एक ऐसा भी दौर था जब हिन्दी सिनेमा में यहूदियों ने लहरा रखा था अपना परचम

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एक ऐसा भी दौर था जब हिन्दी सिनेमा में यहूदियों ने लहरा रखा था अपना परचमप्रतीकात्मक तस्वीर

प्रेमेन्द्र श्रीवास्तव

वह मूक फिल्मों का दौर था। महिला पात्र को भी पुरुष ही निभाते थे। उसी दौरान यहूदी युवतियों ने जिनकी त्वचा का रंग और नैन नक्श भारतीय जैसे थे, फिल्मों में अपना सिक्का जमाना कर दिया। उन्होंने अपने नाम हिन्दू व मुस्लिम जमात से मिलते-जुलते रख लिये। भारत छोड़ दुनिया में यहूदी का विरोध अपने चरम पर था लेकिन बॉलीवुड में यहूदी कौम के कलाकार 1930 और 1940 के दशक में मजबुती के साथ सक्रिय थे।

बगदादी ज्यूस सुलोचना (वास्तविक नाम रूबी मायर्स,जन्म 1907, इंतकाल 10 अक्टूबर, 1983)) भारतीय सिनेमा के शुरुआती दौर यानी मूक फिल्मों की पहली महिला सुपरस्टार थीं। सुलोचना अपनी अदाकारी व खूबसूरती की बदौलत सिल्वर स्क्रीन पर छायी हुई थीं। उन्होंने एक से बढ़कर एक कामयाब फिल्मों में अपनी अदाकारी के जलवे बिखेरे।

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"सनेमा गर्ल" (1926), "टाइपिस्ट गर्ल" (1926), "बलिदान" (1927), "वाइ्ल्ड कैट आफ बाम्बे"(1927), "माधुरी" (1928), "अनारकली" (1928), "इंदिरा बीए" (1929), "हीर रांझा" (1929), "सुलोचना" (1933), "बाज" (1953), "नीलकमल" (1968), "आम्रपाली" (1969), "जूली" (1975), "खट्टा मीठा" (1978), सुलोचना को 1973 में दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। सुलोचना कामयाब प्रोड्यूसर भी थीं।

यहूदी कौम की दूसरी अभिनेत्री रोज भी सिने प्रेमियों के दिल की धड़कन बनी हुई थीं। वे भी लोकप्रिय अदाकारा थीं। इसी क्रम में निर्माता प्रमिला (वास्तविक नाम इश्तर विक्टोरिया अब्राहम ,30 दिसम्बर 1916 - 6 अगस्त 2006), पहली मिस इंडिया (1947) थीं। उनकी शादी मशहूर अभिनेता कुमार ( असली नाम सैयद हसन अली जैदी) से हुई थी। 1963 में कुमार पाकिस्तान चले गये लेकिन प्रमिला ने भारत में ही रहना उचित समझा।

उनकी बेटी नकी जहां ने मिस इंडिया का खिताब 1967 में हासिल किया। यह अपने आप में मिसाल है कि मिस इंडिया का खिताब मां व बेटी ने जीता। उन्होंने 30 से ज्यादा फिल्मों में हंटरवाली टाइप के रोल किये। जिनमें "उल्टी गंगा", "बिजली", "बसंत" व "जंगल किंग" काफी कामयाब रहीं। उनके बैनर सिल्वर प्रोडक्शन के तहत 16 फिल्मों का निर्माण किया गया। वे काफी टेलेंटेड थीं। उन्होंने कैम्बरिज यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन किया था।

इतना ही नहीं वो टीचिंग में भी रहीं। राज कपूर की फिल्मों के शौकीन नादिरा (वास्तविक नाम फ्लोरेंस एजेकील, जन्म- 5 दिसम्बर 1932 मृत्यु-9 फरवरी, 2006) से बखूबी परिचित हैं। उस जमाने में हिन्दी सिनेमा की असली वैम्प थीं, जिन्होंने राजकपूर की कई फिल्मों में खलनायक की भूमिका निभाई। 1952 में आयी फिल्म "आन" ने उन्हें पहचान दी। उसके बाद "श्री 420", "दिल अपना और प्रीत परायी", "छोटी-छोटी बातें", "पाकीजा", "अनोखा दान" आदि 66 फिल्मों में यादगार रोल निभाये व तीन टीवी सीरियल में भी काम किया।

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नादिरा पर्दे पर शराब और सिगरेट पीने के लिए मशहूर थीं। वे अपने वास्तविक जीवन में भी काफी शराब और सिगरेट पीती थीं। अभिनेत्री रोज़ को फिल्मों में आधुनिक पश्चिमी एंग्लो इंडियन महिला के तौर पर दिखाया गया। अपने वास्तविक जीवन में भी वे ऐसी ही थीं। आरती देवी के नाम से एक यहूदी अभिनेत्री थीं।

उनका असली नाम रासेल सोफायर था। उनके पिता को बिजनेस में बहुत बड़ा घाटा लगा था। उन्होंने मजबूरी के तहत आरती देवी के नाम से फिल्मों में काम करने की इजाजत दी। जब वे मात्र 21 साल की थीं तो उनकी मां ने एक यहूदी युवक से 1933 में उनकी शादी करा दी। उन्होंने फिल्म में काम करना बंद कर दिया। उनके चचेरे भाई अब्राहम सोफायर बाद में हॉलीवुड में चरित्र अभिनेता बने।

अभिनेता डेविड (वास्तविक नाम डेविड अब्राहम च्युलकर, जन्म-1909, मृत्यु-28 दिसम्बर, 1981) लम्बे समय तक फिल्मों में चरित्र अभिनेता के रूप में छाये रहे। 1937 में "जम्बो" फिल्म से अपना कैरियर शुरू करने वाले डेविड ने कई यादगार फिल्में दीं। जिनमें "बूट पालिश", "उपकार", "अभिमान", "चुपके-चुपके", "खूबसूरत", "गोलमाल", "बातों बातों में", "सत्यम शिवम सुन्दरम", "खट्टा मीठा" व "हमारे तुम्हारे" आज भी याद की जाती हैं।

उन्होंने शादी नहीं की थी। डेविड अवार्ड नाइट्स व म्यूजिक नाइट्स को होस्ट किया करते थे। उनका बोलने का अंदाज निराला था। उनकी हाइट कम थी पर कला में उनका कद बहुत ऊंचा था। उसी दौर में लेखक जोसेफ डेविड पेनकर, जो गीतकार के साथ पटकथा लेखक भी थे, जिन्होंने भारत की पहली बोलती फिल्म "आलमआरा" लिखी थी, लोग उन्हें बहुत सम्मान देते थे। जोसेफ डेविड हिब् और अंग्रेजी के अलावा मराठी, गुजराती, हिन्दी व उर्दू के भी अच्छे जानकार थे। उन्होंने इन सभी भाषाओं में फिल्म का निर्देशन किया। जेकब सोलोमन सह निदेशक थे। रेमंड मॉलेकर अभिनय में अपने झंडे गाड़ रहे थे।

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बाम्बे फिल्म लैब के संस्थापक डेविड जरसॉन उमरडेकर, म्यूजिक डायरेक्टर बिन्नी एन सतमकर, कैमरामैन पेनकर इसाक, टेक्निीशियन रुबेन मॉसेस व रेमंड मॉसेस, फिल्म प्रचारक बन्नी रूबेन एक जमाने में स्टार पब्लिसिस्ट रहे हैं। एक काफी मशहूर निर्देशक एज़रा मीर थे। उन्होंने 1930 के दशक में "सितारा" नाम की एक फिल्म बनाई थी, जिसमें सबसे ज्यादा चुंबन दृश्य थे, जिस कारण उस फिल्म पर रोक लगा दी गयी थी।

सुलोचना की तरह प्रमिला भी प्रोड्यूसर थीं। उनकी सिल्वर फिल्म्स नाम से एक प्रोडक्शन कंपनी थी। फिल्म उद्योग को आकार देने में इनकी बड़ी भूमिका थी। सेंसर बोर्ड ने लगातार प्रमिला को परफॉर्म करने से रोकने की कोशिशें कीं। वे काफी बोल्ड और अपने समय से काफी आगे थीं। संसद में सुलोचना को लेकर एक बहस हुई थी, जो काफी चर्चित हुई थी। (ऐसा कहा जाता है कि वे बॉम्बे के गवर्नर से ज्यादा पैसे कमाती थीं)।

प्रमिला सेट पर अपनी रिश्तेदार रोज़ को देख रही थीं। वह कोलकाता में एक यहूदी स्कूल में टीचर थी। पहली मिस इंडिया या एक सुपर स्टार बनने की उन्होंने कोई योजना नहीं बनाई थी। इसके अलावा, इन लोगों के बाद के जीवन में जो हुआ वह बेहद दुखद था। जब आपकी शोहरत चली जाती है, जब आपका हुस्न चला जाता है, लोग आपको बहुत जल्दी भुला देते हैं।

इन सभी ने ऐसे कॅरियर को चुनने को कीमत चुकाई लेकिन उनकी ज़िंदगी एक तरह से कला द्वारा जीवन के अनुकरण की मिसाल थी। ऑस्ट्रेलियाई डॉक्यूमेंट्री फिल्मकार डैनी बेन मोशे पिछले 11 वर्षों से बॉलीवुड में यहूदी कलाकारों के योगदान पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बना रहे हैं "शैलॉम बॉलीवुड द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ इंडियन सिनेमा"।

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यह डॉक्यूमेंट्रीं मूक फिल्मों के दौर से 20वीं सदी के अंत तक भारतीय सिनेमा में यहूदियों के योगदान की कहानियां कहती है। दिक्कत यह है कि इस फिल्म से सम्बंधित सभी प्रमाण नष्ट हो चुके हैं। इस फिल्म के लिए कोई पैसा लगाने को भी तैयार नहीं था। अब वे खुद ही इसका निर्माण कर रहे हैं।

यहूदियों को लेकर कोई विरोध नहीं था

भारत में यहूदी को लेकर कोई विरोध नहीं था। इसकी कई वजहें हैं। पश्चिम में यहूदी विरोध का एक प्रमुख कारण उस परंपरा में छिपा है, जिसके अनुसार यह माना जाता है कि यहूदियों ने ईसा मसीह की हत्या की थी और इसलिए वे ईश्वर के हत्यारे हैं। भारत में आपके यहां सैकड़ों भगवान हैं और यहां सभी के धर्म को बराबर का सम्मान और आजादी है।

भारत भौगोलिक, सांस्कृतिक, भाषाई, हर स्तर पर विविधताओं से भरा हुआ देश है। इसके उलट मिसाल के लिए हॉलीवुड में यहूदी लोग सिनेमा में गए ताकि वे अमेरिकी बन सकें, ताकि वे अपने जूड़ावाद (यहूदियों का धार्मिक मत) को छिपा सकें। हॉलीवुड में वे अपने नाम बदल रहे थे ताकि उन्हें यहूदियों की तरह न देखा जाए लेकिन भारत में ऐसी किसी चीज का अस्तित्व नहीं था। हॉलीवुड में वे तुरंत पहुंचे अप्रवासी थे और वहां घुलना-मिलना चाहते थे।

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भारत में यहूदी हजारों सालों से भले न रह रहे हों,सैकड़ों सालों से तो जरूर रह रहे हैं। इसलिए यह एक पूरी तरह से अलग अनुभव है और यहूदी विरोध से खाली इस धरती की कहीं व्यापक कहानी है, क्योंकि शायद दूसरे देशों में कोई सुलोचना नहीं होती, क्योंकि वे एक यहूदी स्टार को स्वीकार नहीं करते। न ही वे अपने देश की पहली ब्यूटी क्वीन के तौर पर ही किसी यहूदी को स्वीकार करते।

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