राजा रवि वर्मा: जिसने सबसे पहले देवी-देवताओं को दिया था रंग-रूप

आज हम जो नीले रंग के कृष्ण को देखते हैं, सबसे पहले सांवले रंग को नीला रंग उन्होंने ही दिया था। कहा जाता है कि उन्होंने ही हिन्दू देवियों को सबसे दक्षिण भारतीय कांजीवरम साड़ी और गहंनों के साथ चित्रित किया था।

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राजा रवि वर्मा: जिसने सबसे पहले देवी-देवताओं को दिया था रंग-रूप

राजा रवि वर्मा, एक ऐसे चित्रकार जिससे पश्चिमी कला के साथ भारतीय कला मिलाकर ऐसी पेंटिंग बनायी कि उनकी गिनती आज भी दुनिया के मशहूर चित्रकारों में होती है।



























आज हम जो नीले रंग के कृष्ण को देखते हैं, सबसे पहले सांवले रंग को नीला रंग उन्होंने ही दिया था। कहा जाता है कि उन्होंने ही हिन्दू देवियों को सबसे दक्षिण भारतीय कांजीवरम साड़ी और गंहनों के साथ चित्रित किया था।

























राजा रवि वर्मा, एक ऐसे चित्रकार जिन्होंने यूरोपियन तकनीकों के साथ भारतीय संवेदनाओं के मिलकार ऐसी पेंटिंग बनाईं कि वह इतिहास के महान चित्रकारों में शामिल हो गए। उन्होंने भारतीय सौंदर्य और कला परंपरा को यूरोपियन तकनीको में शामिल करके उन्होंने ऐसी पेटिंग्स बनाईं की वह यूरोपियन कला के एक नए आविष्कार के रूप में जानी जाने लगीं।





























उन्होंने पत्थर के छापों से ऐसी पेंटिंग जिससे आम जन को भी आसानी से उससे जुड़ गया और वह भी इस कला की ओर आकर्षित होने लगा। लोग अपने घरों पर पत्थर के छापों का उपयोग करके चित्र बनाने लगे। उनके चित्रों की सबसे बड़ी विशेषता थी हिंदू महाकाव्यों और धर्मग्रंथों पर बनाए गए उनके चित्र जिससे लोग उनकी पेटिंग के साथ-साथ उनसे भी जुड़ने लगे।














राजा रवि वर्मा का जन्म 29 अप्रैल 1848 को केरल के शहर किलिमानूर में हुआ था। उन्हें बचपन से ही चित्रकारी का इतना शौक था कि अपने घर की दीवारों पर ही उन्होंने चित्रकारी शुरू कर दी। इन चित्रों में वे अपने दैनिक जीवन में घटने वाली घटनाओं को आधार बनाते थे। उन्हें एक बड़ा चित्रकार बनाने में उनके चाचा राजा वर्मा का अहम योगदान था।



























चित्रकारी की प्रारम्भिक शिक्षा उन्हें उनके चाचा ने ही दी थी। जब राजा रवि वर्मा 14 साल के थे तब उनके चाचा उन्हें तिरुवनंतपुरम के राजमहल में ले गए जहां उन्हें तैल चित्र यानि ऑयल पेटिंग की शिक्षा दी गई। 1868 में राजा रवि वर्मा थियडोर जेनसन नाम के डच चित्रकार से मिले और उनसे पाश्चात्य कला व ऑयल पेटिंग की शिक्षा ग्रहण की। इसके बाद उन्होंने मैसूर्, बड़ौदा व देश के कई अन्य शहरों में जाकर भी उन्होंने चित्रकारी के गुण सीखे। शुरुआत में उन्होंने तंजौर कला सीखी और यूरोपियन कला में महारत हासिल की।



























1904 में, ब्रिटिश सम्राट की ओर से वाइसराय लॉर्ड कर्जन ने वर्मा को कैसर-ए-हिंद गोल्ड मेडल प्रदान किया। 2 अक्टूबर 1806 में 58 वर्ष की आयु में उनका देहांत हो गया लेकिन इतने कम समय में उनके द्वारा बनाए गए चित्र आज भी भारतीय चित्रकारी में सर्वोच्च स्थान रखते हैं।




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