सियासत में जाता तो अभी तक अल्कोहॉलिक होकर मर गया होता: सुधीर मिश्रा

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सियासत में जाता तो अभी तक अल्कोहॉलिक होकर मर गया होता: सुधीर मिश्रा

सुधीर मिश्रा बॉलीवुड डायरेक्टर और फिल्म राइटर हैं। 'जाने भी दो यारों', 'रात की सुबह नहीं', 'धारावी', 'हज़ारों ख्वाइशें ऐसी', 'चमेली', 'खोया खोया चांद जैसी फिल्मों के लिए इन्हें जाना जाता है। हाल ही में मशहूर स्टोरीटेलर नीलेश मिसरा की इंटरव्यू सीरीज़ 'द स्लो इंटरव्यू विद नीलेश मिसरा' में सुधीर मिश्रा मेहमान बनकर आए। दोनों के बीच हुए सवाल-जवाब कुछ इस तरह से थे।

आपको इर्ष्या होती है किसी से?

सबसे होती है जो कोई मुझसे बेहतर फ़िल्म बनता है तो होती है रोज़। अनुराग कश्यप से होती है। कभी कभी विशाल भारद्वाज से होती है। किसी कवि से मिलता हूँ, जो कमाल की कविता लिखता है उससे होती है। एक यंग लड़का है, गौरव सोलंकी। उसकी कविता सुनता हूँ, तो लगता है अरे यार! मुझे इर्ष्या ऐसी होती है कि वो उकसाती है बेहतर काम करने के लिए।

एक हसीन इत्तेफ़ाक है कि आप फिल्मों में हैं। अगर आप अपने ग्रैंडफादर के रास्ते पर चलते तो शायद मैं एक पॉलिटिशियन के नाते आपका इंटरव्यू कर रहा होता।

देखिये मेरे नाना पॉलिटिक्स में थे। मैंने बचपन गर्मियों की छुट्टियों में सीएम की कोठियां देखीं, मंत्री देखे, पावर के सामने लोगों को झुकते देखा। मेरा ख्याल से फिल्मों में आकर ग़लत नहीं किया मैंने। उस ज़माने की सियासत में जाता तो अभी अल्कोहॉलिक होकर मर गया होता। पॉलिटिक्स इज़ अबाउट फ्रीडम। हमें कैसे कब्ज़े में रखा जाता है और हम कैसे ज़्यादा से ज़्यादा आजाद हो सकते हैं। ग्रुप की बड़ी जरुरत है जो आपस में डिबेट करे सियासत के बारें में। और हम कुछ नतीजों में पहुचें कि यार यह जो हमारा हिंदुस्तान है इसमें दिस इज गिवेन। तो आप उसको लेफ्ट बोलें राईट बोलें... ट्राइबल्स बहुत बुरे हालत में है, यह तो सच है। आप जो भी बोलदें या आप जिस चश्में से देखें। और वो बहुत बुरे हाल में है और बहुत कम लोग उसकी तरफ देखते हैं। एनवायरनमेंट पर काम नहीं हो रहा है, यह तो सच है। अल्टीमेटली व्हाट इज़ पॉलिटिक्स? इट इस टू बेनिफिट पीपल सियासत में एक कॉमन ग्राउंड पर तो पहुचें ना, जिसको शायद संविधान कहते है। संविधान को सब मानें, इसपर डिसकशन नहीं होगा। बाक़ी सब होगा।

आपकी बात से ध्यान आया कि जब मैं पिता बना अचानक कई चीज़ें जो मेरे लिए एक पत्रकार के तौर पर रिलेवेंट थी जैसे क्लाइमेट चेंज, वो अचानक बड़ी सच्चाई में बदल गईं। व्हाट इज़ द वर्ल्ड इन व्हिच माय चाइल्ड इज़ ग्रोइंग अप? हाउ विल द वर्ल्ड बी? द एयर व्हिच माय डॉटर ब्रीद्स? द रोअड्स शी वाल्क्स ऑन? द टेम्परेचर द कॉन्फ्लिक्ट आल ऑफ़ दैट... खैर मैं आपको लखनऊ वापस ले आना चाहता हूँ, आप लखनऊ में जन्मे हैं?

जन्म नागपुर में हुआ था, क्योंकि पहला बच्चा मां के घर में ही होता है। लेकिन जन्म के तुरंत बाद मैं लखनऊ आ गया था। बड़ा लखनऊ में ही हुआ।

तो कैसा था वो वक़्त, बताइए?

मेरे ग्रैंडफादर डॉक्टर थे, उनका घर अभी भी शाहनजफ रोड पर है। अब तो इन्तेकाल हो गया। मेरे पिता के जो नाना थे, मैं उनके घर पला हूं। उन्होंने जय नारायण मिश्र कॉलेज (केकेसी) बनाया था। वो 24 एकड़ हमने दान में दिए थे, जिसकी ज़मीन पर कॉलेज बना। कभी-कभी जाता हूं और देखता हूं तो लगता है काश अब हमारे पास होता... हमने पैसे और पावर को बहुत क़रीब से देखा है। लेकिन वो हमारे हाथ से फिसल गया।

दिल्ली गया तो थिएटर में फंस गया। मेरा छोटा भाई था सुधांशु (तस्वीर दिखाते हुए...)। थिएटर कर रहा था। दरअसल, यह मेरा गुरु है। इसकी मौत काफी कम उम्र में हो गई। मुझसे ज़्यादा ब्राइट था। सिनेमा में ज़्यादा दखल था उसका। वहां से मेरी कुछ दिलचस्पी हो गयी। फिर बादल सरकार नाम के एक इंसान मिले तो प्रोफेशनलिज्म समझ में आया। समझ आया कि इस पेशे को आप प्रोफेशनली भी ले सकते हैं। यह ख़ाली शौक नहीं है। पंकज कपूर, मनोर सिंह, यह सब उस ज़माने में दिल्ली की रेपर्टरी कंपनी के बड़े स्टार थे और मैं वहां किसी बच्चे की तरह पहुंचा था। इस तरह का प्रोफेशनल बड़ा थिएटर कभी देखा नहीं था। अल क़ाजी साहब के शो, फिर वो बादल सरकार जैसा स्ट्रीट थिएटर। उन्होंने बड़ा दिमाग खोला हमारा।

'हज़ारों ख्वाइशें ऐसी', जैसी फिल्मे देने वाले सुधीर मिश्रा ऐसे फिल्मकार हैं, जिनकी फिल्में लीक से हटकर होती हैं। फोटो- सुयश / गांव कनेक्शन

तो आपका पहला कदम क्या था फिल्मों में? एक राइटर?

हाँ, मैं विनोद को असिस्ट कर रहा था, फिर कुंदन मिले और लिखने लगा। मुझे शुरू से लगता था कि लिखना डायरेक्टर बनने का अंग ही है। रेनू सरूजा जो बाद में मेरी पत्नी भी बनी, उस वक्त बड़ी एडिटर थीं, उन्होंने भी समझाया था। सुधांशु भी उस वक़्त फिल्म इंस्टिट्यूट से निकला था, कुछ सईद, कुछ केतन, कुछ महेश भट्ट, कुछ जावेद अख्तर, कुछ शेखर कपूर... इस तरह कई लोग थे, इनकी सौबत में सीखा। पहली बार जो कुछ थोड़ा लिखा था, उसमें मैं को-राइटर था, वो विज़न कुंदन का ही था। कुछ किया होगा इस लिए क्रेडिट दिया उसने। तब समझ आया, वो मेरा स्कूल था 'जाने भी दो यारों' में। उसमे सिर्फ लिखना ही नहीं सीखा मैंने, आई डीन्ट गिव अ डैम अबाउट व्हट आई वॉज़ डूइंग... आई वांटेड टू डू एवरीथिंग।

तब आपकी उम्र क्या थी?

मैं साढ़े बाईस तेइस साल का था। मैं अकेडमिक बैकग्राउंड से था। अगर मैं 22 साल का होता, तो रिसर्च कर रहा होता। मुझे बड़ा कमाल का लग रहा था कि एक तो यह लोग पैसे भी देते हैं, ऊपर से खाना भी खिलाते हैं और सीखने को भी मिल रहा है। आई फाउंड इट वैरी एक्साईटिंग।

गुज़ारा हो जाता था आपका?

हाँ, हो जाता था क्योंकि माहौल ऐसा था। भट्ट साहब कहते थे चलो आज फला के यहाँ चलते हैं, आजकल कुल भूषण खरबंदा ने बहुत पैसे कमाए हैं, तो उसके यहाँ चलेंगे, पार्टी करेंगे। शाम को कभी जावेद साहब बुला लेते थे, कभी सईद के घर पर होता था। उसकी जेब से 100 रूपए निकल लेता था। पता नहीं कौन खिलाता था, पर रोज़ खाते थे अच्छे से, रोज़ पीते खाते थे। छत थी, सोते थे। बहुत बड़ा कुछ नहीं था, ऐसे ही 3-4 लोग वन बेडरूम में रहते थे।

'हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी' फिल्म की लोग बहुत तारीफ करते हैं, मुझे 'खोया खोया चांद' फिल्म भी अच्छी लगती है। 'धारावी' भी अच्छी लगती है। ओम पुरी के साथ काम करना इज़ वन ऑफ़ द ग्रेट प्लेज़र्स ऑफ़ माय लाइफ, आई ठिंक इट वॉज़ फन। और 10-15 साल काम चले इसी तरह से, इसलिए योग करता हूँ। मैं रोज़ डेढ़ घंटे योग करता हूँ।

आप तो पॉवर योगा कर रहे थे लास्ट टाइम...

अब 'हॉट योगा' नहीं करता हूँ। मुझे ट्रेडिशनल योग वाले ने कहा कि बेटा मत करो, बहुत ज्यादा डिहाइड्रेशन है, तुम बंद कमरे में योग करते हो, ये ग़लत है। तो मैंने वो बंद कर दिया। शुरुआत में हॉट योगा उसने बहुत मदद की। मैंने 45 की उम्र में योग शुरू किया। इस उम्र में बॉडी में लचक नहीं होती। तो गर्मी में पसीने आने पर आसान होता है। वरना चोट लग सकती है।

पहली बार इश्क़ कब हुआ?

(हंसते हुए...) कई बार हुआ है... पर सीरियसली तो जब मैं थियेटर कर रहा था, तब हुआ था मुझे इश्क़. मेरी शादी भी हुई थी। फिर बाद में अलग हो गए... फिर रेनू से इश्क़ हुआ। साथ रहे। रेनू के इन्तक़ाल के बाद भी हुआ था इश्क़... 3-4 बार मुझे सीरियसली इश्क़ हुआ।

सुधीर मिश्रा अपनी फिल्म दास देव को लेकर भी चर्चा में रहे थे। इस फिल्म में Rahul Bhatt, Richa chadda, aditi rao hydari मुख्य भूमिकाओं में थीं।


रेनू कैसी थीं?

मैंने बड़ा लिखा है उसपर। एक आर्टिकल भी लिखा है। बड़ी हसमुख थी। किसी एक की नहीं थी, जो भी उससे मिलता था, जो भी उसके साथ काम करता था, वो उसकी हो जाती थी। पता नहीं अच्छी आदत कहना चाहिए या बुरी। पर उससे ज़्यादा सेल्फ कॉन्फिडेंड औरत मैंने देखी। हंसते-खेलते किसी से भी कुछ भी बोल देती थी। कोई डायरेक्टर का रिश्तेदार अगर अंदर आ गया तो निकाल देती थी, मतलब वो अपने टर्म्स पर ही काम करती थी। कभी उसने यह नहीं देखा की बड़े सारे मर्द है, तो डर के सकुचा के रहे। बिलकुल भी नहीं।

1 अप्रैल 2012 के बारें में आपने ज़िक्र किया था कि आप ट्रेन पर थे और आपको पहली बार...

हाँ मैं ट्रेन में था, मैं फिसला था और मेरा पैर मुड़ गया था और लोग मुझे ले गए अस्पताल। जहाँ पर पैर सीधा करने के लिए मुझे अनेस्थिसिया दे रहे थे। कोलाची के पास तमिलनाडु करेला बॉर्डर पर थे हम लोग कहीं।

क्या शूट कर रहे थे आप?

'कैलकटा मेल' फिल्म की शूटिंग थी। अस्पताल में जैसे ही मास्क मेरी तरफ आया, मेरा फोन बजा और विनोद ने मुझसे कहा कि रेनू को कैंसर है। फिर रेनू फ़ोन पर ही बोली हंसकर बोली, 'देयर इज़ अ लिटिल लिंफोमा ऑर समथिंग'। फिर वहां से मैं वापस आया एंड द जर्नी बिगेन फॉर फोर मंथ्स। अप्रेल से अगस्त। जब तक उसकी बीमारी के बारे में पता चला, काफी देर हो चुकी थी।

उन्होंने कैंसर का सामना किस तरह से किया?

उसे लगा कि उसके साथ बहुत ग़लत हुआ है। मैंने इस बारे में काफी लिखा है। उसे लगता था कि हम सबने बुरे दिन देखे हैं, हमने उनका सामना कर लिया, तो फिर ये क्यों हुआ। ये उसके साथ ही क्यों हुआ। उसे बहुत बुरा लगा। वो सबसे अलग हो गई, अपने आप में चली गई। पता नहीं अपनी सोच में कितना चली गई कि वो ही जाने। शायद यही तरीका था कि वो इन सबसे डील कर सकती थी।

1982 में जब आप फिल्म इंडस्ट्री में आए थे और आज... 30-35 साल। फ़िल्म की दुनिया बहुत बदल गई है। हम डिजिटल युग में आ गए हैं। आपने कैसे री-इन्वेंट किया अपने आपको?

जैसे-जैसे जो सामने आता गया मैं वो करता गया। कुछ चीज़ें आप अपने पेशे के लिए भी करते हो। कुछ चीज़ें आप इसलिए करते हो ताकि आप कुछ और करो। कुछ चीज़ आप पैसा कमाने के लिए करते हो, लेकिन आपकी आदत ऐसी हीनी चाहिए कि आप किसी पर कोई अहसान नहीं कर रहे। आपको अगर ढीला-ढाला काम करने की आदत हो गई, तो वो आदत आपके अच्छे काम में भी आएगी।

इस समय हम मुंबई के वर्सोवा में बैठे हैं। यहाँ पर जो कॉफ़ी शॉप्स हैं, वहां की हर टेबल पर हर ऱोज एक फ़िल्म बनती है। कोई न कोई एक्टर बैठा होता है, इस उम्मीद में कि अगली टेबल पर एक डायरेक्टर होगा, उसको देख लेगा, वो बन ठन के आता है। इनमे बहुत से ऐसे लोग हैं चाहे वो राइटर्स हों या वो एक्टर्स हों या डायरेक्टर्स हों, उनको शायद यह बताने वाला कोई नहीं होता कि यू आर नॉट गुड एट दिस। तुम यह नहीं कर सकते हो।

अगर आप किसी स्किल सेट के साथ आओगे तो कोई अगर गलत प्रोपोज़ल दे, तो बेहिचक ज़ोर से थप्पड़ मारो उसे। आप अच्छे एक्टर हो या जो भी अच्छा हो, तो ऐसा नहीं है कि आपको कोई पहचाने नहीं। बुरा भी हो सकता है लेकिन स्किल सेट जरुरी है। अगर आप में स्किल सेट होगा तो लोग आपसे इज़्ज़त से बात करेंगे। स्किल सेट जिसमें होता है, उसमें ईगो भी होता है, अपने स्किल को लेकर गुरुर होता है और वो थोड़ा सा गुरुर बहुत जरुरी है। पता नही लोग उसको गलत क्यूँ समझते हैं कि अरे यार यह घमंडी है। थोड़ा घमंड नहीं होगा तो कोई भी आपको किसी भी दिशा में भटका देगा। आपको एक अच्छे टीचर की, अच्छे इंसान की, अच्छे मेंटर की ज़रूरत तो होती है। ऐसा कोई मिल जाए जो सही वक्त पर, सही सलाह दे। लेकिन, अल्टीमेटली तो डिसीज़न आपका है कि क्या मैं इस काम में अच्छा हूं या नहीं हूं।

नीलेश मिसरा के साथ इंटरव्यू में सुधीर मिश्रा ने अपने जीवन के कई पहलुओं पर चर्चा की।

ऐसे समय में जब एस्पिरेशन बहुत बढ़ गयी हो, ऐसा लगता है युवाओं को कि येस दिस इज़ अचीवेबल, दिस इज़ पॉसिबल। जो दरभंगा में है, सीतापुर में है और छोटे छोटे क्षेत्रों में जो लोग हैं, जिनमे हुनर है जब वो इस शहर कि ओर आते हैं, आप जैसे लोगों की तरफ देखते हैं... आप उनको क्या कहेंगे? क्या सफल होना ज़्यादा आसान है या कम? क्योंकि अब कईं और टैलेंटिड लोग भी एक्सपोज़्ड हो चुके हैं।

मैं क्या कहूँगा कि तुम्हारा मन इसी में है, स्किल सेट करेक्ट है तो प्लीज़ आएं। किसी को ज़्यादा वक्त लगता है किसी को कम। बहुत सारी कहानियां हैं। कोई वापस जा रहा था तो उसे कोई रोल मिल गया... यहां ग्लैमर के लिए मत आओ, क्योंकि वो बहुत कम है मेहनत उससे ज़्यादा है। अगर इस मीडियम के लिए आपका पैशन नहीं है तो मुश्किलों का आप पर बहुत असर पड़ेगा।

जब आप किसी पैशन के लिए कुछ कर रहे होते हो, तो फिर वो झेलना आसान होता है क्योंकि फिर उसका जॉय भी दूसरा है। सिर्फ पैसा ही नहीं इट्स अ ग्रेट टाइम ऑफ़ पॉसिब्लिटीज़। मुझे लगता है ये मज़ेदार चीज़ है आज। लेकिन ये वक्त ख़तरनाक भी, क्योंकि आप खुद को खो सकते हैं। मुझे पक्का नहीं पता क्या सही है। कई लोग कहते हैं वेब ख़तरनाक जगह है, न्यूज़ फेक है। मुझे लगता है कि लोगों को खुद पर थोड़ा यकीन करना चाहिए, अपने एक्सपीरियंस से सब परखना चाहिए। अपना लॉजिक लगाना चाहिए। आप अपने घर के बगल में देखो कि फला कम्युनिटी कैसी है, यह मत देखो कि कश्मीर में क्या हो रहा है। आप उसके बारे में बस सुन रहे हो, कुछ तथाकथित कहानियां जो कि सच नहीं है। पहले अफवाह जब फैलती थी तो गली मुहल्ले में फैलती थी, लेकिन अब अफवाहें पूरी दुनिया में फैल सकती है।

आप और मैं जब भी मिलते हैं तो एक फितरत की बात करते हैं, मिसरापन। ये मिसरापन क्या बला है?

मिसरापन एक मज़ाक है... यूपी के थोड़े लिबरल, थोड़े एग्नोस्टिक, थोड़ी अकड़, थोड़ी सी अथॉरिटी से चिढ़... कोई पीठ ठपठपाए तो कहे 'हटा यार! तू कौन है मुझे बोलने वाला'। वो मिसरापन वाले एक तरह के लोग थे जो शायद अब ख़त्म हो रहे हैं। वो जो पहले था, एक दूसरे से नोंकझोंक, एक तंज़, मज़ाक, पर एक दायरे में रहकर करना। कभी हिंसा में न बदलना। मेरे हिसाब से मिसरापन वही है।

सलीम खान ( Saleem Khan ) इंटरव्यू का पूरा वीडियो आप यहां देख सकते हैं।

   

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