यादें: पाकिस्तान के एबटाबाद में जन्में फिल्मकार सागर सरहदी का पूरा नाम गंगा सागर तलवार था

सिलसिला, चांदनी, कभी-कभी, रंग,नूरी जैसी बेहतरीन फिल्मों के डॉयलाग और स्क्रीन प्ले लिखने वाले फिल्मकार सागर सरहदी का 22 मार्च 2021 को निधन हो गया। वो 88 साल के थे।

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यादें: पाकिस्तान के एबटाबाद में जन्में फिल्मकार सागर सरहदी का पूरा नाम गंगा सागर तलवार था

दिग्गज फिल्म लेखक और फिल्मकार सागर सरहदी ने 22 मार्च 2021 को मुंबई में अपने घर पर आखिरी सांस ली। फिल्म इंडस्ट्री के बेहतरीन कहानीकारों में गिने जाने वाले सरहदी काफी दिनों से बीमार चल रहे थे। सागर सरहदी का जन्म पाकिस्तान के एबटाबाद शहर से करीब 25 किलोमीटर दूर बफा गाँव में 11 मई 1933 में हुआ। भारत-पाकिस्तान बटवारे के समय वो भारत आ गए। सागर सरहदी का पूरा नाम गंगा सागर तलवार है। सागर सरहदी उर्दू में लिखते थे। उन्हें ढेर सारी किताबें पढ़ने का शौक था।

साल 2015 में गाँव कनेक्शन के पत्रकार प्रवीण कुमार मौर्य से सागर लंबी वार्ता की थी, पेश हैं उसके कुछ अंश।

आपको लिखने की प्रेरणा कहां से मिली?

मैं पाकिस्तान के एक गाँव में पैदा हुआ और शरणार्थी बना दिया गया और मुझे अपना गाँव छोडऩा पड़ा। इसका मुझे बेहद दुख था, मैं तनाव में था, गुस्सा था कि कौन सी ताकत है, जो यह तय करती है आप वहां नहीं रह सकते। फिर यही सब मैं छोटी कहानियों में लिखने लगा। अमृतसर की 'पगडंडी' पत्रिका में मेरी पहली कहानी छपी, उर्दू में। मेरे दोस्त ने पढ़ी और बोला आगे चलकर सागर बड़ा लेखक बनेगा।

नाटक (थिएटर) में कैसे आए?

जिस गाँव में मैं पैदा हुआ था, उसमें हर साल दशहरे के दिनों में नाटक और रामलीला किया करते थे। मेरे बड़े भाई अभिमन्यु का रोल करते थे और हम बच्चों काम बस तख्त लगाना, कीलें ठोंकना, सामान लाना-ले जाना होता था। वो सब जो मैं देखता था, एक्टरों के बोलने का तरीका, उनकी एक्टिंग सब कुछ मेरे दिमाग में चलता रहता था। बुनियादी तौर पर मेरा थिएटर से जो वास्ता पड़ा वो वही रामलीला और नाटक देखकर। इसी नाटक से मुझे फिल्मों का रास्ता मिला। यशजी की फिल्म कभी-कभी लिखी, जिसके लिए मुझे फिल्मफेयर पुरस्कार मिला।

पहले की सिनेमा और आज की सिनेमा में कुछ बदलाव हुआ?

वो एक आइडियल (आदर्श) दौर था। हम विमल रॉय, महबूब साहब, गुरुदत्त साहब, वी शांताराम की फिल्में देखते थे। मैं बताऊ मैंने महबूब साहब की फिल्म 'मदर इंडिया' देखी तो मेरे अन्दर एक आग भर गई। मुझे समझ में नहीं आ रहा था मैं क्या करूं, मैंने दस-पंद्रह किमी पैदल चलकर खुद को शांत किया। फिर मैं बोला, हे भगवान फिल्म क्या होती हैं? कहा जाता है महबूब साहब अनपढ़ थे, दस्तखत नहीं कर सकते थे वो।

फिल्मों पर टेक्नोलॉजी का कितना असर पड़ा?

आज आपके पास फोन, इंटरनेट है, आप डाउनलोड कर लीजिए और फिल्म देख लीजिए। दूसरी बात यह कि आप सिनेमा नहीं जाएंगे, आप लाइन नहीं लगाएंगे, टिकट नहीं खरीदेंगे। आप अपने फोन पर फिल्म डाउनलोड कर देख लेंगे। पहले देखता था लोग फिल्म देखने के लिए लम्बी-लम्बी लाइनें लगाते थे, आज वो भीड़ नहीं दिखती। लोग सिनेमा हाल नहीं जाते हैं तो वो लोग भी टिकट का दाम थोड़ा ज्यादा रखते है। दो सौ, तीन सौ रखते है, नहीं तो वो सिनेमाहाल का रखरखाव नहीं कर पाएं। और इस तरह हमने मिलजुल कर सिनेमा को बर्बाद किया है। इसके लिए हम सब जिम्मेदार हैं।

आपने कई किताबें भी लिखी है?

मेरी एक किताब उर्दू में छपी हुई है, जिसमे छह एकांकी हैं, उसका नाम है 'ख्याल की दस्तक'। उसके अलावा एक और 'भगत सिंह की वापसी' उर्दू और हिंदी में छपी है। इसके अलावा 'तन्हाई' भी है। साथ ही और कई किताबें जो अभी छपी नहीं हैं।

समाज के कई नामचीन व्यक्ति असहिष्णुता के खिलाफ पुरस्कार लौटा रहे है ?

यह एक बहुत ही साधारण सी बात है। मैं मानता हूं प्रेमचंद से लेकर बेचारे सागर सरहदी तक, लेखक जो है वो एक्टिविस्ट (कार्यकर्ता) है। अगर समाज में आपकी इनरोलमेंट नहीं है तो आप राइटर नहीं है। अगर आप खामोश है तो आप राइटर नहीं है। प्रेमचंद की कहानियों में आप देखे, दशा या दुर्दशा की बानगी होती थी। अगर हिन्दू-मुस्लिम के अन्दर भी फर्क बताया जाएगा, अगर इकलाख को मारा जाएगा तो एक लेखक का काम है कि वो इससे निस्छेद करे, बगावत करे, लिखे, विरोध करें।

आप अभी गाँव से कितना जुड़े हुए हैं?

मैं 10 फीसदी शहर और 90 फीसदी अभी भी गाँव से जुड़ा हुआ हूं। और मैं माफ नहीं करता खुद को। मुझे गाँव बहुत याद आता है। मुझे एक-एक पत्थर याद है, बफ़ा के। कुश्ती करते थे, बंटे खेलते थे, रीठे खेलते थे सब याद है। ये सब मुझे भूला नहीं और मैं भूलना भी नहीं चाहूँगा।

आज के गाँव में कितना बदलाव हुआ है?

अब तो गाँव बहुत एडवांस्ड हो गए है। इलेक्ट्रिसिटी हो गई है, खाना-पीना अच्छा है, दूर-दूर तक बसे जाती है। बहुत अच्छा लगता है अब तो, बहुत बदल गए है गाँव।



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