शिवाजी इस पारंपरिक लोककला के जरिए दुश्मनों को देते थे मात, मनकवाड़ा का नाम सुना है आपने ?

Divendra SinghDivendra Singh   9 March 2017 6:18 PM GMT

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शिवाजी इस पारंपरिक लोककला के जरिए दुश्मनों को देते थे मात, मनकवाड़ा का नाम सुना है आपने ?लोककलाएं देश में ही नहीं विदेशों तक प्रसिद्ध हैं, ऐसी ही एक लोक कला की विधा है मनकवड़ा।

स्वयं प्रोजेक्ट डेस्क

लखनऊ/सूरजकुंड। महाराष्ट्र अपने आप में लोक कलाओं से समृद्ध राज्य है, यहां की कई लोककलाएं देश में ही नहीं विदेशों तक प्रसिद्ध हैं, ऐसी ही एक लोक कला की विधा है मनकवड़ा।

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महाराष्ट्र की लोक कला मनकवड़ा की शुरुआत तब हुई थी जब देश में मुगलों का शासन था, उसी समय मराठा नायक छत्रपति शिवाजी महाराज मुगलों से लोहा ले रहे थे। इसकी शुरुआत महाराष्ट्र में 16वीं सदी में हुई थी। यह लोक कला यहां की अन्य कलाओं से थोड़ी अलग है। उस समय एक समूह उनके लिए जासूसी किया करता था। वो भी नृत्य और संगीत के जरिए।

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महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले के मणिकनगर के रहने वाले संतोष माणिकराव बोराडे और उनका ग्रुप अब उस कला को जिंदा रखे हुए है। संतोष माणिकराव बोराडे अपनी इस लोक कला की विधा के बारे में बताते हैं, “उस समय जब देश मुगलों का शासन था, शिवाजी महाराज उनके खिलाफ थे, उस समय गोंडल हुआ करता था, गोंडल माता जी के जगराते को कहते हैं। गोंडल के बहाने ये समूह राजाओं के यहां चले जाते थे।”

यह माना जाता है कि नृत्य अभिव्यक्ति का सबसे अच्छा माध्यम होते हैं। ऐसे में किसी राज्य की संस्कृति से रूबरू होने के लिए वहां की लोक नृत्य कलाओं को जानना सबसे अच्छा रहता है। महाराष्ट्र में विभिन्न प्रकार के लोक नृत्य किए जाते हैं।

वो आगे बताते हैं, “उस समय फोन, इंटरनेट जैसे माध्यम नहीं हुआ करते थे, उस समय ये समूह किले में नृत्य के बहाने से चले जाते थे और उस में से एक कलाकर धीरे से गायब हो जाता और दूर खड़ी सेना को इशारे से बता देते थे कि इधर सेना नहीं है।”

एक समय था जब शिवाजी महाराज के सेना में बिना कानों से सुने सिर्फ हाथों के इशारे से लोगों संदेश पहुंचा देते थे, अब उसके जानकार नहीं बचे हमारी पूरी कोशिश रहती है कि हम ज्यादा से ज्यादा लोगों को इसको पहुंचा पाएं।
संतोष माणिकराव बोराडे

सिर्फ दो जिले में बचे हैं इस विधा के जानकार

एक समय था जब इस विधा के जानकार महाराष्ट्रभर में थे, लेकिन अब दो जिले में ही इसके जानकार रह गए हैं। अब महाराष्ट्र के जालना और औरंगाबाद जिले में ही इसके कलाकार बचे हैं, जो देशभर में घूम-घूमकर इस विधा को लोगों तक पहुंचा रहे हैं। इस कला को प्रस्तुत करने के लिए किसी मंच इत्यादि की आवश्यकता नहीं होती है। इसे किसी भी खुले स्थान पर किया जा सकता है।

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