जुड़ी जनजुइया को गोवर्धन पर्वत की पत्नी माना जाता है। इसी लिहाज से गोबर से बनाये गए इस पर्वत को महिला का स्वरूप दिया जाता है। सुकवरिया आगे बताती हैं, "जैसे सब का जोड़ा होता है वैसा ही जोड़ा यह भी। दिवाली के बाद की प्रतिपदा को गोवर्धन और दूज को जनजुइया की पूजा की जाती है और तीसरे दिन दोनों की एक साथ विदाई की जाती है।"
कुछ जगहों पर भाई-बहन की मान्यता
बघेलखंड के ही कुछ इलाकों में गोवर्धन और जनजुइया को पति पत्नी की जगह भाई-बहन माना जाता है। यह क्यों है इसका कोई ज्ञात इतिहास नहीं हैं। सतना जिला मुख्यालय से करीब 30 किलोमीटर दूर स्थित किटहा गाँव की गेंदिया पांडेय (65 वर्ष) बताती हैं, "गोवर्धन भाई है और जनजुइया बहन। दोनों की अलग अलग दिन पूजा होती है। दोनों को ही गोबर से बनाया जाता है। इनके हाथ-पैर और आभूषण आदि गोबर से ही बनाते हैं। इसके अलावा जनजुइया को बिंदी, चूड़ी आदि भी पहनाते हैं।"
दो दिन गोबर के उपले नहीं बनते
दिवाली सी जुड़ी एक और मान्यता बघेलखण्ड के गाँव में प्रचलित है। दिवाली के बाद के दो दिन उपले (कंडे) नहीं तैयार किये जाते। यही नहीं इन दो दिनों का दूध भी नहीं बेचा जाता है। यही कारण है कि इन दो दिनों के गोबर का उपयोग गोवर्धन पर्वत और जनजुइया बनाने में कर लिया जाता है। 49 साल की बेबी चौधरी बताती हैं, "गौशाला से निकले गोबर के कंडे (उपले) बनाये जाते हैं, लेकिन दिवाली के बाद के दो दिनों के गोबर को न फेंकने और न उपले बनाने की परंपरा है। इसका उपयोग गोवर्धन और जनजुइया बनाने में कर लिया जाता है।"
सेवानिवृत्त संयुक्त संचालक अंजनी कुमार त्रिपाठी गाँव कनेक्शन से बताते हैं, "गाँव कृषि आधारित रहे जिसमें पशुओं का भी योगदान रहा और यह आज भी है। इसी कारण ऐसी परम्पराएं विकसित हुईं। जहां तक बात जनजुइया की है वह तो गोबर से बनती हैं।"
वो आगे कहते हैं, "गाँव में उपले बनाने का काम दशहरा बाद ही शुरू होता है। क्योंकि इससे पहले बरसात में उपले नहीं बनाए जा सकते हैं। दिवाली के बाद दो दिन का गोबर उपले में उपयोग न करने की मान्यता है।"
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