मेरे गाँव, मेरे गीत (भाग -2) :  हिम्मत और आत्मविश्वास बढ़ाने वाला लोकगीत है आल्हा

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मेरे गाँव, मेरे गीत (भाग -2) :   हिम्मत और आत्मविश्वास बढ़ाने वाला लोकगीत है आल्हामेरे गाँव, मेरे गीत सीरीज़ का दूसरा भाग। 

ढोलक की तान पर और मंजीरे की झनकार, गाँवों की वो धुने हम आज तक नहीं भूल पाए हैं। गाँव में जब भी होली आती तो मंदिर के चबूतरे पर बैठे बुज़ुर्गों का फाग गाना और किसी के घर बच्चे का जन्म होने पर महिलाओं का एक स्वर में सोहर गाना हमें आज तक याद है। ये लोकगीत न केवल हमें सुनने में अच्छे लगते हैं, बल्कि ये हमें अपनी मिट्टी से जोड़े रखते हैं। गाँव कनेक्शन की विशेष सीरीज़ 'मेरे गाँव मेरे गीत' के दूसरे भाग में आइये जानते हैं हमारे योद्धाओं की बहाहुरी के किस्सों के बारे में। आज के सेगमेंट में पढ़िए दो भाइयों की वीरगाथा आल्हा के बारे में।

आल्हा : दो भाइयों की वीरगाथा

उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड कभी जाएं, तो लोकगीत आल्हा ज़रूर सुनिएगा। वीर रस से भरे हुए ये लोक गीत बुंदेलखंड का अभिमान भी हैं और पहचान भी। ढोलक, झांझड़ और मंजीरे की संगत में आल्हा गायक तलवार चलाते हुए जब ऊंची आवाज़ में आल्हा गाते हैं, तो माहौल जोश से भर जाता है। ये गीत कई सदियों से बुंदेलखंड की संस्कृति का हिस्सा रहे हैं।

आल्हा बुंदेलखंड के दो भाइयों (आल्हा और ऊदल) की वीरता की कहानियां कहते हैं। यह गीत बुंदेली और अवधी भाषा में लिखे गए हैं और मुख्यरूप से उत्तरप्रदेश के बुंदेलखंड और बिहार व मध्यप्रदेश के कुछ इलाक़ों में गाए जाते हैं। आल्हा और ऊदल बुंदेलखंड के दो वीर भाई थे। 12वीं सदी में राजा पृथ्वीराज चौहान से अपनी मात्रभूमि को बचाने के लिए दोनों वीरता से लड़े। हालांकि इस लड़ाई में आल्हा और ऊदल की हार हुई, लेकिन बुंदेलखंड में इन दोनों की वीरता के किस्से अब भी सुनने को मिल जाते हैं। इन्हीं दोनों भाईयों की कहानियों को कवि जगनिक ने सन् 1250 में काव्य के रूप में लिखा, वही काव्य अब लोकगीत आल्हा के नाम से जाना जाता है।

ये भी पढ़ें- मेरे गाँव, मेरे गीत (भाग -1) : ढोलक की थाप और मंजीरे की धुन से शुरू होता है सोहर 

मेरे गाँव मेरे गीत सीरीज़ ।

उदाहरण के तौर पर-

'' खट्-खट्-खट्-खट् तेगा बाजे
बोले छपक-छपक तलवार
चले जुनब्बी औ गुजराती
ऊना चले बिलायत क्यार।''


बुंदेली भाषा में लिखे गए इस गीत में आल्हा और ऊदल भाइयों को युद्ध में लड़ते हुए बताया गया है। आल्हा गीत के इस छंद में यह बताया जा रहा है कि दोनों भाई युद्ध करते हुए तेज़ी से अपनी तेगा ( लंबी तलवार) चलाते हैं। युद्ध में इस्तेमाल होने वाली भारतीय (जुनब्बी और गुजराती) तलवारें ऐसी चलती हैं, कि उनके आगे विदेशी तलवारें भी कम लगती हैं।

आल्हा लोकगीत के स्रमाट लल्लू बाजपेई पूरे भारत में थे मशहूर

आल्हा को लोगों तक पहुंचाने का मुख्य श्रेय लोकगायक लल्लू बाजपेई को जाता है। लल्लू बाजपेई ने सिर्फ़ उत्तर प्रदेश में ही नहीं बल्कि देश के कई अलग अलग हिस्सों में आल्हा गीत को विशेष पहचान दिलवाई है। (साभार - कन्हैया कैसैट)

   

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