"फसल में मकड़ियां और जाले देखकर घबराएं नहीं, वो आपके कीटनाशक के पैसे बचाएंगी"

अगर आपके खेत में मकड़ियों के जाले दिखाई दे रहे हैं तो परेशान न हों। मकड़ियां खेत में मौजूद कीटों को खाती हैं। जो धरती में जीवों के संतुलन का अपना तरीका है। पद्मश्री बाबूलाल दहिया इनकी उपयोगिता बता रहे हैं।

Arun SinghArun Singh   1 Oct 2021 6:07 AM GMT

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फसल में मकड़ियां और जाले देखकर घबराएं नहीं, वो आपके कीटनाशक के पैसे बचाएंगी

फसल में मकड़ियों में जाले का क्या मतलब होता है बता रहे हैं पद्मश्री बाबू लाल दहिया। 

पन्ना (मध्यप्रदेश)। "खेत में लगे कीटों से परेशान मत होइये, वे तो मकड़ी के बच्चों के लिए प्रकृति का भेजा उपहार हैं। मकड़ियां मांसाहारी होती हैं वो फसल खाएंगी नहीं बल्कि फसल खाने वाले कीटों को खाकर जैव विविधता को संतुलित करेंगी।" पद्मश्री बाबूलाल दहिया ने कहा।

जैविक खेती को बढ़ावा देने और जैव विविधता के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने वाले पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित कृषक बाबूलाल दहिया ने कहा फसलों में अंधाधुंध कीटनाशक का उपयोग से न सिर्फ प्रकृति की भोजन श्रृंखला बाधित हो रही है बल्कि मनुष्य के स्वास्थ्य पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है।

दहिया धान और दूसरी फसलों में कीट नियंत्रण के लिए कीटनाशकों के अति इस्तेमाल को लेकर गांव कनेक्शन से चर्चा कर रहे थे। दहिया के मुताबिक जब से कीटनाशकों का ज्यादा इस्तेमाल बढ़ा है एक तरह के कीड़े खत्म हो गए हैं जबकि दूसरी तरह की कीड़ों की संख्या बढ़ गई है, जबकि मनुष्य अगर दखंलदांजी न करें तो प्रकृति खुद से ये संख्या संतुलित रखती है।


पृथ्वी में न जाने कितने प्रकार की वनस्पतियां

पृथ्वी पर न जाने कितने प्रकार के पेड़-पौधे, जीव-जंतु और पक्षी हैं। यह पृथ्वी इन सबका घर है, इसमें मानव भी शामिल है। लेकिन इस जीवंत और हरी-भरी पृथ्वी को मानव ने इतने गहरे जख्म दिए हैं कि प्रकृति का पूरा संतुलन ही डांवाडोल हो गया है।

दाहिया कहते हैं, "हमने अपनी महत्वकांक्षा और निहित स्वार्थों की पूर्ति हेतु बड़ी बेरहमी के साथ धरती की हरियाली तथा प्राकृतिक चक्र को तहस-नहस किया है। नतीजतन न जाने कितने जीव-जंतु बेघर होकर विलुप्त हो चुके हैं। इस नासमझी पूर्ण बर्ताव का खामियाजा अब हमें ही भोगना पड़ रहा है।"

हमें सह- अस्तित्व की अहमियत

सह-अस्तित्व की भावना और समझ कितना जरूरी है इसे समझाने के लिए दहिया ने एक वाकया का जिक्र करते हुए बताया कि 22-23 सितंबर के आसपास मैंने देखा कि हमारे धान के खेत में हरे रंग और लंबे मुंह का एक कीट लग गय था। हमारे खेत से ही होकर गांव वालों के लिए मैदान की ओर जाने का रास्ता था। इसलिए फसल में लगे कीड़ों को देखकर लोगों ने कहा कि "दहिया जी इसमें कीटनाशक डालिए नहीं तो आपकी सारी धान यह गंधी मक्खी खा लेगी?"

वो आगे बताते हैं, "मैं उनका मान रखने के लिए हां कह दिया और दूसरे दिन भोपाल चला गया। जब वहां से लौटकर आया तो देखा कि सारे खेत में मकड़ियों ने जाल बुन रखा है, जिनमें उनके सैकड़ों बच्चे थे। मां के द्वारा बुने गए उस जाल में फंसे कीटों को बच्चे मजे से खा रहे थे। बाद में वे उतने ही बचे जितने प्रकृति को चाहिए थे।"

सितंबर का महीना मकड़ियों का प्रजनन काल

बाबूलाल दहिया के मुताबिक सितंबर के आखिरी पखवाड़े में मकड़ी खेतों में खड़ी फसल व घरों में हर जगह अपना जाल फैलाने लगती है। उसका जाल बुनना जहां वर्षा ऋतु की समाप्ति का संकेतक है वहीं उनके प्रजनन का भी समय है। अपने बुने इसी जाल में एक-एक मकड़ी सैकड़ों अण्डे देती है, जिनसे बच्चे निकलते हैं।

मकड़ी के ये बच्चे क्या फसल को चट करेंगे? इस सवाल के जवाब में दाहिया कहते हैं नहीं। अपनी बात को बढ़ाते हुए वो कहते हैं, "मकड़ी से कोई नुकसान नहीं क्योंकि मकड़ी शाकाहारी नहीं अपितु मांसाहारी कीट है। वह अपनी वंश वृद्धि के लिए वही काम करना चाह रही है जो दायित्व उसे प्रकृति ने सौंपा है यानी मच्छर व मक्खियों का खात्मा।"

बरसात में अनुकूल वातावरण मिलने पर मक्खी व मच्छरों की तादाद बढ़ जाती है। यह मक्खी और मच्छर दूसरे जंतुओं के लिए सिरदर्द बन जाते हैं। मकड़ियां इनका संतुलन करती हैं।

दहिया आगे बताते हैं, "सितंबर का अंतिम सप्ताह मकड़ियों के लिए अनुकूल होता है। मकड़ी के एक-एक जाल में सैकड़ों की संख्या में पैदा हुए छोटे बच्चे बड़े होने तक क्या खाएंगे? इन्हीं बच्चों के लिए फसलों में लगने वाले कीट प्रकृति के भेजे हुए उपहार हैं। जिन्हें मकड़ी के बच्चे चट कर देते हैं। लेकिन अफसोस है कि प्रकृति की इस भोजन श्रृंखला को हम समझ ही नहीं पाते?"

मोटे अनाजों की उपेक्षा का परिणाम है कुपोषण

पन्ना जिले के आदिवासी बहुल क्षेत्र कल्दा पठार से लगे सतना जिले के पिथौराबाद गाँव के निवासी पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित बाबूलाल दहिया धान की देसी किस्मों तथा मोटे अनाजों के बीज को संरक्षित करने का भी अतुलनीय कार्य किया है। वे बताते हैं कि मोटे अनाजों की उपेक्षा का ही परिणाम आज कुपोषण, डायबिटीज व रक्तचाप जैसी बीमारियों के रूप में दिखने लगा है।

दहिया ने परंपरागत देसी धान की विलुप्त हो गईं किस्मों को बड़े जतन के साथ सहेजने और संरक्षित करने का काम किया है। वहीं सावा, काकुन, कुटकी, कोदो, ज्वार, बाजरा और मक्का जैसे मोटे अनाज अपने खेत में उगाकर खेती के परंपरागत ज्ञान की अलख जगाए हुए हैं। वे बताते हैं कि हरित क्रांति आने के साथ ही किसानों का रुझान उन्नत किस्म के बीजों, रासायनिक खाद व सिंचाई की ओर बढ़ा। इसके साथ ही कीटनाशकों व नीदानाशक का उपयोग भी बड़े पैमाने पर होने लगा। जिसके दुष्प्रभाव से प्रकृति के मित्र कीट भी खत्म होने लगे और भोजन श्रंखला बाधित हुई। इस तरह से कीटनाशकों का उपयोग और बढ़ता चला गया। पहले हमारे भोजन में स्वाभाविक रूप से 10-12 अनाजों की बहुलता थी लेकिन अब हमारा भोजन हरित क्रांति आने के बाद मात्र तीन अनाजों में ही सिमट गया है।


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