देश में रामलीला के अलग-अलग रंग और रूप

Kushal MishraKushal Mishra   5 Oct 2016 7:21 PM GMT

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देश में रामलीला के अलग-अलग रंग और रूपramleela play

लखनऊ। "सुनिये..सुनिये.. आज से रामलीला का मंचन शुरू हो रहा है... आज हमारे गांव में रामलीला का मंचन..." सिर पर पगड़ी पहने और ढोल बजाकर ग्रामीणों को रामलीला के मंचन की सूचना देने की ऐसी आवाज आपने अपने गांव में जरूर सुनी होगी। भारत के गांव-गांव में सदियों से हो रही रामलीला का मंचन आज सिर्फ गांव तक ही नहीं, बल्कि शहरों, राज्यों से लेकर विदेशों तक में प्रसिद्ध हो चुका है। भारत में हम जैसे-जैसे शहरों और राज्यों को छूते हैं, वैसे-वैसे रामलीला के अलग-अलग रंग और रूप नजर आते हैं। आइये आज हम आपको देश में रामलीला के ऐसे ही अलग-अलग रंग और रूप के बारे में बताते हैं।

ऐसे शुरू हुई रामलीला

वास्तव में रामलीला लोक नाटका का एक रूप् है। रामलीला का उद्य उत्तर भारत से माना जाता है। वर्तमान में जिस रामलीला का मंचन किया जाता है, उसकी पटकथा गोस्वामी तुलसीदास रचित महाकाव्य रामचरितमानस की कहानी और संवादों पर आधारित है। माना जाता है कि रामलीला का मंचन तुलसीदास के शिष्यों ने सबसे पहले किया था। ऐसा भी कहा जाता है कि उस दौरान काशी नरेश ने रामनगर में रामलीला कराने का संकल्प लिया था, तभी से रामलीला का प्रचलन देशभर में शुरू हुआ।

भारत में प्रसिद्ध रामलीलाएं

रामनगर की रामलीला: वाराणसी के लगभग 20 किमी दूर रामनगर पड़ता है। यहां की रामलीला का ऐतिहासिक महत्व है। रामनगर में वर्ष 1830 में पहली बार रामलीला का मंचन किया गया था। रामनगर में रामलीला का मंचन 31 दिन तक चलता है। यहां पर बनाये गये स्टेज देखने योग्य होते हैं। रामनगर की रामलीला की खास बात यह है कि इसके प्रधान पात्र एक ही परिवार के होते हैं। उनके परिवार के सदस्य पीढ़ी दर पीढ़ी रामलीला का मचंन करते आये हैं। यहां के स्टेज ज्यादातर स्थायी बने हुए हैं, हालांकि मंचन के दौरान कुछ अस्थायी स्टेज भी बनाये जाते हैं। आज भी भगवान राम की दिव्य वस्तुएं काशी नरेश के संरक्षण में प्राचीन बृहस्पति मंदिर में मौजूद हैं। यही कारण है कि रामनगर की रामलीला दुनिया भर में प्रसिद्ध है।

चित्रकूट की रामलीला: चित्रकूट में रामलीला का मंचन फरवरी के अंतिम सप्ताह में किया जाता है और सिर्फ पांच दिनों के लिए ही रामलीला का मंचन होता है। इसकी शुरुआत महाशिवरात्रि से होती है। चित्रकूट की रामलीला भारत में इसलिए प्रसिद्ध है क्योंकि रामलीला के पात्र यहां साल दर साल रामलीला को सजीव करती रही है। रामलीला में तकनीकी इस्तेमाल से पात्रों की भावनाओं का इजहार कराया जाता है। ताकि भक्त पात्रों और उनके मर्म को समझ प्रेरणा ले सकें। यहां के कलाकार नृत्य, संगीत में निपुण होते हैं जो तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस पर अभिनय करते हैं। इतना ही नहीं, कलाकारों की आवाज को प्रभावी बनाने के लिए विशेष यंत्रों का भी प्रयोग किया जाता है।

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इलाहाबाद की रामलीला: इलाहाबाद में रामलीला की शुरआत कर्ण घोड़े की भव्य और आकर्षक शोभायात्रा के साथ होती है। इस शोभायात्रा में दर्जनों बैंड पार्टियां शामिल होती हैं, जिसमें भांगड़ा करते कलाकार आकर्षक रोड लाइट्स और झांकियों के बीच रामलीला के शुरू होने की सूचना देते हुए लोगों को आमंत्रित करते हैं। इस नजारे को देखने के लिए दुनिया भर में दूर-दूर से लोग आते हैं। खास बात यह है कि भगवान राम का दूत कहे जाने वाले कर्णघोड़े की लोग रास्ते भर आरती और पूर्जा अर्चना करते हैं। यह परंपरा इलाहाबाद में बहुत पुरानी रही है। ऐसा भी माना जाता है कि कर्ण घोड़े के कारण ही भगवान राम की लीला लोगों तक पहुंची और उसी के स्वरूप आज दुनिया भर में रामलीला का मंचन किया जाता है। शोभायात्रा के बाद अगले दिन से यहा दस दिनों तक रामलीला का मंचन किया जाता है। इसमें 250 से ज्यादा कलाकार और टेक्नीशियन शामिल होते हैं।

अयोध्या की रामलीला: अयोध्या मंडली की रामलीला पूरे देश में प्रसिद्ध है। अयोध्या की रामलीला की खास बात यह है कि यहां एक विशाल मंच बनाकर पात्र संवादों को गीत के माध्यम से बोलते हैं। इतना ही नहीं, कथक के माध्यम से भी कलाकारों की ओर स रामकथा का वर्णन किया जाता है। बता दें कि अयोध्या में रामलीला की बढ़ती प्रसिद्धि को देखते हुए राज्य सरकार ने यहां अंतरराष्ट्रीय रामलीला केंद्र के निर्माण कराये जाने की स्वीकृति दी थी।

कुमाऊंनी की रामलीला: उत्तराखंड खासकर कुमायूं अंचल में रामलीला का मंचन गीत और नाट्य शैली में किया जाता है। यहां की रामलीला पीढ़ी दर पीढ़ी लोक मानस में रचती बसती रही है। कुमांयू में रामलीला के मंचन की शुरुआत 18वीं सदी के मध्यकाल के बाद हो चुकी थी। स्थानीय बुजुर्ग लोगों की मानें तो उस समय की रामलीला मशाल, लालटेन और पैट्रोमैक्स की रोशनी में मंचित की जाती थी। कुमायूं की रामलीला में बोले जाने वाले संवादों में धुन, लय, ताल और सुरों में पारसी थियेटर की छाप दिखाई देती है, साथ ही साथ ब्रज के लोक गीतों की भी झलक दिखाई देती है। कुमायूं के बाद नैनीताल, बागेश्वर और पिथौरागढ़ में क्रमश: 1880, 1890 और 1902 में रामलीला का मंचन प्रारंभ होता है।

दुनिया भर में होती है रामलीला

रामलीला सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि पूरे विदेशों में भी बहुत प्रसिद्ध है। वर्तमान समय में रामलीला का मंचन नेपाल, थाईलैंड, लाओस, फिजी, दक्षिण अफ्रीका, कनाडा, सूरीनाम, मॉरीशस में भी किया जाता है। वहीं मुखौटा रामलीला भी काफी प्रचलित है। इंडोनेशिया और मलेशिया में मुखौटा रामलीला का प्रचलन है।

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रामलीला के कई रंग

मूक अभिनय: असल में मूक अभिनय संगीतबद्ध हास्य थियेटर है, जिसे रामलीला में भी अपनाया गया। इसके तहत रामलीला का सूत्रधार रामचरितमानस की चौपाइयां और दोहे गाकर सुनाता है और दूसरे कलाकार बिना कुछ बोले रामायण की प्रमुख घटनाओं का मंचन करते हैं। इस शैली में रामलीला की झांकियां भी दिखाई जाती हैं। इसके बाद में पूरे शहर में जुलूस निकाला जाता है। इलाहाबाद, ग्वालियर जैसे शहरों में मूक अभिनय शैली में रामलीला का मंचन होता है।

संगीतबद्ध गायन शैली: इस शैली का विकास उत्तराखंड के अल्मोड़ा और कुमायूं जिले में हुआ। इस रामलीला की खासियत है कि इसके संवाद क्षेत्रीय भाषा में न होकर ब्रज और खड़ी बोली में ही गाए जाते हैं, जिसके लिए संगीत की विभिन्न शैलियों का प्रयोग किया जाता है।

रामलीला मंडलियां: इसमें पेशेवर कलाकार होते हैं, जो रामलीला का मंचन करते हैं। स्टेज पर रामचरितमानस की स्थापना करके भगवान की वंदना करते हैं। इसमें सूत्रधार जिसे व्यास भी कहा जाता है, रामलीला के पहले दिन की कथा सुनाता है और आगे होने वाली रामलीला का सार गाकर सुनाता है। ये कलाकार-मंडलियां भारत के कई राज्यों में रामलीला का मंचन करती हैं।

         

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