पढ़ाई से क्यों 'लोहा' नहीं ले पा रहे लोहारपिट्टा जाति के लोग?

खेती के काम आने वाली देसी चीजों जैसे खुरपी, खुरपा, हंसिया फावड़ा बनाने वाले लुहार जाति के ज्यादातर लोग घुमंतू जीवन जीते हैं। खुले मैदान में रहना और रोजी-रोटी के लिए इधर-उधर घूमना इनके जीवन का हिस्सा है। इनमें अपने पुरखों का दिया हाथों का हुनर तो है लेकिन इनमें से अधिकांश को पढ़ना- लिखना नहीं आता।

Sachin Tulsa tripathiSachin Tulsa tripathi   28 Dec 2021 1:02 PM GMT

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पढ़ाई से क्यों लोहा नहीं ले पा रहे लोहारपिट्टा जाति के लोग?लोहार समुदाय मुख्य रुप से खेती से संबंधित औजार और उपकरण के अलावा कई तरह के लोहे के उपकरण बनाते हैं।  फोटो- गांव कनेक्शन

सतना (मध्य प्रदेश)| सड़क से कुछ दूरी पर एक मैदान में रंग-बिरंगे तिरपालों के दर्जनों झोपड़े बने हैं। यहां रहने वाली ज्यादातर महिलाओं और लड़कियों ने रंग बिरंगे कपड़े पहन रखे हैं। तंबुओं के किसी को कोने से ढेर सारे बच्चों के खेलने की आवाज़ें रही हैं। तो कहीं गर्म लोहे पर चलाए जा रहे घन (बड़ा हथौड़ा) लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचते हैं।

ये घुमंतू लोहार समुदाय की अस्थाई बस्ती है। ये लोग इतने हुनरमंद होते हैं कि कैसे भी लोहे को कोयले की आंच में तपाकर किसी तरह के और कैसे भी लोहे को आकार दे देते हैं, यही नहीं कबाड़ को औजार में बदल देते हैं लेकिन अपने बच्चों के भविष्य को संवारने में ये लोग काफी पीछे हैं।

सतना-पन्ना मार्ग के किनारे रह रहे 25 लोहगाड़िया परिवारों में करीब छोटे बड़े मिलाकर 100 लोग हैं, लेकिन किसी ने भी स्कूल का मुंह नहीं देखा। ज्यादातर लोगों ने कहा उन्हें पढ़ना-लिखना बिल्कुल नहीं आता। 28 साल के सूरज एक मात्र इस समुदाय के युवक थे जिन्हें बस अपना नाम लिखना आता था।

"पुरखों ने कभी पढ़ाई-लिखाई की ओर जाने ही नहीं दिया। कभी यहां कभी वहां भटकने के कारण मां -बाप स्कूल भेजने से डरते रहे। इसलिए पढ़ नहीं पाए। यही हाल हमारे बच्चों का भी है।" यह कहते हुए सुगन लोहगाड़िया उदास हो जाते हैं। वो चाहते हैं उनके बच्चों की जिंदगी उनकी तरह न गुजरे लेकिन उनके मुताबिक हालात उनके साथ नहीं।

सुगन मूल रूप से मध्य प्रदेश में ही सागर जिले के रहने वाले हैं लेकिन सतना के बाहर पन्ना रोड के किनारे तंबू में बसेरा करते हैं। लोहे के बर्तन बनाना, खेती के औजार बनाना ही उनके परिवार का मुख्य पेशा है। जो मशीनीकरण के बाद लगातार बेरोजगारी की मार झेल रहा है।

सतना में पन्ना रोड पर लोहारपिट्टा समुदाय के लोगों का एक डेरा। फोटो-सचिन तुलसा त्रिपाठी

40 साल के पकरिया लोहगाड़िया सुगन की बातों में हामी भरते हुए कहते हैं, "हम लोगों का पढ़ और लिख न पाने का कारण गरीबी है। पैसा नहीं है। कोई जोत जमीन नहीं है। ऐसे में इधर उधर भटकना पड़ता है। तो पढ़ाई-लिखाई नहीं हो पाती।"

बघेलखंड में लोहार पिट्टा जाति के लोगों को लोहगाड़िया नाम से बुलाया जाता है। लोहगड़िया समुदाय के लोगों के मुताबिक उनका नाता राजस्थान के मेवाड़ से लेकिन उनके समुदाय के लोग राजस्थान, एमपी, यूपी समेत कई राज्यों में पाए जाते हैं।

आदिवासी, जनजाति और घुमक्कड़ जातियों की बाहुलता वाले मध्य प्रदेश में लोहगड़िया को घुमक्कड़ वर्ग में रखा गया है। प्रदेश में 51 जातियों को विमुक्त, घुमक्कड़ एवं अर्द्धघुमक्कड़ में शामिल किया गया है। इनके विकास, उत्थान और मुददों के लिए अलग विभाग और बोर्ड भी बनाया गया है। इन जातियों को मुख्य धारा में लाने, रोजगार, शिक्षा से जोड़ने के लिए कई केंद्र और राज्य स्तर पर कई योजनाएं चलाई जा रही हैं लेकिन आजादी के 75 वर्ष बाद भी लोहगाड़िया का वास्ता कापी-किताब से न के बराबर है।

सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट 2021 के अनुसार घुमक्कड़ और अर्द्ध घुमक्कड़ जातियों के युवकों के लिए कौशल विकास के लिए वर्ष 2020-21 में 50 करोड़ की ग्रांट दी थी जिसका 31 दिसम्बर 2020 तक 13.89 करोड़ का उपयोग किया जा चुका था। 2019-20 में 34 करोड़ की ग्रांट दी गई थी। जिसमें 6.32 करोड़ रुपये अतिरिक्त उपयोग किया गया था इस तरह से 40.32 करोड़ रुपये तक पहुंच गया था।

एमपी के सतना जिले के पन्ना रोड पर बसा एक डेरा।

मध्य प्रदेश के विमुक्त, घुमक्कड़ और अर्द्ध घुमक्कड़ राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) राम खेलावन पटेल ने फोन पर 'गांव कनेक्शन' को बताया, "लोहगाड़िया समाज के लोगों के लिए शासन स्तर से कई योजनाएं चल रही हैं। जहां तक शिक्षा की बात है तो ये जहां भी रहते हैं वहाँ की नजदीकी शाला (स्कूल) में दाखिला दिया जाता है। आवास की सुविधा में दी जा रही है। उन्हें कौशल के लिए प्रशिक्षण में दिए जाते हैं।" ऐसे समुदायों के लिए छात्रावास, आश्रम और सामुदायिक कल्याण केंद्र खोल रखे हैं।

विमुक्त, घुमक्कड़ और अर्द्ध घुमक्कड़ विभाग मध्य प्रदेश की आधिकारिक वेबसाइट अनुसार 95 स्कूल बालकों के लिए और 46 कन्याओं के लिये हैं इसमें कुल 4535 सीटें हैं। अलग-अलग बात करें तो 62 बालक और 35 कन्या छात्रावास हैं जिसमें 2960 सीटें। इसी तरह 26 बालक और 10 कन्या आश्रम हैं। इन आश्रमों में 1150 सीटें हैं। सामुदायिक कल्याण केंद्र की बात करें तो 7 बालक और 1 कन्या केंद्र संचालित हैं। इन केंद्रों में 425 सीटें हैं। पढ़ाई के अलावा रहने के लिए भी भाड़ा देने की योजना है। इन सब के बाद भी लोहगाड़ियों की एक बड़ी आबादी खानाबदोश जिंदगी जी रही है।

लोहे के औजार बनाने में पुरुषों के साथ महिलाएं पूरी भागीदारी निभाती हैं।

लोहगाड़िया परिवार के 10 साल के सदस्य चांद गांव कनेक्शन को बताते हैं, "माँ-बाप तो वहां (सागर में) रहते हैं। मुझे यहां वहां जाकर काम करना पड़ता है। इस तरह से पढ़ाई नहीं हो पाती।"

लोहार पिट्टा जाति के लोगों के पढ़ाई लिखाई के बारे में सतना के ही वरिष्ठ साहित्यकार चिंता मणि मिश्र (87 वर्ष) गांव कनेक्शन को बताते हैं, "पुराने लोग तो बिल्कुल भी नहीं पढ़ सके लेकिन आज की पीढ़ी साक्षर है। हां, यह जरूर है कि उच्च शिक्षा का अभाव है। ऐसा भी कह सकते हैं कि आगे की पढ़ाई में इनकी रुचि नहीं है। सरकार को चाहिए कि इनके पुरातन कौशल को आधुनिक मशीनों से तराशे।"

लोहा महंगा, इनके बनाये सामान भी कम पसंद करने लगे लोग

लोहार पिट्टा जाति की कला संस्कृति, संस्कार, रीति-रिवाज वेशभूषा, भाषा-बोली और खान-पान कुछ-कुछ राजस्थान के परिवेश से मिलता-जुलता है। चलते फिरते गांव कनेक्शन की मुलाकात एक और लोहारपिट्टा के गुट से हुई, जिन्होंने सतना ज़िले के जैतवारा कस्बे में डेरा डाल रखा था। 55 साल की बिंदा के दो बेटियां और एक बेटा है। बिंदा दूसरे लॉकडाउन से पहले यहां आईं थी। तब से यहीं हैं।

बिंदा आगे बताती हैं, "अब पहले जैसा काम नहीं रहा। लोहा महंगा हो गया है। लोग भी कम ही लोहे की बनी कढ़ाई वगैरह ले रहे हैं। इसलिए अब बाजार से ही खरीद कर बेचते हैं। इसी से जो दो-चार रुपये का मुनाफा हो जाता है उसी से गुजर बसर कर रहे हैं। लोग अब हमारे बनाए सामानों को कम पसंद करते हैं।"

बिंदा का परिवार उत्तर प्रदेश के महोबा जिले में आने वाले गांव चरखारी में रहता है। काम की तलाश में मध्य प्रदेश के सतना ज़िला आते -जाते हैं। बिंदा की बातों से समझा जा सकता है। घुमक्कड़ जाति वर्ग के लोहगाड़ियों की आर्थिक स्थिति लॉक डाउन के बाद और बिगड़ी है। हालात यहां तक हैं कि उन्हें लोहा पीटने की जगह बाजार पर निर्भर रहना पड़ रहा है।

मध्य प्रदेश में अलग विभाग

ऐसा नहीं है कि मध्य प्रदेश की सरकार इनके भलाई के लिए काम नहीं कर रही। प्रदेश में तो अलग से उनके मंत्रालय और विभाग भी है। विमुक्त, घुमक्कड़ एवं अर्द्ध घुमक्कड़ जनजातियों के विकास एवं कल्याण के लिए मध्य प्रदेश शासन की अधिसूचना 22 जून 2011 के द्वारा अलग से ''विमुक्त, घुमक्कड़ एवं अर्द्धघुमक्कड़ जनजाति कल्याण विभाग'' का गठन किया गया। शासन आदेश 12 सितंबर 2011 द्वारा संचालक, विमुक्त, घुमक्कड़ एवं अर्द्धघुमक्कड़ जनजाति विकास विभाग को विभागाध्यक्ष घोषित किया गया।

सतना जिले में लोहगाड़िया की महिलाएं और बच्चे जो आजतक कभी स्कूल नहीं गए। फोटो- सचिन तुलसा त्रिपाठी

मौसम के आधार पर बदलते हैं ठिकाना

बिंदा के कुनबे के अलावा सतना से पन्ना की ओर जाने वाले सड़क मार्ग के किनारे खाली पड़े भूखंड में त्रिपालों से तानी झोपड़ियां बनकर लोहगाड़िया अपना जीवन यापन कर रहे हैं। यहां 25 परिवारों का बसेरा है। जिसमें 9 परिवार मध्यप्रदेश के ही जिलों के हैं। 2 परिवार छतरपुर और 7 परिवार सागर जिले के हैं। इन परिवारों में कुल 30 सदस्य हैं। बाकी के परिवार उत्तर प्रदेश से यहां आकर बसे हैं। छतरपुर के दो परिवारों के मुखिया ननिया (60 वर्ष) और पप्पू (40 वर्ष) है। यह दोनों परिवार हर चार माह में ठिकाना बदल देते हैं।

पप्पू बताते हैं "गर्मी के दिनों में सतना, ठंड में सीधी जिला (खबर लिखे जाने तक वह चले भी गए) और बरसात के दिनों में छतरपुर में रहते हैं लेकिन इस बार जब गर्मी में सतना आये तो लॉकडाउन में फंस गए। तो इस बार बारिश यहीं गुजरी है।

51 जातियां विमुक्त, घुमक्कड़ एवं अर्द्धघुमक्कड़ में शामिल

प्रदेश की 51 जातियों को विमुक्त, घुमक्कड़ एवं अर्द्धघुमक्कड़ जनजातियों में सम्मिलित किया गया है। घुमक्कड़ एवं अर्द्धघुमक्कड़ जनजातियों में बलदिया, बाछोवालिया, भाट, भन्तु, देसर, दुर्गी मुरागी, घिसाड़ी, गोन्धली, इरानी, जोगी, जोगी कनफटा, जोशी बालसंतोषी, जोषी बहुलीकर, जोशी बजारिया, जोषी बुदुबुदुकी, जोषी चित्राबठी, जोशी हरदा, जोशी नादिया, जोशी हरबोला, जोशी नामदीवाला, जोशी पिंगला काशीकापड़ी (काषीकापड़ी हरदा, काषीकापड़ी हरबोला कलन्दर नागफड़ा, कामद, करोला, कसाई (गडरिए) लोहार पिट्टा (गाड़िया लोहार), नायकढ़ा (नायकढ़ा भील), शिकलिगर, (बरघिया, सैगुलगोर, सरानिया, शिकलिगर, सिरंगी वाला, कुचबंद (कुचबंद ), सुदुगुदु, सिद्धन (बहरूपिया), बनीयन्र, राजगोंड, गद्दीज़, रेभारी (पशुपालक), गोलर (गोलम, गोला, बालाघाट, गोलकर), गोसाँईं, भराडी हरदास, भराडी हरबोला, हेजरा, धनगर है।

इसी तरह विमुक्त जातियों में कंजर, सांसी, बंजारा, बनछड़, मोघिया, कालबेलिया, भानमत, बगरी, नट, पारधी, दिया, हाबुड़ा, भाटू, कुचबंदिया, बिजोरिया, कबूतरी, सन्धिया, पासी, चन्द्रवेदिया, बैरागी, सनोरिया आदि को शामिल किया गया है।

पहनावा और परंपराओं से बेहद लगाव

लोहगाड़िया जाति के लोगों के आम बोल चाल की भाषा और पहनावा राजस्थानी है। इस बारे में सतना में अपना अस्थाई ठिकाना बना कर रह रहीं सागर जिला के मालथौन तहसील की निवासी गौरा बाई (55 वर्ष) बताती हैं।

"हमारा पहनावा राजस्थानी है। गहने आदि भी हम वैसे ही पहनते हैं जैसा राजस्थान में पहना जाता है। हाथ में सफेद नगदार चूड़ियों का सेट है। वह पहले हाथी दांत का बनता था। अब तो यह प्लास्टिक का ही आता है। इसके अलावा अन्य चूड़ियां, टोडर, नथ भी पहनते हैं। केवल नथ ही है जो सोने की होती है। बाकी आभूषण चांदी के होते हैं। यह हमारी परंपरा का हिस्सा है।" इन जनजातियों की प्रमुख समस्या शैक्षणिक पिछड़ापन, आर्थिक रूप से विपन्नता एवं घुमक्कड़ प्रवृत्ति होने के कारण स्थायी आवास न होना है।

बेटियों के पैदा होने पर होता है जश्न, लिया जाता है दहेज

एक बात और ये सब अपनी परंपराओं के प्रति बेहद संजीदा हैं। पूजा पाठ तो सामान्य ही है लेकिन विवाह में इनकी संस्कृति में आज भी वर पक्ष को ही दहेज देना पड़ता है। ऐसा सदियों से होता चला आया है।

सागर परिवार की सदस्य कमला (48 वर्ष) बताती हैं, "हमारे समाज में वर पक्ष, वधू पक्ष को उपहार या दहेज देता है। हालांकि जिसके पास है वह देता जिसके पास नहीं वह नहीं देता। मेरी ही एक बेटी है जिसका ब्याह करना है लेकिन इसने जो लड़का देखा था वह पैसा नहीं दे पाया तो ब्याह टूट गया।"

एक बात और है लोहगाड़िया जाति के लोग आपस में ही ब्याह करते हैं, लेकिन उसमें बड़ी शर्त दूध की होती है। इसे सर्वोपरि रख कर ब्याह की रस्में निभाई जाती हैं। इस समूह के सबसे बुजुर्ग सदस्य ननिया बताते हैं "हमारे समाज में बेटी होना उत्सव माना जाता। ब्याह के समय वर पक्ष दहेज देता है। ऐसा सदियों से चला आ रहा है। हां, हम दूध बचा कर ब्याह करते हैं।


लोहार पिट्टा जाति का इतिहास

लोहार पिट्टा जाति के लोगों का इतिहास पुराना है। इनकी जड़े राजस्थान के मेवाड़ से जुड़ी हैं। मध्य प्रदेश में ही सतना के वरिष्ठ साहित्यकार चिंतामणि मिश्र बताते हैं, "लोहगाड़िया या लोहपिट्टा समाज का पुराना काम तलवार, कटारी, ढाल आदि बनाना था। राजवंश काल में मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप की प्रजा में इन्हें यही काम मिला था। अकबर से हल्दी घाटी युद्ध के दौरान इन्होंने बैल गाड़ियों में अपना परिवार व गृहस्थी लेकर चले गए थे। महाराणा प्रताप को वीरगति मिलने के बाद ये उत्तर भारत की ओर चले आये तब से उन्होंने खेती किसानी के उपयोग में आने वाली वस्तुएं बनानी शुरू कर दीं जो आज भी जारी है।"

लोहगाडिया अपने पैतृक हुनर के दम पर आजीविका तो चला रहे हैं लेकिन मशीन के बढ़ते प्रयोग, फैक्ट्री में बने सस्ते औजारों और कृषि उपकरणों के चलते उनकी रोजी मुश्किल से चल पा रही है। चिंतामणि मिश्र के मुताबिक लोहगाड़िया समुदाय को बचाने और मुख्यधारा में लाने का एक ही तरीका है, इन्हें नए तौर तरीकों से जुड़ना चाहिए, सरकार को भी इनके पैतृक हुनर को तराशकर इन्हें स्थायी रोजगार देना चाहिए।

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