मध्य प्रदेश: बघेलखंड के दो गाँव जिनका देश की आजादी से रहा है नाता

देश की आजादी में गांवों के योगदान को झुठलाया नहीं जा सकता, इस गणतंत्र दिवस आपको मध्य प्रदेश के बघेलखंड के उन दो गांवों की कहानी बता रहे हैं, जिसमें से एक को जलियांवाला बाग भी कहा जाता है और दूसरा जहां आजादी के लड़ाके तैयार किए जाते थे यह खबर लगते ही अंग्रेजों ने उस गांव में आग लगा दी थी।

Sachin Tulsa tripathiSachin Tulsa tripathi   25 Jan 2022 2:49 PM GMT

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माजन/पिंडरा (सतना,मध्य प्रदेश)। "मैं यही कोई 5 साल का था। तब लंबी बूटे और टोपी पहने कुछ लोग आगे थे। उन्हें देख कर गांव वाले इधर उधर भाग रहे थे। हमें अटारी में छुपा दिया गया था। गोलियों की आवाज सुनाई दी थी। सुना तो यहां तक कि महुआ का पेड़ था जिसमें गोलियों के कारण छाल तक नहीं बची थी, "माजन गांव में हुई क्रांतिकारियों और अंग्रेजों की कहानी सुनाते हुए बुजुर्ग राम लखन द्विवेदी ने गांव कनेक्शन से बताया।

90 वर्षीय राम लखन द्विवेदी सतना जिले के बिरसिंहपुर तहसील के माजन गाँव के रहने वाले हैं, लगभग 5000 जनसंख्या वाली बडेरा ग्राम पंचायत के माजन गाँव का अपना एक अलग ही इतिहास है।

90 साल के राम लखन को 10 जुलाई, 1938 की वो घटना आज भी याद है, जब उनके गाँव में अंग्रेजों गोलियां चलाईं थीं।

माजन मध्यप्रदेश के सतना जिले का एक गांव है। यह जिला मुख्यालय से करीब 35 किलोमीटर दूर स्थित है। माजन ग्राम पंचायत बडेरा कला का गांव जिसकी कुल जनसंख्या 5000 के आसपास है।

इस गांव में 10 जुलाई 1938 के दिन अंग्रेजों ने कर वसूली के विरोध कर रहे गांव वालों के आंदोलन को कुचलने के लिए गोलियां चलाई थी। इस घटना में मनधीर पांडेय, रामाश्रय गौतम और बुद्धि प्रताप सिंह शहीद हो गए थे। मध्य प्रदेश सरकार की आधिकारिक पत्रिका मध्यप्रदेश संदेश ने 15 अगस्त 1987 में प्रकाशित की थी। इस पत्रिका के पृष्ठ क्रमांक 176-177 में माजन में हुए गोली कांड के जिक्र है।

इस पत्रिका के अनुसार तब की सोहावल राज्य ने नागरिकों पर कर बढ़ा दिया था। इसका राज्य के लोग विरोध कर रहे थे। विरोध स्वरूप हिनौता गांव में सभा की जानी थी इससे पहले हो तब की सोहावल राज्य ने अंग्रेजों के सहयोग से विरोधियों का दमन कर दिया।

मध्य प्रदेश की आधिकारिक पत्रिका मध्यप्रदेश संदेश में 10 जुलाई, 1938 को हुए गोली कांड का जिक्र है।

माजन गांव के निवासी देवमणि द्विवेदी (60 वर्ष) बताते हैं, "राजाओं के जमाने में माजन पवाईदारी का गाँव था। सोहावल राज्य में आता था। गांव के लोग कर (टैक्स) का विरोध कर रहे थे। तब सोहावल राज्य के दीवान जिनका नाम हरदेव सिंह था ने अंग्रेजों के साथ मिलकर यहां गोलियां चलवा दी थीं। इस घटना में कई लोग घायल हो गए थे और तीन लोग शहीद हो गए थे।"

राम लखन की बातों को दोहराते हुए ददवा साकेत (97 वर्ष) बताते हैं, "तब मेरी उम्र 7 साल रही होगी । उस दिन अंग्रेजो की गोलियों से बचने के लिए महुआ पेड़ की आड़ लेकर खड़े मनधीर पांडेय, रामाश्रय गौतम और बुद्धि प्रताप सिंह को गोलियां लगी थी। मनधीर पांडेय का पूरा शरीर छलनी हो गया था। इसके बाद भी वह जमीन में नहीं गिरे तो अंग्रेजो ने पैर मार कर गिराया था।"

वहीं माजन गाँव से लगभग 52 किमी दूर सतना जिले की ही मझगवां तहसील के पिंडरा गाँव भी शहीद ग्राम का दर्जा मिला हुआ है। यहां के बस स्टैंड में कीर्ति स्तम्भ भी बनाया गया है जिसमें आजादी की लड़ाई में भाग लेने वाले वाले 135 शहीदों के नाम लिखे गए हैं।

पिंडरा गाँव में कीर्ति स्तम्भ बनाया गया है, जिसमें शहीदों के नाम लिखे गए हैं।

"आपको यकीन नहीं होगा कि पिंडरा गांव में घर बनाने के लिए नींव खोदी जाए तो आज भी 3 से 4 फ़ीट नीचे राख मिल जाती है। यह उस बात का प्रमाण है कि अंग्रेजों ने गांव का गांव जला दिया था। तब कोदो की फसल ज्यादा होती है। इसकी भूसी की राख आज भी नीचे दफन है, "पिंडरा गाँव के रहने वाले 81 वर्षीय राज कुमार ने गर्व से कहा।

वह आगे बताते हैं, "पिंडरा में तब 300-400 घरों की बस्ती थी। इसमें 150 घर बहेलिया समाज के लोगों के थे। यहां तब क्रांतिकारियों को युद्ध कौशल सीखाने के लिए गुरुकुल चलता था। इसमें बहेलिया और कुछ गांव वाले प्रशिक्षण लेते थे। उस समय यह खबर अंग्रेजों को लगी तो उन्होंने अपने सैनिक भेजे थे।"

"इन सैनिकों में तीन को बहेलियों ने इमली के पेड़ में लटका कर कील ठोक दी थी। इसके बाद दिवाली आई तो बहेलिया समाज के लोग चहचर (डांडिया) का खेल खेलते थे। इस खेल में उन्होंने अंग्रेजी सैनिकों की टोपी और कपड़े पहने थे। यह पता लगते ही अंग्रेजों ने पिंडरा गांव को चारों तरफ से घेर लिया। और तोपों से भून डाला, "राजकुमार ने आगे कहा।


1857 की शुरू हुई देश की आजादी की लड़ाई में पिंडरा गांव के शहीद रमापति द्विवेदी के पोते बसंत लाल द्विवेदी गांव कनेक्शन को बताते हैं, "पिंडरा में क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए जो गुरुकुल बनाया गया था। वह चंद्र शेखर आजाद के निर्देशन में चलता था। उस समय पिंडरा को अंग्रेजों ने तीन बार जलाया था। इसके बाद भी कुछ लोग बच गए। आज यह उन्हीं शहीदों की पीढ़ी है। "

वर्तमान में सरपंच और शहीद गजाधर प्रसाद प्रजापति की चौथी पीढ़ी के सदस्य देवी दयाल प्रजापति बताते है, "मिचकुरिन (नजदीकी गांव) की घाटी से अंग्रेजों ने पिंडरा पर तोपे चलाईं थी। मिचकुरिन पिंडरा से ऊँचाई पर है। इसकी कारण वहां से दागे गए गोले सीधे पड़ते थे। यहां के 135 लोगों को ही शहीद में शामिल किया गया है लेकिन गांव के हर घर से कोई न कोई आजादी की लड़ाई में शामिल था।


पूर्व सरपंच बसंत लाल द्विवेदी बताते हैं, "पिंडरा को साल में दो बार पूछ लिया जाता है। एक स्वतंत्रता दिवस और दूसरा गणतंत्र दिवस में इसके बाद कोई झांकने तक नहीं आता। सरकारों को चाहिए कि जहां क्रान्तिकारियों को युद्ध कौशल सिखाया जाता था उस स्थल को विकसित कराए।"

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