सलीम ख़ान: मुझे लगता है मैंने उम्मीद से ज़्यादा पाया है

गाँव कनेक्शनगाँव कनेक्शन   17 April 2019 12:09 PM GMT

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सलीम ख़ान: मुझे लगता है मैंने उम्मीद से ज़्यादा पाया है

सलीम ख़ान बॉलीवुड के जाने माने फिल्म राइटर हैं, जिन्होंने 70 और 80 के दशक की कई मशहूर फिल्में लिखीं। इन फिल्मों में शोले, डॉन, दोस्ताना, त्रिशूल और मिस्टर इंडिया शामिल हैं। हाल ही में मशहूर स्टोरीटेलर नीलेश मिसरा की इंटरव्यू सीरीज़ 'द स्लो इंटरव्यू विद नीलेश मिसरा' में सलीम ख़ान मेहमान बनकर पहुंचे। इंटरव्यू में, सलीम ख़ान उन्होंने अपनी ज़िंदगी के तमाम अनछुए पहलुओं पर बात की।

मैं आपसे जब भी मिलता हूं सलीम साहब, एक तो बहुत अच्छा लगता है क्योंकि आप सच में एक अच्छे इंसान हैं, ग्रैंडफादर की तरह, कलीग की तरह ... ऐसे दोस्त की तरह जैसा हर कोई चाहेगा कि उसके पास हो। आप अपने आपको 83 साल की उम्र में कैसे देखते है?

मुझे लगता है कि मैं उन लोगों में से हूं जिन्होंने उम्मीद से ज़्यादा पाया है। मैं आपको एक उदाहरण देता हूं, मैंने बहुत संघर्ष के समय में कई मकान बदले। मैं तीन साल गेस्ट हाउस में रहा, फिर एक गैराज को ही कॉटेज में बदल दिया, फिर इधर उधर छोटे मकानों में रहा। 'जंजीर' फिल्म के बाद जब मैं इस फ्लैट में आया, तब मेरे ऐसे हालत थे कि मैं पैंट शर्ट में आ सकता था। फिर जब मैं इस मकान में आया, तो सामने देखा कि कभी सामने बिल्डिंग नहीं बन सकती। पीछे देखा, अच्छी जगह लगी। नीचे गार्डन है। तब मैंने डिसाइड किया कि ये मेरा आख़िरी फ्लैट होगा। 1973 से मैं यहाँ हूं। कई बार सलमान ने कहा पेंटहाउस ले लीजिये, बंगला ले लीजिये, तब मैंने कहा मैं यहां खुश हूं। मेरी वजह से वो (सलमान ख़ान) भी यहां है। हालांकि उसे काफी परेशानी और तक़लीफ होती है, छोटा सा फ्लैट है, आधे में उसका जिम है, आधे में वो खुद रहता है। आपको जानकर हैरानी होगी कि कोई इतने छोटे से फ्लैट में रहता है। उसके पास टोटल एरिया 1000 फुट है, उसी में उसके सारे कपडे हैं, जूते हैं। थोड़ा सा मुझे लगता है कि मैं अगर थोड़ी बड़ी जगह चला जाऊं तो उसे आराम रहेगा, पर मेरा यहां से जाने को दिल नहीं चाहता। आई विल फील आउट ऑफ प्लेस। मुझे ये जगह छोड़ने का मन नहीं करता। मेरा मतलब, मैं ज़िंदगी के लिए अपने नज़रिए की बात कर रहा हूं।

अपने तीनों बेटों सलमान, सुहैल और अरबाज़ खान के साथ सलीम खान। फोटो - ट्विटर

एक तरफ देखें तो एक बेटा जो कितनी ही शानोशौकत में रह सकता है एक बड़ा घर खरीद सकता है लेकिन पिता के साथ रहना है। फैमिली वैल्यूज़ हैं। आज के वक्त में नई जनरेशन में ऐसा काफी कम दिखता है। और दूसरी तरफ जब आप अख़बारों में पढ़ते होंगे कोई छवि या कोई गॉसिप लिख दी तो ... फिल्म जर्नलिज्म का मिजाज़ ही अलग है। वो नार्मल जर्नलिज्म नहीं है, वो हवाबाजी ज़्यादा होती है। यह भी तकलीफदेह रहा होगा शुरुआत में।

जैसे अभी वो (सलमान ख़ान) 18 दिन जेल में रहे। लॉ में ऐसा कोई प्रोविजन ही नहीं है कि एक बच्चे को अगर सज़ा होती है तो उसकी माँ को कितनी तकलीफ होती होगी। उसने क्या बिगाड़ा है? उसने क्या किया है? इसका लॉ में कोई प्रोविज़न नहीं है कि माँ को तकलीफ हो रही है, तो यह सजा नहीं होनी चाहिए। हम लोग पानी पीते वक़्त गिल्टी फील करते थे। एसी चलाते वक़्त गिल्टी महसूस करते थे। गिल्टी मतलब तकलीफ होती थी कि वो कैसे हालत में सो रहा होगा। उसने बताया एक जगह होती है, उसमे एक दरी बिछा देते हैं, एक बाल्टी रख देते हैं, पानी रख देते हैं, पंखा वंखा नहीं है, तो तकलीफ तो होती थी।

आपने अपने कॉलम में लिखा था 'कैदी नंबर 343'। इसका क्या मतलब है?

जब मैं आर्टिकल लिख रहा था, मैं जोधपुर गया था इससे (सलमान ख़ान से) मिलने जेल में। वहां ऐसे कह रहे थे 343 को लाना। वो आए। दाढ़ी बढ़ी हुई, बाल बिखरे हुए। नाम कैसे अंको में बदल जाता है। तो वो थोड़ी देर बैठे। मैंने उनकी माँ से बोल दिया था कि रोना मत। मगर वो कहां कंट्रोल में तो होते नहीं हैं, वो रोने लगीं। उसको इस बात की तकलीफ है कि मैंने अपने माँ बाप को बहुत तकलीफ पहुचाई है।

युवा सलमान खान के साथ पिता सलीम खान। फोटो- ट्विटर

मैं आपको इंदौर वापस ले आना चाहता हूँ।

परमानेंटली तो नहीं?

नहीं-नहीं, अभी तो अपने बोला यह आपका आखरी फ्लैट है। इंदौर में आपका 12 कमरों का एक मकान था। वहां ले चलिए मुझे, कैसा था वो वक़्त?

बहुत अच्छा था वो वक्त। साथ ही ट्रेजेडी भी हुई। मैं फैमिली में सबसे छोटा था। जब मैं 9 साल का था तब मेरी माँ की डेथ हुई। 5 साल से 9 साल तक मुझे उनसे मिलने की मनाही थी। उस ज़माने में टीबी का इलाज नहीं था, बहुत कन्टेजिअस थी टी.बी.। डॉक्टर भी आता था मुंह में कपड़ा बांध के आता था। उनके लिए अलग कंपाउंड था, उसमे एक छोटा सा कॉटेज बना लिया था। उसी में उनका खाना जाता था। उनके बर्तन अलग थे और वो चार महीने के लिए नैनीताल में भोवाली जाती थी। उसके बाद बारिश सर्दी में वो इंदौर आती थी। उस वक्त, इस बीमारी की चौथी स्टेज पर आदमी मरता था। उस बीमारी में मरना तो तय था। इट वॉज़ लाइक मूविंग विद अ टाइम बम। इस बीमारी को कहते थे 'द डिज़ीज़ विच कंज्यूम्स यू टू डेथ'। इसकी एक कहानी है कि जिन्ना साहब को अपनी बीमारी की स्टेज पता करनी थी ताकि वो पार्टीशन टाल सकें, पर डॉक्टर ने मना कर दिया क्योंकि वो उनके प्रोफेशनल एथिक्स के ख़िलाफ़ था। एक मर्तबा वो (मां) धूप में बैठी थीं और मैं खेल रहा था। उन्होंने पूछा जो काले स्वेटर में बच्चा बैठा है वो कौन है? मेड ने कहा वो आपका सबसे छोटा बच्चा है। उन्होंने ने कहा उसे थोड़ा पास बुलाओ, मुझे बुलाया गया, मैं पास गया, जब थोड़ा और पास गया, तो उन्होंने रोक दिया, बोली वहीं खड़े रहो। उनका चेहरा पथरा गया था, बस आंसू बह रहे थे।


पर उनके साथ आपका इतना जुड़ाव तो नहीं था?

पर माँ तो थी। बचपन के पांच साल तो उन्ही के साथ गुज़ारे थे। आखिर के चार साल मिलना बंद हो गया था। मेरी मां की मौत के बाद मेरे पिता मेरे क़रीब हुए। वो मुझे किसी चीज़ के लिए इनकार नहीं करते थे। क्रिकेट का बहुत शौक था। बैट खरीदना है, बॉल खरीदना है। मुझे साथ लेकर जाते थे और दिलाते थे। उसके एक साल बाद उनकी भी मौत हो गयी। जब मैं अपना मेट्रिक का एग्जाम देने वाला था, उसी टाइम हुई। अपनी मां की मौत से पहले तक मैं अपने पिता से बहुत डरता था। फिर उनका एटीट्यूट बदला। तब मैंने फैसला लिया कि मेरे बच्चे मुझसे नहीं डरेंगे। मेरा मेरे बच्चों के साथ फ्रेंडली रिलेशनशिप है, वो अपनी इमोशनल लाइफ मुझसे डिस्कस करते है, मैं उन्हें राय भी देता हूँ। वो भी जानते हैं, इस बात को कि अनुभव का कोई विकल्प नहीं है। उनके पास ज़्यादा जानकारी हो सकती है, वो ज़्यादा होशियार हो सकते हैं, मुझसे ज्यादा पढ़ लिख सकते हैं (हालांकि मुझसे ज्यादा पढ़े लिखे नहीं है), मगर वो जानते हैं कि अनुभव का कोई विकल्प नहीं हो सकता।

जब मैं इस बड़े शहर में रहता था, तो यह कम दिखता था कि इंसानी रिश्ते वैसे ही हों जैसे कि एक छोटे शहर में एक परिवार मिलकर रहता है। यह कैसे बचा कर रखा आपने? खासकर इस मुकाम पर?

इसके लिए भी एक छोटी सी कहानी है। अभी 3 साल पहले की बात है, अरबाज़ साहब चले गए टैटू बनवाने। मुझे फ़ोन किया कि डैडी मैं यहाँ टैटू की शॉप पर हूँ, टैटू लिखवाने आया हूँ, मैंने पूछा किधर? बोले शोल्डर पर। तो क्या लिखवाऊं? मैंने कहा, तुम वहां पहुच गए हो और सोच कर नहीं गए? मुझे हैरानी हुई कि वहां तक पहुंच गए और सोच कर नहीं गए कि क्या लिखवाना है। तो बोले, मैं ऐसे ही आ गया और सोचा फिर आपसे पूछता हूँ। मैंने कहा, लिखो "लव ईच अदर ओर पेरिश"। तो उनके शोल्डर पर लिखा हुआ है।

झगड़े होते हैं, पर आख़िरकार प्यार ही जीतता है। अच्छाई और समझदारी एक साथ मुश्किल से ही मिलती है। आमतौर पर समझदार आदमी के बदमाश हो जाने के ज़्यादा चांस होते हैं। बेवकूफ आदमी बदमाश नहीं बन सकता। बदमाश इंसान बनने के लिए थोड़ा ज़्यादा होशियार होना पड़ता है। जैसे कि हुनर और अनुशासन एक साथ मिलना मुश्किल है, जो हुनरमंद होता है वो ये सोचकर आराम से रहता है कि ये काम तो मैं कर ही लूंगा।

अपने परिवार के साथ सलीम खान। फोटो - ट्विटर

पैग़ंबर मोहम्मद से किसी ने पूछा कि नमाज़, रोज़े, हज, रमज़ान इन सब में से सबसे बड़ी इबादत क्या है? तो उन्होंने कहा सबसे बड़ी इबादत है मोहब्बत, फिर पूछा गया सबसे बड़ी चैरिटी क्या है? उन्होंने कहा सबसे बड़ी चैरिटी है माफ़ करना। जिसको यह जिहाद कहते हैं, वो जिहाद नहीं फसाद है। जिहाद तो अपने अन्दर होता है। एक एल्कोहॉलिक, ड्रग एडिक्ट अपनी आदतों को छोड़ रहा है, वो है जिहाद, अपने आपको बेहतर करने की कोशिश कर रहा है, अपनी कमजोरी को एक्सेप्ट करना, फिर उसको सुधारना। एक्सेप्टेंस इस द फर्स्ट स्टेप टुवर्ड्स इम्प्रूवमेंट। अगर आप अपनी कमजोरी को एक्सेप्ट कर लें, तो मुमकिन है कि आप ठीक हो जाएं।

हमारे एक बहुत करीबी दोस्त हैं, उनका बेटा ड्रग एडिक्ट था। रात को 11:30 बजे मेरे पास आया, बोला अंकल मुझे 200 रूपए चाहिए। मैंने कहा मुझे पता है तुम किसलिए 200 रूपए मांग रहे हो, तुम्हारे मम्मी पापा को पता लगेगा, तो क्या कहेंगे वो कि हमारे बेटे को बढ़ावा दिया, रूपए दिए, उनको कैसा लगेगा? वो बोला आई अंडरस्टैंड, और चला गया। मैंने दूसरे दिन सुबह उनकी माँ को फ़ोन किया, मैंने कहा आपका बेटा इससे निकल आएगा। वो बोली मुझे तो उम्मीद ही नहीं है, मैंने कहा 100% निकल आएगा, उन्होंने कहा आप कैसे कह रहे हो यह? मैंने कहा वो रात को आया था, मुझसे झूठ बोल सकता था कि टैक्सी के लिए पैसे चाहिए या कुछ ... लेकिन उसने माना कि ये उसकी दिक्कत है। अब उसकी ये आदत बिलकुल छूट गई है।

बम्बई में जब नामी लोगों के पास से सक्सेस चली जाती है, तब क्या वो गुमनामी हैंडल कर पाते हैं?

देखिए सही करैक्टर का पता तो उसके फ़ेलियर्स को एक्सेप्ट करने से लगता है। एक हॉलीवुड के डायरेक्टर का एक स्टेटमेंट है, असफलता नहीं, सफलता ने लोगों को ज़्यादा बर्बाद किया है। बहुत से ऐसे उदाहरण हैं, जहां लोग असफलता को संभाल नहीं पाए और ख़ुदकुशी कर ली या दारू पीनी शुरू कर दी। लेकिन अगर आप उसे ज़िंदगी का एक हिस्सा मानें, उसे एक्सेप्ट करें, सोचें कि मुझे भुगतना पड़ेगा।

युवा सलीम खान। फोटो- ट्विटर

बट इफ यू टेक इट एस अ पार्ट ऑफ लाइफ, उसे एक्सेप्ट करना है, भुगतना है। मेरा नसीब में बहुत यक़ीन है, आपको अपना नसीब स्वीकार करना पड़ेगा। मैं आपको उदाहरण देता हूं। जब मेरे पास काम नहीं था चार साल। एक स्टार ने मुझे बुलाया कि आपके लिए कुछ करते हैं। कल आना, नाश्ता साथ में करेंगे। सुबह जल्दी नाश्ते के वक्त जाना था, मेरा ड्राइवर नहीं आया था, मैंने सोहेल की साइकिल ली और चला गया। मैं जब पंहुचा तो उन्होंने मेंरे गले में हाथ डाला और बोले फिक्र मत करो, मैंने कहा आई बिलीव इन डेस्टिनी, जो मेरे हिस्से में है वो मुझसे कोई चीन नहीं सकता और जो नहीं है वो कोई दे नहीं सकता। मैं बाहर आया, तो वो मेरे साथ बहार आए। कहने लगे गाड़ी? मैंने कहा गाड़ी से नहीं, मैं साइकिल से आया था।

(हंसते हुए) उनको इतने सालों में साइकिल पर सीऑफ करने का मौका नहीं मिला था। अभी तक ये था कि गाड़ी का दरवाज़ा खोलो दरवाज़ा बंद करो। हाथ हिलाओ बाय-बाय करो। गाड़ी चली जाए फिर आप घर में जाओ। साइकिल देखी एंड ही वेंट इनसाइड। आपको तो छोड़ो मतलब दूसरों को भी नहीं पता कि इनसे कैसे डील करें। साइकिल पर आ गया, इसको क्या डराएंगे। डराते इस बात से हैं न कि कुर्सी चली जाएगी, पॉज़िशन छिनने का डर होता है, अब यह आदमी खुद ही साइकिल पर आगया इसे क्या डराएंगे। एक वक़्त था यहाँ मर्सिडीज़ थी, एक वक़्त है यहाँ साइकिल है। सो यू हैव टू एक्सेप्ट इट।


फादर पुलिस में थे?

हाँ, डीआईजी थे। 32 साल की सर्विस थी, टाइटल भी मिला था दिलेर-ए-जंग का।

एक्शन भी देखा आपने? उस समय तो डाकू वाकू वाला युग था …

क्राइम इतना ज़्यादा नहीं होते थे, पुलिस का डर था, जो अब नहीं है। उस ज़माने में डाकू थे, स्मगलर्स नहीं थे, स्मगलिंग कोस्टल इलाक़ों की प्रॉब्लम थी। उस ज़माने में डाकुओं से बात कर लेते थे जाकर, बस इतना कह दिया जाता था कि हथियार लेकर मत आना। एक मर्तबा एक डाकू से मिले भी और शोले में उसके बहुत मटेरियल भी हैं।

एक बार कोई जलसा, या कोई पार्टी थी। जब आप पार्किंग में थे, तो कोई आपके पास आया और पूछा कि फिल्मों में काम करोगे क्या?

हाँ, इंदौर में एक शादी थी। वहां सभी प्रोड्यूसर्स थे। के. अमरनाथ साहब थे, जिन्होंने 'लैला मजनू' फिल्म बनाई थी शम्मी कपूर साहब के साथ। 'बड़ा भाई' पिक्चर बनाई थी अजीत साहब के साथ। ताराचंद बड़जात्या के बेटे की शादी थी। बहुत से प्रॉड्यूसर भी वहां गए थे। वहां उस ज़माने में एक ही होटल अच्छा था, लैंटर्न होटल। पूरी बारात वहीं ठहरी थी। वहां अमरनाथ साहब ने मुझे देखा और किसी से पूछा कि ये लड़का कौन है, तो बताया एक पुलिस ऑफिसर हैं उनका बेटा है। उन्होंने मुझे बुलाया गया, पूछा फिल्मो में काम करोगे? मैंने कहा, कभी किया नहीं है। तो उन्होंने मज़ाक में कहा, वो तो दिलीप कुमार ने भी नहीं किया था।

जावेद अख्तर के साथ सलीम खान। फोटो - ट्विटर

किसी थियेटर में या किसी स्कूल में मुझे वहां देखा अच्छी तरीके से। बात वात की। मुझे पैसे दिए, कहा मुंबई आ जाओ वहां तुम्हारा टेस्ट करें। इससे पहले दो तीन ऑफर आए थे, मगर जब उन्होंने पैसे दिए तो लगा कुछ सीरियस है। तब मैं बीए कर चुका था। सिर्फ क्रिकेट खेलने के लिए मैंने एमए ज्वाइन किया था, कि कॉलेज की तरफ से खेलता रहूँगा। एमए करना कोई टारगेट नहीं था।

मैं फिर गया बम्बई। उन्होंने टेस्ट लिया। 500 रूपए महीने पर जॉब दे दी, बोला अगली फिल्म में लेंगे। 1959 में 500 रूपए बहुत होते थे। मनोज कुमार, धर्मेन्द्र, जॉय मुखर्जी, फ़िरोज़ खान ये सब उसी ज़माने के हैं, मेरे साथ के हैं। उनकी एक फिल्म बन रही थी 'कल हमारा है', वो बहुत बुरी तरह फ्लॉप हुई। उसके बाद वो एक न्यूकमर को लेके फिल्म बनाने की पोजीशन में नहीं थे, तो उन्होंने मुझे साइड रोले दिया। तो मैं छोटे मोटे रोल करता रहा, मॉडलिंग करता रहा। इज़्ज़त के साथ ठीक ठाक कमा रहा था। फिर एक दिन मैंने फैसला लिया कि मैं एक्टिंग छोड़ दूंगा। मैंने महसूस किया कि मुझमें एक्टिंग की नॉलेज और आर्ट है तो, लेकिन मेरे पास वो प्रॉजेक्शन नहीं है जो होना चाहिए। बॉलीवुड में इमेज पर काम होता है, इंसान पर नहीं। मेरी इमेज वैसी नहीं थी। मैं उसका एक उदाहरण देता हूं। अमिताभ बच्चन बहुत ताकतवर इंसान नहीं है, बीमार भी बहुत रहे हैं। लेकिन जब वो बंदूक उठाते हैं तो लगता है कि ये उनकी ही है। लेकिन कोई दूसरा एक्टर उठाता है तो डर लगता है कि चल न जाए। तो जो स्क्रीन प्रॉजेक्शन है वो बहुत ज़रूरी चीज़ है। वो रेखा में है, अमिताभ में है, हेलन में था। मुझे इस बात का एहसास हो गया था कि वो मेरे अंदर नहीं है। करने के लिए वो काम कर सकता था, पर उसमें ज़्यादा क़ामयाब नहीं हो पाता।

फिल्म निर्देशक महेश भट्ट और सलमान खान के साथ सलीम खान। फोटो- ट्विटर

जब हम पिछली बार मिले थे तो आपने एक बड़ी खूबसूरत बात बताई थी, ये बात मैं अक्सर लोगों से कहता भी हूं। आत्मनिरिक्षण करें। क्या मैं इस काम में अच्छा निकलूंगा? इमानदारी वाला जवाब आप जानते हैं, तो वो करें जिसमें आप बेस्ट हैं।

मैं क्रिकेट खेलता था, मेरा सपना क्रिकेट था। सोते जागते बस क्रिकेट। मैं बैट्समैन था। एक मर्तबा मैंने सलीम दुर्रानी को क्रिकेट खेलते देखा, वो प्रैक्टिस इंदौर में करता था और खेलता राजस्थान से था । हमारे जानने वालों में से था, दोस्त भी था। अभी भी बहुत अच्छी तरह से मिलता है। मैंने उन्हें खेलते हुए देखा और मुझे ऐसा लगा कि ऐसा तो मैं कभी भी नहीं खेल पाउंगा, तो मैंने क्रिकेट छोड़ दिया। एक दफा मुश्ताक़ अली साहब ने मुझसे पूछा भी कि तुमने क्रिकेट खेलना छोड़ क्यों दिया? मैंने कहा सलीम बुर्रानी को खेलते देख लिया था, तबसे छोड़ दिया खेलना। उस समय मैंने फ्लाइंग की। करीब 100 घंटे की फ्लाइंग की। उस फ्लाइंग में मैंने एक फ़ोर्स लैंडिंग भी की। लैंडिंग से पहले प्लेन बंद हो गया था। पूरा राउंड लेकर कर नहीं सकते थे, ग्लाइड होता है वो, 60-65 की स्पीड में ग्लाइड होता है, उसकी स्ट्रॉलिंग स्पीड है 45 के करीब। उससे कम होगा तो सिंक हो जाएगा। मैंने सोचा उससे आगे जा नहीं पाऊंगा, तो मैंने उसे अक्रॉस द रनवे लैंड किया। मगर फ्लाइंग में आप होशियारी नहीं दिखा सकते, क्योंकि आख़िरकार जब आप पायलट हो जाएंगे तो आप 200-300 पैसेंजर के साथ फ्लाइ करेंगे। उनकी ज़िम्मेदारी आप पर होगी, आपको सब कुछ नियमों के हिसाब से करना होगा। हमने सोचा था कि वॉर फिल्म जैसा कुछ होगा, गर्लफ्रेंड के घर के ऊपर से डाइव मारी, हाथ हिलाया। इतनी रोमांटिक थी नहीं फ्लाइंग। इस कोर्स के लिए मुझे जो स्कॉलरशिप मिली थी मैंने वो छोड़ दी। पहले क्रिकेट, फिर फ्लाइंग और आखिर में एक्टिंग छोड़ दी। लेकिन जब मैं राइटिंग में आया, तो पता नहीं क्यों ऐसा लगता था कि अगर मैं 2% भी जानता हूं, तो मेरे अलावा कोई उतना भी नहीं जानता है। अच्छा काम करने की समझ थी।

जब नाम हो गया, ट्रैक रिकॉर्ड बन गया, ये था कि बहुत इमानदारी से, बहुत मेहनत से काम किया। अब आजकल लोग होटल में बैठते हैं, 8 दिन बाद कहते है स्क्रिप्ट पूरी हो गई। हमको कभी भी किसी भी स्क्रिप्ट में 6 महीने से कम नहीं लगा। क्योंकि हम बार-बार उसे पढ़ते थे। सोचते थे कि हमने जो स्टैंडर्ड सोचा है ये वहां तक पहुंची या नहीं।


स्क्रिप्ट टाइप करते थे कि हाथ से लिखते थे?

हाथ से लिखते थे, अभी भी हाथ से लिखते हैं। राइटिंग इतनी ख़राब थी कि खुद नहीं पढ़ सकते। दूसरे दिन उसे किसी और से लिखवा लेते थे। जब हम अलग हुए तो ये सवाल मुझसे राइटर भी पूछते थे कि आप दोनों में से लिखता कौन था? मुझे इस बात पर हैरत होती थी कि हम दोनों ही नहीं लिखते थे। हम दोनों की ही राइटिंग ख़राब थी। प्रैक्टिस भी खत्म हो गई थी। हम किसी दूसरे को डिक्टेट कर देते थे। हालांकि किसी ने कभी ये नहीं पूछा कि दोनों में से सोचता कौन था। लिखना, सोचना है। जब कोई ख़याल आए तो उसे लिखना, कि भूल न जाएं। दूसरा ये कि पैसे से ज़्यादा स्टेटस की फाइट थी।

जब मैं और जावेद आए, तब राइटरों की यह हालत थी कि राइटर के पैसे और मोड ऑफ पेमेंट प्रॉड्यूसर तय करता था। उसको पैसे मांगने के लिए कोई न कोई वजह बतानी पड़ती थी, कि बिजली का बिल भरना है, बच्चों की फीस भरनी है। ऐसा एक दो राइटरों को छोड़कर ज़्यादातर राइटरों के साथ होता था। कितना भी अच्छा काम करके लाए जिनका नाम नहीं था उनको पैसे नहीं मिलते थे। इस चीज़ के लिए हम लड़े। यहां तक होता था कि एक ही तरफ जा रहे होते तो कह देते कि बस या ट्रेन पकड़ कर आ जाओ। गाड़ी में साथ बिठाना भी मुनासिब नहीं समझते थे। ये सब मुझे मंज़ूर नहीं था। बाकी चाहे पैसे कम दे दो, कुछ भी कर दो पर ये ... ये नहीं। हम सभी जानते थे कि फिल्म का सबसे ज़रूरी हिस्सा स्क्रिप्ट ही है।

अमिताभ बच्चन के साथ सलीम खान। फोटो- ट्विटर

एक मर्तबा मैं असिस्टेंट था, जब एक दो साल अबरार अल्वी साहेब का। उनसे एक दिन मैंने कहा कि एक ज़माना आएगा जब राइटर स्टार के बराबर पैसे लेगा। वो कहने लगे मियां दिलीप कुमार को 12 लाख रूपए मिलते हैं, तो राइटर क्या 12 लाख रूपए ले लेगा? मैंने कहा क्यों नहीं? ऐसे ही म्यूजिक डायरेक्टर की प्राइस बढ़ेगी, म्यूजिक अच्छा देता रहा तो। और ऐसा ही हुआ भी। म्यूज़िक की वजह से फिल्म चली तो म्यूज़िक डायरेक्टर के भी पैसे बढ़ते गए। वो भी स्टार के बराबर पैसे लेने लगा। शंकर जयकिशन, ओपी नैय्यर, एस.डी. बर्मन। यह सब अच्छे म्यूजिक डायरेक्टर्स थे। स्टार के बराबर पैसे लेते थे। अबरार साहब बोले आपने मेरे सामने तो कहा पर किसी और के सामने कहोगे तो लोग पागल समझेंगे।

वक्त निकलता गया। फिर 'दोस्ताना' फिल्म के लिए हमने यश जोहर के साथ अपना प्रपोज़ल बनाया। उन्होंने हमारे कहने से पूरी स्टारकास्ट साइन कर ली, सबके पैसे तय कर लिए। फिर हमारे पास यश जोहर आए, बताया कि अमिताभ बच्चन को साइन कर लिया है। हमने पूछा उनको कितना दिया? उन्होंने जो मुझे रक़म बताई, मैंने कहा कि उससे 50 हज़ार ज़्यादा दे देना। उन्होंने मुझसे हाथ मिला लिया, उसमें उन्हें कोई ताज्जुब नहीं हुआ। जैसे ही वो गए, मैंने अबरार साहब को फ़ोन लगाया। मैंने कहा, अबरार साहब याद है मेरा आपका डिस्कशन हुआ था कि एक राइटर, स्टार के बराबर पैसे लेगा। वो बोले, हाँ मुझे सब याद है। मैंने कहा, दरअसल मैंने गलत बोला था, स्टार के बराबर नहीं, स्टार से ज्यादा पैसे लिए। वो बोले मुझे ख़ुशी है तुम इतना अच्छा काम कर रहे हो।

जावेद अख्तर और सलीम खान। फोटो- ट्विटर

जब शुरुआत में आपने जावेद अख़्तर साहब की बात की, पहले आपने उनके बारे में कुछ नहीं कहा, क्या वह बात अभी भी तकलीफ देती है?

नहीं, बिलकुल भी नहीं। जिस दिन उन्होने मुझसे कहा कि मैं अलग होना चाहता हूं, उसके थोड़े दिनों तक तकलीफ थी। तकलीफ इस बात की थी कि जिसको वहां तक ले जाने में, जो पार्टनरशिप का स्टेटस था, बैनर में साथ में सलीम-जावेद का नाम आता था। सलीम-जावेद के लिए पैसे एक्स्ट्रा मिलते थे, वो बनाने में मेरा बहुत बड़ा हिस्सा था, वो एक सेकंड में गिर गया, वहीं के वहीं ख़त्म हो गया। और कोई परेशानी हो रही होती, पिक्चर फ्लॉप हो रही होती, या कोई और दिक्कत बीच में आई होती जहां पैसों की बात होती। वैसा कुछ भी नहीं हुआ, तो वो भी लगा कि ग़ैरज़रूरी है। लास्ट की दो फिल्मे मिस्टर इंडिया और शक्ति वो दोनों हिट गई थी। एक विन्निंग टीम टूट गई थी।

क्या इससे भारतीय सिनेमा को नुकसान हुआ?

बिलकुल हुआ, इसलिए कि यह जो फिल्में हैं यह आज भी दिखाई जाती हैं, उससे लोग सीखते हैं। एक स्क्रीनप्ले का जो कल्चर था, स्क्रीनप्ले राइटिंग क्या होती है, वो कोई जनता ही नहीं था। मसलन दीवार की जो स्क्रिप्ट है, अगर स्टोरी फॉर्म में अगर सुनाएं कि एक भाई इंस्पेक्टर हो जाता है, दूसरा भाई क्रिमिनल हो जाता है और फर्ज़ की वजह से एक भाई दूसरे भाई को गोली मार देता है, बीच में मां है। तो अगर किसी को यह स्क्रिप्ट सुनाने जाएं तो इस बात की 90% आशंका है कि वो आपको अपने ऑफिस से बाहर कर देगा। मगर उसका स्क्रीनप्ले आज भी इंसीट्यूट्स में दिखाया जाता है कि इसे स्क्रीनप्ले कहते हैं।

एक कहानी है कि भगवान के पास लक्ष्मी गई, उन्होंने उनसे कहा कि मैंने आपकी बहुत सेवा की है मुझे वरदान दीजिये। भगवान ने कहा तू जिसको चाहे जो दे सकती है, मगर छीनने का अधिकार मेरे पास होगा। सरस्वती को पता लगा कि भगवान ने लक्ष्मी को कुछ दिया है, तो वो भगवान के पास गई कि मुझे भी कुछ दीजिये, वो बोले तू जिसको चाहे जो दे सकती है, छीनने का अधिकार मेरे पास नहीं होगा। अब यह सरस्वती की देन है कि रफ़ी साहब, मुकेश साहब, सहगल साहब, किशोर कुमार के गाने अभी तक चल रहे है। यह कोई छीन नहीं सकता, इल्म बढ़ता ही जाता है बाकि दौलत एक झटके में चली जाती है। दौलत लक्ष्मी की देन है और सरस्वती की देन जो हमें थोड़ी सी मिली है, हमारे हिस्से में चुटकी भर आई है, वो हमसे कोई छीन नहीं सकता है। वो बढ़ता ही चला जाता है।

देखिए पूरे इंटरव्यू का वीडियो -


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