शादियों में गूंजने वाली शहनाई खो रही अपना वजूद
Rajeev Shukla 21 Jan 2018 6:20 PM GMT
कानपुर। शादी का नाम जेहन में आते ही कुछ चीजें ऐसी हैं, जिनकी छवि अपने आप दिमाग में बन जाती है जैसे दूल्हा दुल्हन, बैंड बाजा, मंडप और शहनाई,लेकिन आने वाले समय में अब शहनाई की गूंज सुनाई देना बंद होने वाली है, ऐसा नहीं है कि इस पर कोई प्रतिबंध लगाया जा रहा है लेकिन बदलते समय के साथ धीरे-धीरे शहनाई अपनी पहचान खोती चली जा रही है।
यह वही शहनाई है जिसे बजाने वाले उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ां को भारत के सबसे बड़े रत्न भारत रत्न से सम्मानित किया गया था। उत्तर प्रदेश में आज की शहनाई वादन के लिए दो जगह है प्रसिद्ध है एक बनारस और दूसरा कानपुर का मझावन। एक समय था जब शादी में शहनाई वादन लोगों में प्रतिष्ठा समझी जाती थी और जो लोग अपने घरों में होने वाली शादियों में शहनाई वादकों को बुलाते थे उन लोगों को उनको पूरा मान सम्मान मिलता था लेकिन आज परिस्थितियां बदल चुकी है आज लोग डीजे लगाना उचित समझते हैं और शहनाई का प्रचलन अब धीरे धीरे समाप्त होता चला जा रहा है।
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एक समय था जब शहनाई वालों को बड़ी इज्जत की नजर से देखा जाता था लेकिन आज 4000 से 5000 की बुकिंग में शहनाई वादक आसानी से मिल जाते हैं साल में एक शहनाई वादक को 40 से 45 काम मिलते हैं जिसमें उनके साथ एक ढोलक वाला एक मंजीरा वाला हर एक बोल वाला भी होता है।
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गाँव में हर घर में शहनाई वादक
कानपुर नगर से लगभग 27 किलोमीटर दूर बिधनू ब्लॉक का मझावन गांव शहनाई वादकों के गांव के नाम से पूरे प्रदेश में विख्यात है। यहाँ हर घर में शहनाई वादक रहते हैं किसी समय इनके ठाठ हुआ करते थे लेकिन इसको समय की बलिहारी ही कहेंगे धीरे धीरे शहनाई की जगह ऑर्केस्ट्रा ने ली और फिर डीजे ने आज के समय में लोग अपने यहां कार्यक्रमों में शहनाई को शोपीस स्टाल बना कर लगवाते हैं। आज भी इस गाँव के जलील बशीर कल्लन रईस नूर शरीफ आदि कई लोग शहनाई वादक है। जलील ने तो प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को भी शहनाई सुनाई है।
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गांव के पुराने शहनाई वादक मास्टर जलील बताते हैं कि “हमारे इस गांव में लगभग 10 पीढ़ियों से शहनाई बजाने का काम हो रहा है मेरे नाना गुलाम हुसैन रीवा के राज दरबार में शहनाई बाजार करते थे यह हुनर मैंने उन्हीं से सीखा है लेकिन आज के समय में अगर आप यह सोचे कि केवल शहनाई बजा कर घर का खर्चा पूरा हो जाएगा तो यह नामुमकिन है। धीरे-धीरे समय बदलता चला जा रहा है अब तो हमारी आने वाली नस्लें शहनाई को छूना तक नहीं चाहती हैं वे कहती है की इसमें पैसा नहीं है और आज सब कुछ पैसा ही होता है उनको कौन समझाए की ये विरासत है।”
दूसरा व्यवसाय करने को हुए मजबूर
बात केवल जलील साहब की ही नहीं गाँव के सारे शहनाई वादकों की स्थिति आज ऐसी हो चुकी है। किसी समय शहनाई की बदौलत अपने घर का खर्चा ठाट से चलाने वाले मास्टर जलील भी आज टेंट हाउस का व्यवसाय कर रहे हैं। कुछ ऐसे ही हालात अन्य शहनाई वादकों के भी हैं एक अन्य शहनाई वादक सलीम बताते हैं, “हम में से कुछ लोग तो अब खाली दिनों में मजदूरी तक करते हैं अब वो बात भी नहीं रह गयी है पुराने समय में लोग शहनाई की बुकिंग कराने हमारे घर तक आया करते थे लेकिन अब बुकिंग का माध्यम ज्यादातर बैंड वाले ही हो गए हैं।”
मास्टर जलील बताते हैं, “शहनाई बजाना सीखना भी आसान काम नहीं है केवल इसको सीखने में भी 8 से 10 साल का समय लगता है। मैंने खुद 15 साल रियाज किया था उसके बाद सुर पर पकड़ बनी। उसके बाद भी हमको लगातार रियाज करना पड़ता है क्योंकि अगर आपने रियाज करना छोड़ दिया तो आप यह मान लीजिए कृपया आप शहनाई नहीं बजा पाएंगे।
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