‘भाबी जी घर पर हैं’ के दरोगा हप्पू सिंह बोले-नुक्कड़ नाटक से लेकर फिल्मों तक काम किया 

Neetu SinghNeetu Singh   3 Jan 2018 9:28 PM GMT

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‘भाबी जी घर पर हैं’ के दरोगा हप्पू सिंह बोले-नुक्कड़ नाटक से लेकर फिल्मों तक काम किया योगेश त्रिपाठी 

लखनऊ। चर्चित सीरियल ‘भाबी जी घर पर हैं’ के हप्पू सिंह यानी योगेश त्रिपाठी का नाम आते ही उनके कई डॉयलाग याद आने लगते हैं। उनका पहनावा, उनकी भाषा, उनके अंदाज हर किसी को पसंद आते हैं। एक छोटे से कस्बे राठ से निकलकर सबके दिलों पर राज करने वाले योगेश त्रिपाठी के लिए कभी कोई काम छोटा या बड़ा नहीं रहा। नुक्कड़ नाटक से अपने कैरियर की शुरूवात करने वाले योगेश ने छोटे या बड़े काम करने में झिझक महसूस नहीं की।

"गाँव कनेक्शन" ने योगेश त्रिपाठी से उनके आने वाले सीरियल ‘जीजा जी छत पर हैं’ के बारे में बातचीत की। इन्होंने टीवी सीरियल ‘एफआईआर’ फिर ‘भाबी जी घर पर हैं’ और अभी 9 जनवरी को शुरू होने वाले सीरियल में ‘जीजा जी छत पर हैं’ के बारे अपना अनुभव साझा किया। उनसे बातचीत के कुछ अंश आप सभी पाठकों के लिए...

‘जीजा जी छत पर हैं’ सीरियल में छोटे

सवाल-सब टीवी पर रात 10 बजे नौ जनवरी से शुरू होने वाले सीरियल ‘जीजा जी छत पर हैं’ में आप किस रोल में आ रहे हैं?

जबाब- इसमें मैं सैलून वाले (बाल काटने वाले) का रोल कर रहा हूँ। ‘एफआईआर’ और ‘भाबी जी घर पर हैं’ इन दोनों सीरियलों से इस नये सीरियल में मेरी भूमिका बिलकुल अलग है। सोले पिक्चर में जो हरीराम की भूमिका थी जेल में सुरंग है, वही भूमिका मेरी छोटे सैलून के रूप में है। चांदनी चौक पर बाल काटने के सैलून पर काम करता हूँ, मुझे आस पास की पूरी खबर रहती है। इसमें एक सरदार हैं जिनका नाम मुरारी है उनकी एक लड़की है, उनके घर में छत पर एक कमरा जो खाली है उनकी हर किराएदार से शर्त है कि वो शादी शुदा परिवार को ही कमरा देंगे, क्यों कि उनकी सयानी बेटी है। एक लड़के को किराए पर घर चाहिए था उसकी शादी नहीं हुई थी वो अपने दोस्त को साड़ी पहनाकर किराए पर रहने लगता है। लड़की इस बात को जानती है वो अकेले में उसे चिढ़ाती रहती है। पूरा मोहल्ला उसे जीजा जी कहता है, वो छत पर रहतें हैं इसलिए इसका नाम ‘जीजा जी छत पर हैं’ रखा गया है। फिल्म ‘चमेली की शादी’ से ये सीरियल मिलता जुलता है।

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हप्पू सिंह

सवाल-‘भाबी जी घर पर हैं’ हप्पू सिंह का रोल बहुत सराहा जाता है। आपके बेटे को भी ये रोल बहुत पसंद है, इस रोल में कैसे आए, आपकी निजी जिन्दगी से हप्पू सिंह का कितना ताल्लुक है?

जबाब-(हंसते हुए) ये इस सीरियल का एक फनी करेक्टर है। पुलिस वाले का रोल और जिन शब्दों का इस्तेमाल हुआ है, जो बुन्देली भाषा है वो सिर्फ दर्शकों को हंसाने के लिए किया गया है। मेरा बेटा सीरियल देखकर खुश होता है। मैंने कई विज्ञापनों में काम किया है। मुझे लगता है सीरियल के डॉयरेक्टर शशांक बाली की वहीं से मुझ पर नजर पड़ी और उन्होंने मुझे ये मौका दिया। एफआईआर में 600 एपिसोड में कई तरह के रोल प्ले किए। ‘भाबी जी घर पर हैं’ में तीन साल से काम कर रहा हूँ। अभी ये सीरियल तीन चार साल खत्म होने वाला नहीं है। हप्पू सिंह मेरी निजी जिंदगी से बिलकुल अलग है, मेरा पेट नहीं निकला है। मैं हर समय निजी जिन्दगी में हंसा नहीं सकता हूँ। जो भी शब्द मैं बोलता हूँ वो सिर्फ राईटर के लिखे शब्द हैं। भाषा बुन्देली हो ये मैंने सुझाव दिया था, लेखक मनोज संतोषी खुद अलीगढ़ के हैं। उन्होंने कई जिलों की भाषाओँ को स्क्रिप्टिंग में शामिल किया है।

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सवाल- आप हमारे पाठकों को अपने छोटे से कस्बे राठ से लेकर मुंबई तक के सफर के बारे में कुछ यादगार लम्हे बताइये?

जबाब- हमीरपुर से 60 किलोमीटर दूर छोटा सा कस्बा राठ है, जहां हमारा बचपन बीता है और स्नातक तक की पढ़ाई पूरी हुई है। माँ झांसी की हैं उन्हें मूवी देखने का बहुत शौक है, बचपन से ही उनके साथ बहुत मूवी देखी हैं। मैं अभिनय के क्षेत्र में जाना चाहता था ये मेरा बचपन से ही शौक था। दो भाई दो बहनों में मैं सबसे छोटा हूँ, पिता से लेकर पूरा खानदान शिक्षक है। परिवार के लोग चाहते थे मैं भी टीचर बनूं पर उन्हें ये भी पता था ये अपने मन का करेगा। मैथ से स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद वर्ष 2000 में लखनऊ आ गया। मूवी देखना, थियेटर शो देखना, नुक्कड़ नाटक देखना और घंटों सीढ़ियों पर बैठकर सोचना कैसे कैरियर की शुरूवात करूं। खाली समय में सिर्फ मूवी देखता था और चीजों को खुद से समझने की कोशिश करता था। टीचर बैकग्राउंड होने की वजह से अच्छी गाइडेंस नहीं मिली। मेरे लिए कभी कोई काम छोटा बड़ा नहीं रहा इसलिए मैंने शुरुआत नुक्कड़ नाटक से की।

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विभिन्न भूमिकाओं में योगेश त्रिपाठी

डमरू ढ़ोल मजीरा के शोर पर भारत के हजारों गाँव में जाकर हजारों प्ले में कभी जमींदार का लड़का बना तो कभी शराबी तो कभी भिखारी की भूमिका निभाई। एक प्ले में 100-150 रुपए मिल जाते थे, जिससे खर्चा चल जाता था। नुक्कड़ नाटक के जरिए लाखों ग्रामीणों से सीधे रूबरू होने का मौका मिला। कुछ समय बाद मुझे पता चला लखनऊ के गोमती नगर के नाट्य आकादमी में नेशनल स्कूल आफ ड्रामा की वर्कशॉप होने वाली है। उस दौरान मैंने राठ के फ़ॉक सीखे, थियेटर की किताबें पढ़ी, तब मेरा यहां सलेक्शन हुआ। इसके बाद मैंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।

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2005 के आसपास अपने एक दोस्त के साथ पहली बार मुंबई आया। डेढ़ दो साल गली-गली भटकना, आडिशन देना, फोटो बांटना यही जारी रहा। मैं एक छोटे से कस्बे से गया था मेरे लिए काम मिलना वहां थोड़ा मुश्किल था पर मैंने कभी हार नहीं मानी। पहली बार क्लोरोमिंट का एक फनी सा विज्ञापन मिला इसके बाद एक के बाद एक कई विज्ञापन मिले। उसी दौरान एफआईआर, भाबी जी घर पर हैं, जीजा जी छत पर हैं, के डायरेक्टर शशांक बाली ने मुझे काम करने का मौका दिया, तबसे दर्शकों के प्यार से ये सिलसिला रुका नहीं। एक फिल्म में भी काम किया है शायद 2018 में रिलीज हो जाए। काम की शिफ्ट 12 घंटे रहती है, मन का काम है, मजा आता है काम में इसलिए कभी बोर नहीं होता।

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योगेश त्रिपाठी

सवाल- आपने राठ कस्बे में कई साल गुजारे हैं, ये गांव से जुड़ाव आपके काम में कितना मददगार हुआ है?

जबाब- राठ के अनुभव मेरे काम में बहुत काम आया है। मैं गाँव या शहर से जुड़े हर माहौल से वाकिफ़ हूँ, इसलिए किसी तरह के रोल करने में कोई असुविधा नहीं होती है। मेरा टार्गेट हमेशा एक रहा इसलिए कई असफलताओं के बावजूद मैं दूसरी दिशा में भटका नहीं। गांव के अनुभव चाहें वो ‘भाबी जी घर पर हैं’, में दरोगा का रोल रहा हो या ‘फिर जीजा जी छत पर हैं’, में सैलून वाले का रहा हो दोनों में काम आया है।

सवाल-अपनी कामयाबी का श्रेय सबसे ज्यादा किसे देते हैं?

जबाब- मेरी कामयाबी में सभी का सहयोग रहा है खासकर डायरेक्टर शशांक बाली और राइटर मनोज संतोषी की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इन्होंने हमे आगे बढ़ने का एक सही प्लेटफ़ॉर्म दिया है जिससे मुझे एक के बाद एक लगातार सीरियल में काम मिलता रहा है।

योगेश त्रिपाठी कुछ इस अंदाज में अपने फैन से मिलते हुए

सवाल- थियेटर का शौक रखने वाले छोटे कस्बों, गाँव में रहने वाले हमारे युवा साथियों से क्या कहना चाहेंगे?

जबाब- छोटे-छोटे कस्बों में बड़ा टैलेंट है, आप अपने शौक का काम कर सकते हैं, पर सफलता कम समय में नहीं मिलती है। अगर आपको अभिनय में ही कैरियर बनाना है तो पहले काफी कुछ सीख कर आयें जिससे मुम्बई में आपको ज्यादा दिन भटकना न पड़े। कोई भी काम छोटा बड़ा नहीं है ये सोचकर छोटे से ही काम से शुरूवात करें। कई बार बड़े काम पाने के चक्कर में हमें कुछ नहीं मिलता है। दो नाव की सवारी कभी न करे, जो भी सोचें उसे पूरा करें।

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