गाँव की राजनीति को समझाता एक लेखक
Deepanshu Mishra 27 Feb 2018 1:47 PM GMT
एक ऐसा उपन्यास मुझे पढ़ने को मिला जो सीधे मुझे मेरे गाँव लेकर जाता है। गाँव की प्रधानी के समय का वातावरण गाँव के लोग और गाँव से जुड़ी हर चीज के बारे में इस किताब में मिला। मुझे ही नहीं अगर आप पढेंगे तो आपको भी अपने गाँव की याद आ ही जाएगी। उपन्यास का नाम है 'मदारीपुर जंक्शन', जिसके लेखक हैं बालेन्दु द्विवेदी। इस किताब के बारे में गाँव कनेक्शन ने लेखक से बात की। आइये जानते क्या है इस किताब को लिखने का कारण।
आप अपनी पृष्ठभूमि के बारे में बताइए
मैं मूलत: गोरखपुर जिले के कभी अत्यंत मशहूर रहे गाँव ब्रह्मपुर का रहने वाला हूँ। गाँव में ही पैदा हुआ और गाँव की गलियों में गुल्ली-डंडा, कबड्डी, चिक्का, थोड़ा बहुत क्रिकेट खेलकर बड़ा हुआ हूँ। गाँव और वहाँ की माटी का संस्कार मेरे रगों में रचा-बसा है। मेरी पढ़ाई हाईस्कूल तक मेरे ही दादा-परदादाओं की बनाई शिक्षण संस्था से हुई है।
जहाँ तक लेखन की बात है तो मैं बताना चाहूँगा कि मैं इंटर तक साइंस का विद्यार्थी था। इसके बाद जब ग्रेजुएशन करने इलाहाबाद आया तो साथियों ने आर्ट्स के विषय दिलवा दिए। हिंदी भी उनमें से एक थी, लेकिन मेरे भीतर साहित्य की समझ न के बराबर थी। मैं हिंदी साहित्य को भी केमिस्ट्री के सूत्रों की तरह रटता था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रो. राजेन्द्र कुमार वह पहले शख़्स थे जिनके अध्यापकीय संसर्ग ने मेरे भीतर साहित्य के प्रति चाह पैदा की।
मैं साहित्यिक क्षेत्र में कलमकारी कर सकूँगा, इसका विश्वास मुझे नहीं था। आप विश्वास मानिए मैंने आज तक बमुश्किल से भी 10 उपन्यास पढ़े होंगे। लेकिन प्रेमचंद के गोदान को कम से कम सौ बार पढ़ा है। उनकी कफ़न आदि कहानियों को पढ़कर कई बार भावुक होकर रोया भी हूँ।
मुझे लगता था कि लेखक जन्मजात होते हैं और उनके लिए लेखन के लिए कच्चा माल आसमान से टपकता है, लेकिन 2007-08 के आसपास मैंने आदरणीय श्रीलाल शुक्ल का एक इंटरव्यू पढ़ा जिसमें उन्होंने कहा कि जब वे नौकरी के शुरुआती दिनों में गोरखपुर के बाँसगाव तहसील में बतौर एसडीएम तैनात थे तो रोज़मर्रा की दिनचर्या में उनसे मिलने-जुलने आने वाले लोगों को उन्होंने 'राग दरबारी' का पात्र बनाया। बस क्या था, मुझे मेरा गाँव याद आया और उसमें रचने-बसने वाले वे तमाम चरित्र भी जो मेरे लिए साहित्य की सामग्री बनने को तैयार थे। बस यहीं से शुरुआत हो गई।
आपने लिखना कब शुरू किया? वह पहली रचना क्या थी, जिसने आपको लिखने के लिए उत्सुक किया तथा आप इस राह पर चल पड़े?
वर्ष 2005 में छिटपुट व्यंग्य कविताएं लिखना शुरू किया था। वर्ष 2010 में नौकरी छोड़ने का ख़याल आया। मैं अपने एक दोस्त के साथ मुंबई फ़िल्म राइटर्स एसोसिएशन का सदस्य बनने मुंबई पहुँच गया ताकि जीविका की वैकल्पिक व्यवस्था कर सकूँ। एक वर्ष में लगभग एक दर्जन स्क्रिप्ट्स लिख डालीं, लेकिन यह मार्ग भी 'ले दही-ले दही' जैसा लगा। तब मन में ख़याल आया कि कुछ स्थायी काम किया जाये। 2011 में सबसे पहले उपन्यास का आत्मकथ्य लिखकर अपने भीतर के साहित्यकार को चेक करना चाहा कि यह गाड़ी भी आगे तक चल पाएगी या नहीं, लेकिन लिखकर अपने लेखन को लेकर आश्वस्त हुआ फिर मदारीपुर-जंक्शन को लिखने की ग़ुस्ताख़ी कर डाली।
मदारीपुर जंक्शन' लिखने की पीछे क्या कारण था?
'मदारीपुर जंक्शन' को लिखते समय एक ख़याल बार-बार दिमाग़ में रहा कि किसी पूर्वाग्रह के वशीभूत होकर नहीं चलना है। हिंदी में तमाम विमर्श चल रहे हैं जैसे दलित विमर्श, महिला लेखन। मुझे ये सब बनावटी और प्रायोजित लगते हैं क्योंकि ये सभी विमर्श और आन्दोलन आत्मलोचन के बजाय आत्ममुग्धता के शिकार हैं। इनको समाज के दूसरे हिस्से को कोसने की कलाकारी तो खूब आती है पर अपने गिरेबान में झाँकने और उसकी ख़ामियों को उघाड़ने का आत्मबल इनमें नहीं है। मैंने एक ऐसे विषय को अपने उपन्यास के केंद्र में रखा है जिसमें मैंने स्वयं को और अपने समाज को भी नग्न करके दिखाया है। मैं सामंती संस्कारों के साथ पैदा तो जरूर हुआ पर मेरा मैं, स्वयं को सदैव समाज के मजलूमों-बेकसों के साथ खड़ा पाता है। यही मेरे लेखन की शक्ति है-संजीवनी है।और यह ओढ़ा हुआ या बनावटी क़तई नहीं है।
हिंदी में व्यंगात्मक उपन्यास बहुत कम हैं- 'राग दरबारी', 'हम न मरब' और ज्ञान चतुर्वेदी के कुछ अन्य उपन्यास हैं, पर आपको अपने उपन्यास में व्यंग्यात्मक लहजा अपनाने के पीछे क्याक वजह रही?
आपको सच बताऊँ तो मुझे हिंदी साहित्य के व्यंग्य उपन्यासों की फ़ेहरिस्त का भी ज्ञान नहीं है, लेकिन इतना जरूर मालूम है कि बड़े रचनाकारों ने भी असीम संभावनाओं के बावजूद फुटकर लेखन से ही काम चलाया, जबकि वे चाहते तो उपन्यासकार के रूप में साहित्य को बहुत कुछ दे सकते थे। उपन्यास दरअसल बहुत धीरज और कलेजे वाला काम है। यह आपकी रगों से सारा रक्त निचोड़ लेता है। इसलिए बहुतेरे प्रतिभावान होने के बावजूद यह दुस्साहस नहीं जुटा पाते। जहाँ तक शैली की बात है तो आप को बेहतर मालूम होगा कि शैली अपनाई या सीखी नहीं जा सकती। क्योंकि 'स्टाइल इज द मैन इटसेल्फ'। व्यंग्यात्मकता मेरे स्वभाव में हैं,विद्रूप में भी सौंदर्य तलाश कर लेना मेरे ज़ेहन का हिस्सा है।इस लिहाज़ सें मैं केवल मैं हूँ। मैं जीता-जागता,चलता-फिरता व्यंग्य हूँ।
यह एक तरीके से प्रधानी के चुनावी संग्राम के बहाने बदलते गांवों की कहानी भी है पर दूसरे अर्थो मे गांव देहात के राजनीतिक माहौल का आंखों देखा हाल भी है। इसके बारे में आपका क्या कहना है?
देखिए मैंने अपने उपन्यास के आत्मकथ्य में ही कहा है कि मैं साहित्यकारों में दलित हूँ। फिलहाल मैं स्वयं को किसी के बग़ल बैठाने की हैसियत में नहीं हूँ। यह इसका पाठक वर्ग तय करेगा कि मदारीपुर जंक्शन को किसके बग़ल बैठाया जाय या फिर इसके बग़ल बैठने वालों की तलाश की जाये। अथवा इसे अस्पृश्य बनाकर अलग श्रेणी में डाल दिया जाय।
आप एक सरकारी अधिकारी हैं और लेखनी में इतने अच्छे दोनों को कैसे मैनेज करते हैं?
नौकरी तो करता ही हूँ और पूरा समय देता हूँ। मेरी एक आदत रही है कि सीखते रहने की। मैं ऑफिस के समय पर भी लोगों से सीखता रहता हूँ कभी-कभी लोग ऎसी चीजें बोल देते हैं जो मेरे लिए बहुत काम की होती हैं। मैं उन चीजों को तुरंत डायरी में नोट कर लेता हूँ। मैं अपनी नौकरी और लेखनी को बराबर का समय देता हूँ।
आने वाले समय में क्या आप कुछ लिखने वाले हैं?
एक नए व्यंग्यात्मक उपन्यास 'वाया फुरसतगंज' पर काम शुरू हो चुका है। इसबार पृष्ठभूमि इलाहाबाद की चुनी है। मैं इलाहाबाद में पंद्रह-सोलह साल रहा हूँ। वहाँ के गली, कूचों, चौराहों, जलेबियों, पकौड़ों और समोसा को उपन्यास का हिस्सा बनाना चाहता हूँ। इस बार प्रशासन, न्यायपालिका और शहरी राजनीति केंद्र में है।
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