मध्य प्रदेश: 35 सालों में 8 से 80 रुपए सैकड़ा बिकने लगा सिंघाड़ा लेकिन किसानों की माली हालत जस की तस

बघेलखंड में पिछले 35 सालों में सिंघाड़ा के दाम बढ़े जरूर लेकिन किसानों की जिंदगी में खास फर्क नहीं पड़ा। किसानों का आरोप है कि सरकार के पास उनके लिए ऐसी कोई योजना नहीं है जिससे उनके जीवन में सुधार आए।

Sachin Tulsa tripathiSachin Tulsa tripathi   27 Dec 2021 10:06 AM GMT

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मध्य प्रदेश:  35 सालों में 8 से 80 रुपए सैकड़ा बिकने लगा सिंघाड़ा लेकिन किसानों की माली हालत जस की तस

सिंघाड़ा किसानों के मुताबिक सिंघाड़े का रेट भले बढ़ गया है लेकिन समय के साथ उनकी बचत कम हो गई है। सभी फोटो- सचिन तुलसा त्रिपाठी

सतना/रीवा (मध्य प्रदेश)। सिंघाड़ा कई राज्यों में बड़े चाव से खाया जाता है। सिंघाड़ा कच्चा और उबाल कर खाने के अलावा इसकी सब्जी भी बनती है। इसके अलावा सुखाए गए सिंखाडे की के फल के आटे को व्रत में भी खाया जाता है। जलीय सब्जियों में शामिल सिंघाड़े की काफी मेहनत का काम है, और इसे उगाने वालों का आरोप है कि सिंघाड़े की खेती उनकी जरुरतों को पूरा करने में नाकाम है।

"पुरखे हमारे लिए कुछ छोड़ हैं तो वह है सिंघाड़ा उगाने की कला, इसी से जिंदगी कट रही है। जमीन के नाम पर कुछ है तो घर, इसके अलावा पैर रखने के लिए जमीन का टुकड़ा नहीं है। इसलिए मजबूरी है किराए में तालाब लेना पड़ता।" रीवा जिले के में सिमरिया गांव के सिंघाडा किसान रामसिया केवट (65वर्ष) बताते हैं।

अपनी जिंदगी ज्यादातर हिस्सा सिंघाड़े की खेती और तालाब में गुजारने वाले रामसिया सिंघाड़ा किसानों की समस्या को दो लाइनों में बयान करते हैं, "आप को यकीन नहीं होगा कि यही सिंघाड़ा 35 सालों में 8 रुपये सैकड़ा से 80 रुपये सैकड़ा हो गया लेकिन हमारे हालात देख ही रहे हैं। वैसे के वैसे ही हैं।"

मध्य प्रदेश के बघेलखंड के जिलों के ज्यादातर सिंघाड़ा किसानों के पास खेती लायक जमीन नहीं है। वह ऐसे ही तालाबों में सिंघाड़ा की खेती करते हैं। कुछ सरकारी और कुछ निजी तालाबों में सिंघाड़ा उगा रहे हैं। कुछ ज्यादातर किसानों को तो तालाब किराए पर लेना पड़ता है।

एमपी में सिंघाड़े की खेती ज्यादातर मल्लाह या केवट समुदाय के लोग करते हैं, जिसमें ज्यादातर भूमिहीन होते हैं। फोटो- सचिन तुलसा त्रिपाठी

राम सिया केवट गांव कनेक्शन को बताते हैं, "हमारे पुरखों के पास कोई जोत जमीन नहीं थी। हमारी भी स्थिति इतनी अच्छी नहीं कि जमीन का एक टुकड़ा ले सकें। तो पेट चलाने के लिए हर साल ही तालाब किराए में लेकर सिंघाड़ा की खेती करते हैं। इस साल यह एक एकड़ का तालाब 15 हज़ार रुपये किराये में मिला है। साल दर साल किराया बढ़ ही रहा है। इस तालाब से लगभग 30 कुंतल के आसपास निकलेगा इसमें से लागत काटकर 50 हज़ार तक की आमदनी होगी।"

पेड़ के मोटे तने को काट कर बनाई गई नाव के कोने में बांस की लाठी के सहारे बैठे रामानुज सिंगरहा (38 वर्ष) ने 'गांव कनेक्शन' से कहा, "पहले तो मैं पिता जी का हाथ बांटता था बाद में मैंने खुद से ही सिंघाड़ा लगाने लगा। इसके बाद भी कोई बड़ा फायदा नहीं है लेकिन और किसी काम-धंधे में मन नहीं लगता इसलिए सिंघाड़ा ही उगाते हैं।"

रामानुज मध्य प्रदेश के सतना जिला के सोहावल ब्लॉक में आने वाले गांव सोहौला के किसान हैं। यह गांव जिला मुख्यालय से पश्चिम दिशा में सतना-पन्ना रोड पर स्थित है। सोहौला गांव में करीब 8 एकड़ का तालाब है जिसमें सिंघाड़ा की खेती लंबे समय से की जा रही है।

"इस खेती में जीवन चल रहा है बस। आमदनी यही 50 हज़ार के आसपास हो जाती है लेकिन सब कुछ ठीक रहे तब। वरना कभी फसल डूब जाती है तो कभी सूख भी जाती है। सिंघाड़ा की फसल केवल दवाओं के सहारे ही चलती है, जिसमें इस साल 20 हज़ार रुपये खर्च किये हैं। अभी की आमदनी का कोई हिसाब नहीं है जनवरी के बाद ही पता चलेगा।" रामानुज अपनी बातों में आगे जोड़ते हैं।

सोहौला गांव की एक खास बात यह है कि तालाब के आसपास बसे करीब 70 परिवार के लोग अपने सरनेम में सिंगरहा लिखते हैं वैसे उनका सरनेम केवट या मल्लाह है। यह नाम इन्हें सिंघाड़े के खेती में वर्षों से लगे रहने के कारण मिला है।

सिंघाड़ों की खेती में सबसे ज्यादा खर्च कीटनाशक पर आता है।

सात माह की मेहनत, दवा नहीं तो सब बेकार

कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक देश में करीब 80-100 प्रकार की जलीय सब्जियां पाई जाती हैं। जिनमें कमल, मखाना, सिंघाड़ा और कलमी साग प्रमुख हैं।

सिंघाड़ा की फसल सात माह की मेहनत है। चार माह फसल के उगने के और तीन माह उसके फल आने के। यह भी तभी ठीक है जब फसल ठीक रहे। इसके लिए किसानों को रसायन कीटनाशकों और दवाओं के सहारा लेना पड़ता है। इसकी वजह यह है कि सिंघाड़ा का पौधा हमेशा पानी में रहता है जिस कारण कीटों का ज्यादा खतरा रहता है।

रीवा जिले के सेमरिया के किसान और रामशिया केवट के बेटे राकेश केवट (26 वर्ष) ने 'गांव कनेक्शन' से तालाब की ओर इशारा करते हुए बताते हैं "यह तालाब करीब एक एकड़ का है। जिसमें 10 किलो सिंघाड़ा बीज लगा हुआ है। अभी जितना अच्छा दिख रहा है वह केवल दवाओं के दम पर ही है। दवाई न डाले तो सिंघाड़ा की फसल खराब हो जाएगी। इसमें तीन बार तो दवा डालनी ही पड़ती है और कुछ गड़बड़ दिखे तो भी। बाजार में 400 से 450 रुपए में 250 ग्राम मिली थी। इस तरह से दवा- दवा में लगभग 30 हज़ार खर्च हुआ है।"

सतना में गड़रा गांव के किसान जगजाहिर मल्हार के मुताबिक एक किलो बीज बाजार में करीब 100 रुपए का मिलता है। एक किलो बीज से करीब 25 किलो सिंघाड़ा फल तैयार होता लेकिन ये मौसम पर निर्भर करता है।

राकेश अपने पिता रामसिया केवट (65 वर्ष) के साथ 16 साल की उम्र से सिंघाड़ा की खेती करते आ रहे हैं। इस साल उम्मीद है कि 30 कुंतल के आस पास सिंघाड़ा निकलेगा इसलिए वह सुबह 9 बजे से दोपहर दो बजे तक तालाब से सिंघाड़ा तोड़ने में लगे रहते हैं। ऐसा जनवरी माह के अंत तक चलेगा।

सतना के किसान नत्थू लाल सिंगरहा भी सिंघाड़ा में लगने वाले कीटों को सबसे बड़ी मुसीबत मानते हैं। वो कहते हैं, "सिंघाड़ा की फसल को कीटों के बड़ा खतरा है। इनसे बच गई तो अच्छा उत्पादन मिल जाता है। कीटों के रोकथाम के लिए ही दवाओं का उपयोग करना पड़ता है। इसके बिना तो संभव ही नहीं।"

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सिंघाड़ा किसानों की विभाग कभी जानकारी ही नहीं मांगता

सिंघाड़ा जलीय सब्जी वर्ग में शामिल है। सिंघाड़े की खेती के बारे में कृषि मंत्रालय भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान कोई डाटा जारी नहीं करता है। मध्य प्रदेश में उद्यान विभाग के पा भी इस संबंध में विस्तृत जानकारी नहीं है। सिंघाड़े की फसल और इसके किसानों की जुड़ी जानकारी को लेकर उद्यानिकी विभाग के पास कोई डेटा नहीं है। यहां तक की विभाग कभी इसकी जानकारी तक नहीं मांगता है।

उद्यानिकी विभाग में बतौर सहायक संचालक पदस्थ नरेंद्र सिंह कुशवाह बताते हैं "बाकी उद्यानिकी फसलों की जानकारी तो ली जाती रही है लेकिन सिंघाड़ा को लेकर कभी भी कोई जानकारी नहीं मांगी गई। जहां तक किसानों की बात है तो एक अनुमान में 1500 के आसपास सिंघाड़ा लगाने वाले किसान हैं।"

उद्यानिकी विभाग फलों में आम, आंवला, अमरूद, नींबू, कटहल, जामुन, पपीता, करौंदा, मुनगा, अनार, सब्जियों में आलू, बैंगन, टमाटर, मटर, फूलगोभी, पत्ता गोभी, गांठ गोभी, अरबी, जिमीकंद, लौकी, कद्दू, ककड़ी, परवल, प्याज, करेला, मिर्च, शिमला मिर्च, हरी पत्तेदार सब्जियां, भिंडी, मूली, तोरई, रेरुआ, मसाला में धनिया, हल्दी, अदरक, लाल मिर्च, मैथी, लहसुन आदि की जानकारी लेता है। इसी तरह औषधियों में चंद्रसूर, अश्वगंधा, शतावर, सफेद मूसली, कालमेघ, एलोवेरा और फूलों में गेंदा, रजनीगंधा, ग्लेडियोलस, गुलाब की जानकारी लेता है लेकिन ये सभी जमीन में पैदा होने वाले है पर सिंघाड़ा पानी में होता है जिसे उद्यानिकी विभाग अपनी जानकारी में शामिल नहीं है।

क्योंकि सिंघाड़ा ठहरे हुए पाने के तालाब में होता है और तालाब मत्स्य विभाग में आता है। इसलिए गांव कनेक्शन ने सतना में मत्स्य विभाग में बात की। सहायक मत्स्य अधिकारी अनिल श्रीवास्तव तालाबों के बताया, "सतना जिले के अमरपाटन, सोहावल, ऊँचेहरा और मैहर की तालाबों में सिंघाड़ा की खेती होती हैं। ये तालाब मछलियों के लिए हैं लेकिन किसान सिंघाड़े भी लगाते हैं। सिंघाड़ा मछलियों के खुराक के काम आता है इसलिए किसान इन तालाबों में सिंघाड़ा लगा लेते हैं। जिले में तालाबों की संख्या 1738 है जिनका जल विस्तार क्षेत्र 6957.992 हेक्टेयर है।

कैसे और कब लगाते हैं सिंघाड़ा

सिंघाड़े की बुवाई बरसात शुरू होते ही जुलाई से लेकर अगस्त के पहले सप्ताह की तक किया जाता है। बाकी फसलों के मुकाबले सिंघाड़े की नर्सरी बाहर कहीं उपलब्ध नहीं होती है। ऐसे में गांव के कुछ सिंघाड़े की फसल के विशेषज्ञ लोग ही उसे तैयार करते हैं। मई और जून के महीने में ही गांव के छोटे तालाब, पोखरों और गड्डों में इसका बीज बोया जाता है, इसे बाद एक महीने में बेल के रूप में इसका पौधा तैयार किया जाता है। जिसको निकालकर तालाब और तालों में इसे डाला जाता और यह बेल के रूप में तालाब की सतह में फैल जाती है।

किसान नत्थू लाल बताते हैं, "धान के रोपा जैसा ही सिंघाड़ा का रोपा भी लगाया जाता है। इसके बाद बारिश होते ही रोपा के पौधों को तालाब में छोड़ देते हैं। यह अपने आप जड़े पकड़ लेता है। इसके बाद अक्टूबर माह के दूसरे पखवाड़ा में इनमें फल आ जाते हैं।"

फुटपाथों में ही फुटकर व्यापार

सिंघाड़ा किसानों की माली हालत का कारण इनके व्यापार का संगठित न होना भी है। अधिकांश किसान शहर के फुटपाथों में बैठ कर सिंघाड़ा बेंचते हैं। खास कर इन किसानों की पत्नी या फिर बेटियां नजदीक के शहर या कस्बे जाकर सिंघाड़ा बेंचती हैं।

सतना जिले में उमरिया- सतना मार्ग में बोरी बिछा कर एक कोने में बैठी प्रमिला केवट (37 वर्ष) गांव कनेक्शन से बताती हैं, "हमारा यही कोई चार खटिया (एक खटिया 5 फिट चौड़ी और 6 फिट लंबी होती है। लकड़ी की होती है। जिसमें सुमेड़ी बंधी होती है। गांव का देशी बेड कह सकते हैं। इस हिसाब से 20 फिट चौड़ा और 24 फिट लंबा ) का तालाब है। उसी से गुजारा चलता है। पति प्रेमशंकर (40 वर्ष) रोजाना तीन बोरी (एक बोरी में करीब 1500 सिंघाड़ा आता है) सिंघाड़ा तोड़ते हैं इसमें से एक बोरी ही ला पाती हूँ। फुटकर में 10 रुपये के 10 पीस सिंघाड़ा बेचती हूं।"

थायराइड और घेंघा रोग में फायदेमंद

इंडियन डायेटिक एसोसिएशन की सीनियर डायटिशियन डॉ विजयश्री प्रसाद ने बताया '' सिंघाड़ा के आटे का प्रयोग कई प्रकार की दवाओं के बनाने में भी किया जाता है इसलिए इसकी डिमांड भी दिनों दिन पहले की तुलना में बढ़ रही है।' उन्होंने बताया कि थायराइड और घेंघा रोग को दूर करने में इसका सबसे ज्यादा इस्तेमाल हो रहा है, चूंकि इसमें आयोडीन अधिक पाया जाता है इसलिए इन बीमारियों से ग्रसित मरीजों के लिए यह फायदेमंद है।" सिंघाड़ा, पानी से निकालने के बाद हरा और थोड़ा सा गुलाबी रंग लिए होता है। इसे उबाला जाता है इस कारण ही यह काला हो जाता है।

कृषि विज्ञान केंद्र रीवा के उद्यानिकी वैज्ञानिक डॉ. राजेश सिंह बताते हैं, "बाजार में दोनों तरह के सिंघाड़े बिकते हैं कच्चा और उबला हुआ। कच्चा जो कि हरा रंग वाला होता उसे भी खा सकते हैं लेकिन उबले हुए ज्यादा पसंद किए जाते हैं। उबले हुए सिंघाड़े काले रंग के हो जाते हैं। इस रंग को लेकर यह समझा जाता है कि यह केमिकल की वजह से है लेकिन पानी में नमक मिलाकर सिंघाड़े को पकाने से ऐसा रंग हो जाता है।"

पेड़ के मोटे तनों को काटकर बनाई जाने वाली नावें भी बहुत खास होती हैं।

खुद से बनाते हैं सिंघाड़ा की विशेष नाव

किसान जिस नाव दे दम पर पानी से भरे तालाब से सिंघाड़ा फल को निकालते हैं वह किसी आधुनिक तकनीक से नहीं बनाई जाती। इसे वह स्वयं ही तैयार करते हैं। साधारण सी दिखने वाली सिंघाड़ा किसानों की नाव के बारे में सतना के रोहिणी मल्लाह बताते हैं, "मोटे तना वाला पेड़ के पेड़ खरीद लेते हैं। यह 3 से 4 हज़ार रुपये तक में मिल जाता है। इस पेड़ से पांच फीट लंबा तना काट लेते हैं। इसी ताने को ही नाव में बदल देते हैं। इसके लिए दो लोग मिल कर पांच-छह दिन में बढ़िया से खोखला कर लेते हैं। खोखला में इतना करते हैं कि नीचे की सतह में 1 इंच करीब मोटी लकड़ी बची रहे। लंबाई 5 फीट ही रखते हैं जबकि चौड़ाई डेढ़ फीट। पीछे की ओर थोड़ी मोटी और आगे की ओर थोड़ा पतली ताकि नाव में आगे वाले हिस्से में बैठने पर डूबे न।"

रोहिणी बताते हैं, "नाव के लिए ज्यादातर जामुन, आम और महुआ की लकड़ी का उपयोग करते हैं। यह पानी को झेल पाने में सक्षम है। ये तीनों लकड़ियां कम चिटकती हैं। पानी में रही आएं तो 5 या फिर 6 साल तक एक नाव चल जाती है।"

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