मध्य प्रदेश का खंडवा ज़िला बना देश के लिए मिसाल

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मध्य प्रदेश का खंडवा ज़िला बना देश के लिए मिसाल

लखनऊ। लंगोटी, मध्य प्रदेश के खंडवा ज़िले के खलवा ब्लाक में बसा एक गाँव है। पानी के लिए स्थानीय प्रशासन से अनगिनत गुज़ारिशों के बावजूद, निराशा और असंतोषजनक रवैये के चलते, 2012 में इस गाँव की आदिवासी महिलाओं ने थक हार कर कुछ ऐसा करने की ठानी जो अपने आप में साहस की एक सशक्त मिसाल है ।

यह भी एक विडम्बना ही है जहां एक तरफ चेन्नई और उसके आस-पास के क्षेत्र के लोग आज करीब दो महीनों बाद भी उस भयंकर बाढ़ के परिणाम झेल रहे हैं वहीं दूसरी ओर मध्य और उत्तर भारत खासकर बुंदेलखंड में किसान सूखे की वजह से अपनी जीविका और अस्तित्व के लिए जूझ रहे हैं। ऐसे में यह भारत के अंदरूनी हिस्सों में बसे आदिवासी क्षेत्र की एक प्रेरणादायक कहानी है जो हमें अपनी समस्याओं की सामूहिक ज़िम्मेदारी लेना सिखाती है।

अनेक आदिवासी समूह जिन्हें हमेशा ही लाभार्थी की नज़रों से देखा और समझा जाता है, वहीं गूंज के सत्रह सालों के सफ़र में ग्रामीण भारत में साहस , दृढ संकल्प और बुद्धिमता के सतत स्रोत रहे हैं।

वैसे तो यह पूरा क्षेत्र ही सूखे की चपेट में है लेकिन इस गाँव की सच्चाई यह थी कि यहां गर्मियों में पानी के सभी स्रोत सूख जाते थे जिसकी वजह से इन महिलाओं को दिन में कम से कम 2 से 3 बार गाँव से बाहर बने एक कुएं से पानी ढोना पड़ता था। जहां गाँव का पुरुष वर्ग आमदनी जुटाने में व्यस्त रहता वहीं इन महिलाओं को तपती धुप में पानी ढोना पड़ता था। बार बार के चक्करों से बचने के लिए वह अक्सर पानी से भरे तीन मटके अपने सर पर और एक मटका कमर पर ढोकर लाया करती थीं। गाँव की ही तुलसी बाई कहती हैं "अगर हमारे घर का पानी ख़त्म हो जाता था तो गर्मियों की दोपहर की चिलचिलाती धूप में भी हमें पानी लेने जाना पड़ता था"। कहने को तो यहां 12 हैण्डपम्प और 2 ट्यूबवेल पास में ही हैं लेकिन गर्मियों में सारे जल स्रोत सूख जाते हैं।

2012 के अप्रैल महीने की बात है, कुछ असामान्य घटने वाला था.. लंगोटी गाँव की रामकली बाई जैसी सभी महिलाएं अब यह तो जान चुकी थीं कि पानी की इस समस्या को सुलझाने के लिए यदि अब उन्होंने खुद कोई ठोस कदम नहीं उठाया तो कुछ भी नहीं हो पायेगा। यह महिलाएं इकट्ठा हुईं और स्वयं एक कुआं खोदने की ठानी (अब इस स्वयं सहायता समूह का नाम 'ऊषा' है)। यह काम 17 महिलाओं ने शुरू किया था और 2 साल ख़त्म होते होते इनकी संख्या 30 थी इनके साथ ही गाँव के कुछ पुरुषों ने भी इनका साथ दिया।

कुएं के लिए ज़मीन रामकली बाई और गंगा बाई ने दी जबकि खुदाई की सही जगह च्पडयारज नाम की एक परंपरागत प्रक्रिया के तहत चुनी गयी। चट्टानी/पथरीली ज़मीन पर कुआं खुदाई का काम कठिन तो था ही और साथ ही थका देने वाला भी। आसपास अनेकों घर होने की वजह से पत्थरों को तोड़ने के लिए विस्फोटक का इस्तेमाल भी नहीं किया जा सकता था।

महिलाओं ने अपनी घरेलू छेनी हथौड़ों के साथ खुदाई शुरू की। अपनी रोज़मर्रा की जिम्मेदारियों के बीच निरंतर थोड़ा-थोड़ा समय निकाल कर ये महिलाएं खुदाई करतीं रहीं । शुरुआत में इन महिलाओं का गाँव के बहुत से लोगों ने मज़ाक भी उड़ाया। सीमा बताती हैं, अपनी इच्छाशक्ति को बनाये रखना बहुत कठिन था। बहुत बार खोदते हुए एक बड़ा पत्थर सामने आ जाता था लेकिन स्थिति को बेहतर बनाने की इच्छा और पानी की आवश्यकता ने उनकी इच्छा शक्ति को बनाये रखने के लिए उनकी दाल रोटी का ध्यान गूंज के क्लोथ फॉर वर्कर कार्यक्रम के तहत रखा गया और इसके अलावा दूसरी बुनियादी ज़रूरतें जैसे कपड़े और जूते भी मुहैया कराये गए ।

खुदाई के बाद जमीन के करीब 15 फीट नीचे पानी मिला और 22 फीट की परीधि वाला कुआं तैयार हो गया। कड़ी मेहनत, चुनौतियों और स्थानीय से लेकर जिला स्तर तक के विरोधों का सामना करने का ये सफ़र आसान नहीं था लेकिन इन सब से बढ़कर जो सबसे खुशी की बात थी वो ये कि तमाम मुश्किलों के बावजूद आखिरकार उनकी मेहनत और लगन का नतीजा सबके सामने था।

आज उनके अपने गाँव में उनकी पहुँच के अन्दर एक कुआं था । "पानी निकल गया तो मज़ा आ गया" ऐसा तुलसी बाई कहती हैं जो उन महिलाओं में से एक हैं जिन्होंने ये सपना सच करने के लिए दो साल तक कड़ी मेहनत की है।

लंगोटी गाँव का ये कुआं आज गाँव के 250 से ज़्यादा लोगों की पानी की अलग-अलग जरूरतों जैसे सफाई, धुलाई और पौधों की सिंचाई के काम को पूरा करता है। गूंज की सहयोगी संस्था स्पंदन समाज सेवा समिति द्वारा यह कुआं पक्का कर दिया गया है। अब इन महिलाओं को अपने सिर और कमर पर 3-4 मटके उठाने की ज़रूरत नहीं है। 

स्थानीय समुदायों द्वारा इतनी लगन से ऐसा कदम उठाये जाने का ये उदाहरण एक प्रेरणादायक संदेश है। यह हमें फिर से याद दिलाता है कि हमें लाभार्थी जैसे शब्दों को अपनी भाषा से मिटा देना चाहिये । यह समय, स्थानीय समस्याओं को निपटान के लिए परंपरागत बुद्धिमत्ता और संसाधनों के साथ-साथ ग्रामीण समुदायों की इच्छाशक्ति को बढ़ावा देने का है।

 

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