नृत्य के जरिए भावनाओं को दिखाता है ‘छाऊ’

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नृत्य के जरिए भावनाओं को दिखाता है ‘छाऊ’नृत्य के जरिए भावनाओं को दिखाता है ‘छाऊ’।

गाँव कनेक्शन संवाददाता

छाऊ या ‘छऊ’ एक प्रकार की नृत्य नाटिका है, जो पश्चिम बंगाल, बिहार और उड़ीसा के पड़ोसी राज्यों में अपने पारंपरिक रूप में देखने को मिलती है। इन राज्यों में यह नृत्य वार्षिक सूर्य पूजा के अवसर पर किया जाता है। पश्चिम बंगाल के पुरुलिया और मिदनापुर ज़िलों के कुछ क्षेत्रों में इस नृत्य में रामायण की पूरी कथा होती है, जबकि अन्य जगहों पर रामायण और महाभारत तथा पुराणों में वर्णित अलग-अलग घटनाओं को आधार बनाकर यह नृत्य किया जाता है।

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लोक नृत्य में छाऊ नृत्य रहस्यमय उद्भव वाला है। छाऊ नर्तक अपनी आंतरिक भावनाओं व विषय वस्तु को, शरीर के आरोह-अवरोह, मोड़-तोड़, संचलन व गत्यात्मक संकेतों द्वारा व्यक्त करता है। ‘छाऊ’ शब्द की अलग-अलग विद्वानों द्वारा भिन्न-भिन्न व्याख्या की गई है। कुछ का मानना है कि ‘छाऊ’ शब्द संस्कृत शब्द ‘छाया’ से आया है।

‘छद्मवेश’ इसकी दूसरी सामान्य व्याख्या है, क्योंकि इस नृत्य शैली में मुखौटों का व्यापक प्रयोग किया जाता है। छाऊ की युद्ध संबंधी चेष्टाओं ने इसके शब्द की दूसरी ही व्याख्या कर डाली ‘गुपचुप तरीके से हमला करना या शिकार करना।’

छाऊ की तीन विधाएं मौजूद हैं

यह नृत्य तीन अलग-अलग क्षेत्रों सेराई केला (बिहार), पुरूलिया (पश्चिम बंगाल) और मयूरभंज (उड़ीसा) से शरू हुई हैं। युद्ध जैसी चेष्टाओं, तेज़ लयबद्ध कथन, और स्थान का गतिशील प्रयोग छाऊ की विशिष्टता है। यह नृत्य विशाल जीवनी शक्ति और पौरुष की श्रेष्ठ पराकाष्ठा है। चूंकि मुखौटे के साथ बहुत समय तक नृत्य करना कठिन होता है, अत: नृत्य की अवधि 7-10 मिनट से अधिक नहीं होती।

नृत्य स्थल

पश्चिम बंगाल में यह नृत्य खुले मैदान में किया जाता है। इसके लिए लगभग 20 फुट चौड़ा एक घेरा बना लिया जाता है, जिसके साथ नर्तकों के आने और जाने के लिए कम से कम पांच फुट का एक गलियारा अवश्य बनाया जाता है। जिस घेरे में नृत्य होता है, वह गोलाकार होता है। बाजे बजाने वाले सभी अपने-अपने बाजों के साथ एक तरफ़ बैठ जाते हैं। प्रत्येक दल के साथ उसके अपने पाँच या छ: बजनिए होते हैं। घेरे में किसी प्रकार की सजावट नहीं की जाती और कोई ऐसी चीज भी नहीं होती, जो इस नृत्य के लिए अनिवार्य समझी जाती हो।

मुखौटे

छाऊ नृत्य मनोभावों की स्थिति अथवा अवस्था का प्रकटीकरण है। नृत्य का यह रूप फारीकन्दा, जिसका अर्थ ढाल और तलवार है, की युद्धकला परम्परा पर आधारित है। नर्तक विस्तृत मुखौटे लगाता और वेशभूषा धारण करता है तथा पौराणिक-ऐतिहासिक, क्षेत्रीय लोक साहित्य, प्रेम प्रसंग और प्रकृति से संबंधित कथाएं प्रस्तुत करता है। युद्ध जैसे संचालन, तेज़ तालबद्ध लोक धुनो, सुन्दर शिल्पमय मुखौटों के साथ विशाल पगडियां छाऊ की विशिष्टता है। मुखौटे आमतौर पर नर्तकों द्वारा स्वयं चिकनी मिट्टी से बनाए जाते हैं।

संगीत

छाऊ नृत्य के संगीत में कंठ-संगीत गौण होता है और वाद्य-संगीत की प्रधानता होती है। लेकिन नृत्य के प्रत्येक विषय की शुरुआत एक छोटे गीत से की जाती है, जिसे उस विषय का प्रदर्शन करने के क्रम में कभी-कभी दुहराया जाता है। विशेष तौर पर तब जब शहनाई या वंशी न बज रही हो। प्रत्येक पात्र का परिचय एक छोटे गीत से दिया जाता है, जो अगले विषय के प्रारंभ होने तक चलता रहता है। इसके बाद कोई दूसरा पात्र घेरे में आता है और उसका परिचय देने वाला गीत शुरू हो जाता है।

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