'मेरे गाँव में धान बस बिखरा के फेंक दीजिए, वो उग आएगा'

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मेरे गाँव में धान बस बिखरा के फेंक दीजिए, वो उग आएगा

'मनोज बाजपेयी' ये नाम भारतीय हिन्दी सिनेमा में अपनी अलग पहचान रखता है। इसे सुनते ही इनकी सबसे बड़ी सफ़लता 'भीखू म्हात्रे-सत्या' का वो डॉन याद आता है, जो 'सपने में मिलती है ओ कुड़ी मेरी' पर मगन होकर नाचता है। 'द स्लो इंटरव्यू विद नीलेश मिसरा' शो हमारे ख़ास मेहमान बने मनोज बाजपेयी। बॉलीवुड में लंबा वक्त गुज़ार चुके मनोज बाजपेयी ने फिल्म इंडस्ट्री में अपने कॅरियर और उतार-चढ़ाव के कई क़िस्से सुनाए। पढ़िये मनोज बाजपेयी से इस ख़ास मुलाक़ात का दूसरा भाग...


नीलेश मिसरा: क्या कोई ऐसा लम्हा था जब लगा आपको कि आप मशहूर हो गये हैं?

मनोज बाजपेयी: वो तो सत्या के बाद ही हुआ था, (नीलेश :- कोई क्षण) और वो सत्या जैसा पल तो मेरे ख्याल से अमजद खान साहब को ही आया था कि शोले रिलीज हुई और वो बड़े हो गये। मुझे लगता नहीं है कि किसी को यूँ अचानक आता है।

मेरी ज़िन्दगी में बड़ा अचानक आया, अचानक भीखू म्हात्रे पता नहीं कहाँ से आया और मुझे समझ ही नहीं आया, वो कहते हैं चमक जैसा होता है ना, उस तरह से मेरे साथ हुआ था कि पूरा हिन्दुस्तान, आप बाहर भी जा रहे हैं तो बांग्लादेश, पाकिस्तान के लोग आपको घेरे जा रहे हैं। ये... ये लम्हा क्या था! पूरा एक साल ऐसे ही चला था।

नीलेश मिसरा: जी, और इस घोर सफलता के दौर के बाद इक ऐसा दौर भी आया कि अम्म्म्... (नीलेश हिचक कर रुकते हैं और मनोज बीच में बोलते हैं)

मनोज बाजपेयी : असफलता भी आई। मुझको बोलने में कोई दिक्कत नहीं है। देखिए मैं जब आया था 98 में, जरा वो दौर याद कीजिए। अगर आप गूगल करेंगे तो आपको सत्या ही दिखेगी, आगे पीछे इस तरह की कोई फिल्म नहीं दिखेगी। उस जमाने में 'खानों' का राज था। उसके अलावा अक्षय थे, अजय थे जो राज कर रहे थे।

हम जैसे लोग अकेला मैं था! और अकेला एक रामगोपाल वर्मा। हाँ ना!

शेखर कपूर आये थे फिर उन्होंने एक बेंडिट क्वीन बनाई थी, उसके बाद विदेश चले गये थे। एक साउथ में थे मणिरत्नम साहब।

हमारे लिये कोई फिल्म नहीं बनाता था। मैं चुप घर पर बैठा रहता था। मैंने ठान रखा था कि मैं व्यवसायिक फिल्मों में खलनायक नहीं बनूँगा, मैं करूँगा पर अपने मन का काम करूँगा।

रोल बहुत आते थे नीलेश। उस दौरन में नकदी देते थे लोग पैसा।

साइनिंग अमाउंट सूटकेस में भरकर आता था। मैं किराए के घर में रहता था, निम्न मध्यवर्गीय परिवार के किसान का बेटा था मैं। मुझसे ज्यादा जरूरत किसी को नहीं थी पैसे की, छः भाई-बहनों का परिवार, सबको खड़ा करना था, तो मुझसे ज्यादा जरूरत किसी को नहीं थी पैसे की। सारे पैसे को ना करना और मुम्बई शहर में किराए के घर में रहना।

नीलेश मिसरा: बहुत बड़ी बात है) और अपना एक उद्देश्य बनाना कि आपको करना क्या है? उसको लेकर के स्पष्ट होना और इन सब चीजों को ठुकराना।

मनोज बाजपेयी: (हँसते हुए) मेरे ख्याल से लोगों को अब जो है मनोज बाजपेयी को शबाशी देनी चाहिये, थोड़ी सी कि एक छोटा सा योगदान इसका भी रहा है इस सबमें जो ये समय बदला है और चीज़ें बदली हैं, बदलाव जिस तरह से आया है, जिस तरह से निर्देशक/अभिनेता व्यस्त हुये हैं तो थोड़ा सा तो योगदान बनता है, उसको स्वीकार करना लोगों के लिये। उसमें कुछ नहीं है, आप ही बड़े आदमी माने जाओगे। (दोनों के ठहाके)

नीलेश मिसरा: बहुत निश्छल हैं आप, बहुत सादगी है आपमें।

मनोज बाजपेयी : ज्यादा उलझायेंगे तो मर जाऊँगा मैं, उसको व्यवस्थित करना बहुत मुश्किल है। देखिए उलझा तो मैं अभी के अभी कर दूँ, निश्छलता मैं अभी के अभी हटा दूँ... बड़ा अच्छा आता है क्योंकि मैं एक्टर हूँ और दुनिया भी बहुत देख ली है मैंने। लेकिन जटिलतायें बहुत हैं उसमें, लेकिन उसको व्यवस्थित करना बहुत मुश्किल है तो उसमें थकान हो जायेगी।

नीलेश मिसरा : लेकिन वो जो दौर था जब आपने चीज़ों को ना कहा! वो क्या एक... तब आपने असली दोस्तियाँ क्या होती हैं, और नहीं जो होती हैं, उनको देखा आपने? रिश्तों को दरकते देखा आपने ?

मनोज बाजपेयी: नहीं, देखिए बहुत सारी दोस्तियाँ धीरे-धीरे छंटनी शुरू हो गयीं। बहुत सारे जो दोस्त थे अचानक से बनने शुरू हो गये। और जो कि मुझे सब कुछ दिख रहा था। जैसा कि मैंने बताया कि मैं बचपन से बड़ा संजीदा किस्म का व्यक्ति रहा हूँ, इस प्रकार का आदमी रहा हूँ जो जीवन-मृत्यु के रहस्य को तलाश कर रहा है, तो इसी बात से समझ सकते हैं कि वो बदलते हुये व्यवहार को तो आराम से समझ सकता है, तो उस मामले में चीज़ें बड़ी नंगी होती थीं मेरे सामने।

आप उसमें इंगत किसी को नहीं करते हो चूँकि आप जानते हो कि यार यही जीवन का नियम है, चलने दो। सब साथ में मटन खा रहे हैं, दारू पी रहे हैं, हाँ ना। लेकिन जैसे- जैसे आपको फिल्में नहीं मिल रही हैं। आपकी फिल्में चल नहीं रही हैं या आप जो अलग तरीके की फिल्में कर रहे हैं, ज़ाहिर है कि नहीं चलेंगी भई अब वो दौर ही नहीं था, उस तरीके की फिल्मों का। और मुझे अभी भी याद है फिल्मफेयर में किसी ने साक्षात्कार किया था मेरा और कहा था - आप अपने आप को पाँच साल बाद कैसे देखते हो कहाँ देखते हो, और मैंने कहा - मैं अपने आप को एक ऊँचाई से नीचे गिरते देखता हूँ ये सुनकर वो आश्चर्यचकित थे।

मैंने कहा क्योंकि मैं जिस तरह की फिल्में करना चाहता हूँ वो चलती नहीं हैं, और सारी फिल्में सत्या होती नहीं हैं तो मैं नीचे जा रहा था क्योंकि मैं वो नहीं कर पा रहा था जिसकी लोग मुझसे उम्मीद लगाये बैठे थे। जब मैं एक ऊँचाई से नीचे जाऊँगा तो हर वो इंसान कि जिसने मुझसे कुछ बड़ी उम्मीदें लगा रखी हैं, वो सब निराश होंगे। और सात साल बाद ठीक वही हुआ भी पूरी तरह से जिसकी मुझे उम्मीद थी। उसमें बहुत सारी चीज़ें भी हैं। उसमें बहुत सारी दोस्तियाँ, बहुत सारे लोगों को, जिनको मैंने सोचा था कि ये ग्रुप के लोग हैं सब साथ में बढ़ेंगे, सब बिखरे भी।





नीलेश मिसरा : दोस्तियाँ टूटीं?

मनोज बाजपेयी: मेरी तरफ से तो बिल्कुल नहीं टूटी थीं लेकिन मैंने देखना शुरू किया बदलते व्यवहार को तो मैंने दूरी बना ली। इस तरह का व्यक्तित्व रहा है मेरा, यदि मैं देखता हूँ कि... अच्छा ये यहाँ से दूसरी तरफ़ जा रहा है, तो शुरू में ही आपको कहा था मैंने कि मैं अलग हो जाता हूँ। और मेरा अलग होना, अकेले ही चले जाना मुझे मेरे व्यक्तित्व के हिसाब से...

नीलेश मिसरा: अपना रास्ता खुद बनाना...

मनोज बाजपेयी : नहीं... अकेले रहना तो अच्छा ही लगता है मुझे! तो वो जो सब गये और इधर मेरा कॅरियर डाउन हुआ और उसके बाद सब गायब। और उनमें से कुछ बहुत सफल बन गये। सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात ये रही कि उन्होंने अहसास तक नहीं किया कि मनोज बाजपेयी ने उनको तब सहारा दिया था जब वो अपनी मंज़िलों तक पहुँचना चाहते थे।

सलीम साहब का एक इंटरव्यू देख रहा था आपका... शायद आपके या किसके इंटरव्यू में, उन्होंने कहा था कि देखो शुक्रगुज़ार जो आदमी है उससे ज्यादा तमीज वाला कोई आदमी नहीं है क्योंकि मैं शुक्रगुजारी माँग नहीं रहा हूँ वो खुद हो रखा है तो वो बहुत तमीज वाला है।

कहीं न कहीं आपके इक छोटे से योगदान को वो पहचान रहा है, अपने जीवन में, है ना। लेकिन जो शुक्रगुजार नहीं है उससे ज्यादा ज़लील इंसान भी कोई नहीं है, क्योंकि वो ये समझ रहा है कि जो भी हुआ है उसके साथ अच्छा, उसने खुद ने किया, और किसी का योगदान नहीं है, तो मैं देखता था कहता था कि यह बढ़िया है, भई ठीक है।

नीलेश मिसरा: तकलीफ़ हुई?

मनोज बाजपेयी : नहीं, देखिए तकलीफ़ तब होगी जब आप उम्मीद करते हैं, गाहे बगाहे आपकी नज़र पड़ गयी किसी के साक्षात्कार पर और वो अगर पहचान नहीं रहा। अब मैं अगर ये अहसान नहीं मानूँ कि... तिग्मांशु धूलिया मुझे शेखर कपूर के पास ले के गया था, तो मुझसे बड़ा ज़लील इंसान कोई हो ही नहीं सकता।

वही लेकर गया था मुझे, ये सत्य है, शेखर कपूर की फिल्म मैं था रामगोपाल वर्मा ने मुझे वो रोल न दिया होता तो मैं कहीं नहीं होता, शायद ये पूरा नहीं हो क्योंकि आप अकेले तो कुछ भी नहीं उखाड़ सकते हैं, ये तो जगज़ाहिर वाली बात है।




नीलेश मिसरा : हम सब ऐसे किन्हीं लोगों, उनकी दोस्ती, हमारी तरफ़ ध्यान देने और काम में मदद की वजह से ही हैं।

मनोज बाजपेयी : बिल्कुल, मैं आपको बताऊँ अब चूँकि बातचीत निकली है, तो अशोक पुरंग नाम के मेरे दोस्त हैं, बड़े ज़हीन किस्म के इंसान हैं। कभी आपका वास्ता भी पड़ेगा उनसे। वो साहब कभी मेरे कमरे पर आते थे दिल्ली में मेरे भाई को (तब तक मैं लेके आ गया था अपने भाई को, वो कुछ स्टडी वगैरह कर रहा था) वो आते और कहते थे ये मनोज से मैंने 600 रुपया कर्ज़ा लिया था, दे देना। और वो नौकरी करता था मेरा दोस्त। तो मेरा भाई कहता था कि ऐ भैया आपके पास ये छः सौ रुपया कहाँ से आया उनको देने के लिये, यहाँ पे हम मटन नहीं खाये हैं इतने दिन से, आपने छः सौ रुपया उनको दे दिया। (दोनों के ठहाके)

तो मैं समझ जाता था कि ये अशोक पुरंग का एक तरीका था मुझे हेल्प करने का, बिना लोगों को जताये, तो अगर मैं अशोक पुरंग के उस योगदान को स्वीकार नहीं करूँ, या पहचानूँ नहीं तो उससे ज्यादा ज़लील आदमी तो कोई हो ही नहीं सकता। या उन सारे दोस्तों को जो आज तक मेरे साथ हैं, हम लोग का परिवार हो गया, बच्चे हो गये। मिलना जुलना उस तरह से नहीं हो पाता है, फोन पर बातचीत होती है। हम एक दूसरे की खुशी में उतने ही खुश होते हैं, एक-दूसरे के दु:ख में उतने ही दु:खी होते हैं।

चाहे मैं हूँ या अशोक पुरंग हों या निखिल वर्मा हों, चाहे विमल वर्मा हों, राजीव पॉल हों या संजीवा वत्स हों। संजीवा वत्स मेरा दोस्त है सर, बहुत ही प्रतिभावान है, शायद उस तरह से भगवान ने नाम नहीं दिया उसको लेकिन उसकी प्रतिभा जो है, मैं कभी भी कम नहीं आँकता हूँ, तो ये सारी चीज़ें रिकग्नाइज करने की बात होती हैं।(राइट)

मैं थोड़ी ना बोलूँगा कि नीलेश, यार मैंने किया तुम्हारे लिये, प्लीज बोल देना ना। बात समझ रहे हो ना। वो जो दूसरा है, जिसने किया है, वो क्यों बोलेगा। ये तुम्हारे ऊपर है तुम्हारी जिम्मेदारी है।

नीलेश मिसरा : बिल्कुल पूरी तरह से, और जब यश और प्रसिद्धि आती है तो कई बार रॉ में बह जाना, पता ही नहीं लगता कि कब हम वो लक्ष्मण रेखा पार कर गये!

मनोज बाजपेयी : यश और प्रसिद्धि... नीलेश अगर आप अपने आप को गंभीरता से लेते हैं, तो बहुत जरूरी है कि यश और प्रसिद्धि को उतना क्षणिक मानें आप। ये बात जितनी जल्दी समझ में आ जाये उतना ही अच्छा है। क्यूँकि इसके बाद क्या? इसके बाद क्या, ये सवाल हमेशा बना रहेगा कि इसके बाद क्या?

अगर आप जायेंगे आज के सबसे बड़े अमीर में से एक हैं हमारे मुकेश जी! आप उनसे भी पूछेंगे तो वो कहेंगे- भई अब अगला क्या? वो अगले की तलाश में हैं।

सबसे ज्यादा इस पूरे हिन्दुस्तान ने अमिताभ बच्चन जी से ज्यादा प्रसिद्ध अभिनेता देखा नहीं है। आप उनके भी जाके पूछेंगे तो उनको भी ये सारा अर्थहीन लगेगा, तो जितना जल्दी बेहतर है समझ लें अपनी मानसिक बेहतरी के लिये।

नीलेश मिसरा : तो गाँव से रिश्ता कैसे आपने अभी तक जोड़ा ? जाते हैं?

मनोज बाजपेयी : बहुत ज्यादा! और बीच में लंबा गायब कुछ इसलिये हो गया क्योंकि मैं कुछ एक चीज़ों में लगा रहा, लेकिन गाँव और गाँव के जीवन पर नियंत्रण है मेरा पूरे तरीके से।

नीलेश मिसरा : कहाँ है आपका गाँव?

मनोज बाजपेयी : बेलवा गाँव है, इस दुनिया का सबसे खूबसूरत गाँव। और मैं ये जब कहता हूँ, तो कतई ये मत मानियेगा कि चूँकि मेरा जन्म वहाँ पे हुआ है इसलिए।

आप मुझे बताइये मैं आपको दृश्य खींचता हूँ, आप भी गाँव में रहते हैं। एक दृश्य खींचता हूँ आपको- आप सुबह घर के बाहर निकलते हैं, और सामने आपको पहाड़ी दिखाई देती है, हिमालय रेंज की।




नीलेश मिसरा: (आश्चर्य से) अच्छा... !

मनोज बाजपेयी : और सर्दियों के दिनों में वो हिमालय के ऊपर बर्फ दिखाई देता है, और सूरज की किरणें उस बर्फ से टकराती हैं, तो उसका जो रिफ्लेक्शन है जो आपकी तरफ़ आ रहा है। (नीलेश : वाह)

ठीक है, सर्दियों में इतनी सर्दी कि आपकी हड्डी तक जमा दे और गर्मियों में इतनी गर्मी कि बाहर निकले तो लू से बुख़ार हो जाये, या आपकी मौत भी हो जाये। ठीक है।

ठीक हमारे गाँव से चार किलोमीटर दूर पर एक घना जंगल है, जिसे अब टाइगर रिजर्व में तब्दील कर दिया गया है, जहाँ पर 32 बाघ हैं। अभी मैं गया था तो रेंजर साहब ने जो है, हमको पूरी संख्या बताई। लेकिन वो आप गिन नहीं पायेंगे कभी निश्चित संख्या क्योंकि हमारे यहाँ पे नेपाल और इंडिया का बॉर्डर पोरस है, तो समझ नहीं आता है कि बत्तीस हैं कि 132 हैं, वो दोनों तरफ जो है विचरते रहते हैं।

और मेरा गाँव पहाड़ जंगल छोड़ने के बाद इतनी हरियाली होती है कि धान ऐसे बस बिखरा के फेंक दीजिये और कोई भी खाद मत डालिये, वो उग आयेगा। वो अपनी मर्जी से उगेगा। इतनी उपजाऊ धरती है। मेरे घर के एक तरफ़ नदी है और दूसरी तरफ़ नह़र है।

नीलेश मिसरा: वाह... क्या नाम है नदी का?

मनोज बाजपेयी : नदी का नाम बोलूँगा तो सुनकर हँस देंगे आप - 'हड़बड़ुआ' बोलते हैं! (दोनों ज़ोर से हँसते हैं)

नीलेश मिसरा : हड़बड़ुआ... वाह...

मनोज बाजपेयी : हड़बड़-हड़बड़ करके आती है, क्योंकि पहाड़ी नदी है, इसलिए उसका हड़बड़ुआ नाम पड़ गया। अचानक सूख जाती है, अचानक भयंकर बाढ़ आ जाती है, क्यूँकि उधर से पानी खोल देते हैं।

नीलेश मिसरा : जी... जी... अच्छा, वाह!

बचपन कैसा था ?

मनोज बाजपेयी : बहुत अच्छा था, नदी और नहर में नहाते हुये, आज भी जब स्वीमिंग पूल में जाता हूँ तो मेरी बेटी शर्मिंदा हो जाती है। कहती है कि - पापा, कृपया आप तैरिये मत, आप पागलों/दीवानों की तरह तैरते हैं।

नीलेश मिसरा : (हँसते हुए) ऐसा क्यों?

मनोज बाजपेयी : क्यूँ कि नदी, नहर में हम लोग तैरने वाले लोग हैं, तैरते कम हैं और हाथ-पाँव ज्यादा मारते हैं। (ठहाके)

हमने भई तैराकी के लिये तैरना नहीं सीखा था, हमने नदी पार करने के लिये तैरना सीखा था, है ना, तो हमारी अंग्रेज बेटी को कैसे समझाऊँ इस बात को?

(प्रस्तुति: प्रीति राघव)



  

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