दिल्ली की देहरी: योगिनीपुरा के दौर की दिल्ली

Nalin ChauhanNalin Chauhan   27 May 2017 1:43 PM GMT

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दिल्ली की देहरी: योगिनीपुरा के दौर की दिल्लीतोमरों और चौहानों की शासित दिल्ली का क्षेत्र योगिनीपुरा कहलाता था।

तोमरों और चौहानों की शासित दिल्ली का क्षेत्र योगिनीपुरा कहलाता था। योगिनीपुरा-दिल्ली का नाम जोगमाया मंदिर पर था। दिल्ली महरौली के समीप योगमाया का मंदिर है। गुजरात की द्वारिका में भगवान श्रीकृष्ण के मंदिर में योगमाया का मंदिर स्थित है। भगवान श्रीकृष्ण योगमाया को बड़ी बहन की तरह आदर-मान देते हैं। पुरानी दिल्ली के अन्य नामों में इंद्रप्रस्थ, खाण्डवप्रस्थ, ब्रह्मस्थल और देहली भी थे। 1166 ईस्वी में योगिनीपुरा (दिल्ली) तोमर वंश के एक शासक मदनपाल की राजधानी थी।

जब तोमर राजपूत शासकों ने इस स्थान पर अपनी राजधानी के लिए दिल्ली बसाई तो उन्होंने योगमाया की पूजा करनी प्रारम्भ की क्योंकि चंद्रवंशी तोमर देवी के उपासक थे। तोमर शासकों ने लालकोट को अपनी नई राजधानी बनाया तथा यहां एक शहर को बसाया, जिसको ढिल्ली, ढिल्लिका अथवा ढिल्लिकापुरी के नाम से जाना गया।

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यह शहर पूर्ववर्ती मंदिरों की नगरी योगिनीपुरा के इर्द-गिर्द बसाया गया जहां इन्होंने कई मंदिरों का निर्माण कराया, जिसके अवशेष आज भी कुतुब पुरातात्विक क्षेत्र तथा उसके समीपस्थ क्षेत्र में बिखरे पड़े हैं। अतीत में देहली या दिल्ली के रूप में भी जानी जाती थी और कुछ मध्यकालीन दस्तावेजों में यह योगिनिपुरा के रूप में दर्ज है। पुरातन प्रबंध संग्रह भी इसी तरह बताता है कि पृथ्वीराज ने योगिनीपुरा (तब कि दिल्ली) से शासन किया है, हालांकि उनका जन्म राजस्थान में अजमेर के पास शाकम्भरी हुआ था।

ऐसा माना जाता है कि महरौली स्थित आज का मंदिर सन् 1827 में मुगल शासक अकबर द्वितीय के काल में लाला सेठमलजी ने बनवाया। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के संस्थापक सैय्यद अहमद खान ने दिल्ली की 232 इमारतों का शोधपरक ऐतिहासिक परिचय देने वाली अपनी पुस्तक ‘आसारुस्सनादीद’ में लिखा है कि वर्तमान मंदिर का उन्नीसवीं सदी में पुनर्निर्माण किया गया, लेकिन यह स्थल उससे भी प्राचीन है। नागर शैली में बने मंदिर के प्रवेशद्वार के ऊपर एक नाग की आकृति बनी हुई है, जो चिंतामाया का प्रतीक है।

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“आज भी खरे है तालाब” में अनुपम मिश्र लिखते हैं कि अनंगपाल की दिल्ली और उस काल में 11 वीं सदी में महरौली के पास बने अनंगपाल नामक तालाब को पुरातत्व विभाग ने पिछले वर्ष ढूंढ निकाला है। योगमाया मंदिर के पीछे चल रही खुदाई अभी पूरी नहीं हुई है, लेकिन पत्थर की कई विशाल सीढ़ियों से सजे एक गहरे, लंबे-चौड़े तालाब का आकार उभरने लगा है।

योगिनी मंदिर अधिकतर त्रिकोण में स्थित होते हैं, जिनका आधार भड़ौच (गुजरात) से हीरापुर (ओड़िसा) और शीर्ष दिल्ली (योगिनीपुर) में है। इस त्रिकोण से दूर एकमात्र बिंदु असम में कामख्या मंदिर है। लेकिन दिल्ली के योगिनीपुरा और उत्तर प्रदेश के कुछ स्थानों सहित अधिकांश मंदिर प्रायद्वीपीय पठार के उत्तरी और उत्तर-पश्चिमी भागों में ही स्थित हैं। हालांकि, अगर योगिनियों के मंदिर किसी विशेष क्षेत्र में स्थित हैं तो समूचे भारत में योगिनी के विभिन्न रूपों की पूजा अर्चना होती है।

तोमर शासकों के अलावा इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि इस किले का उपयोग कैसे और कौन करता था। लेकिन इस किले के भीतर अभी तक बचे मंदिरों के अवशेष ही कुछ प्रमाण प्रदान कर सकते हैं। लाल कोट की दीवारों के अंदर दिल्ली की सबसे पुरानी मस्जिद (1192-3) का स्थान है, जिसका निर्माण एक मंदिर के बचे हुए अवशेषों से होना संभव है। (ए॰ कनिंघम ने एएसआई प्रकाशन में इस संभावना को प्रकट किया था। इस बात के सत्यापन के लिए इस क्षेत्र के उत्खनन सहित पूरी खोज किए जाने की आवश्यकता है)।

संभवतः ये सभी मंदिर तोमर कालीन नहीं है जबकि मस्जिद में शामिल एक वास्तुशिल्प वाली इमारत तोमर काल की प्रतीत होती है। इस बात की पूरी संभावना है कि कम से कम उस समय एक पूजा स्थल, बेशक वह पूरी तरह एक मंदिर न रहा हो, का अस्तित्व अवश्य था जो कि दिल्ली की तात्रिक देवी योगमाया को समर्पित था। वर्तमान मंदिर का उन्नीसवीं सदी में पुनर्निर्माण किया गया था, लेकिन यह स्थल अति-प्राचीन माना जाता है। अनेक शिलालेखों से पता चलता है कि इस क्षेत्र, साथ ही दिल्ली के बड़े भाग, को योगिनीपुरा यानी योगिनी का शहर, के नाम से जाना जाता था। शिलालेख दिल्ली के पूर्व नाम ढिल्ली को भी प्रमाणित करते हैं।

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“सिटी वॉलः द अर्बन एनसिन्टे इन ग्लोबल पर्सस्पेक्टिव” पुस्तक में कैथरीन बी अशर लिखती है कि इस प्रकार माना जा सकता है कि यमुना नदी से काफी दूर स्थित लाल कोट के स्थान को दिल्ली की सुरक्षा देवी योगमाया के मंदिर के कारण शुभ माना जाता हो। यह स्पष्ट नहीं है कि इन मंदिरों और योगमाया मंदिर में किन व्यक्तियों को प्रवेश की अनुमति थी लेकिन उनमें से भक्तों, जिसमें आम नागरिक भी होते थे, को नगर की तांत्रिक देवी के दर्शन से वंचित करना सबसे असामान्य बात होती। इस प्रकार यह संभव है कि किला घेरेबंदी के विरुद्ध था न कि आम नागरिकों को किले से बाहर रखने के लिए।

महरौली क्षेत्र में प्राचीन योगिनीपुरा के विषय में रोनाल्ड विवियन स्मिथ अपनी पुस्तक “द दिल्ली देट नो वन नोज” में लिखते हैं कि प्राचीन योगिनीपुरा में एक छोटा मंदिर था, जिसके बारे में कुछ का मानना है कि वास्तव में एक सूर्य (सूर्य) मंदिर है। अगर ऐसा था तो यह एक विशेष महत्व का स्थान था, जहां हिंदू मिथक के सभी नवग्रहों की पूजा होती थी। इस प्रकार सूर्य देवता का मंदिर पौराणिक कथाओं और भारतीय राशिचक्र से जुड़ा हुआ है, जहां मानव जीवन में ग्रहों के प्रभाव में विश्वास करने वाले श्रद्वालु विभिन्न सप्ताहांतों में सात चिन्हों की पूजा करते हैं।

भारतीय विद्या भवन की प्रकाशित “द हिस्ट्री एंड कल्चर ऑफ द इंडियन पीपलः द स्ट्रगल फॉर एमपायर” के अनुसार, रणथम्भौर में गोविंदराज के नेतृत्व में चहमान (चौहान) परिवार शक्तिशाली हुआ और योगिनीपुरा (दिल्ली) के सुरत्राण (इल्तुतमिश) के प्रति अपनी नाममात्र निष्ठा के बावजूद उसने स्वतंत्रता से अपने राज्य का विस्तार करते हुए पड़ोसी राज्यों पर अपनी प्रभुता को कायम किया।

जिन्नपाल के विवरण से पता चलता है कि योगिनीपुरा एक जैन तीर्थ स्थल था, इस स्थान के अनेक जैन आचार्यों ने इस तीर्थ स्थल के कई संदर्भ दिए हैं। 1367 ईस्वी में योगिनीपुरा में एक 'कालकाचार्य कथा' गुजराती या पश्चिमी भारतीय शैली में चित्रित की गई थी। श्री दिगंबर नया मंदिर का 'महापुराण', जिसका पहले ही संदर्भ दिया गया है, संभवतः अगर पहले नहीं तो उसके शासन में ही दिल्ली में चित्रित किया गया। इसका सबसे पुराना उदाहरण "कल्पसूत्र" पांडुलिपि है जिसमें योगिनिपुरा-दिल्ली (1366 ईस्वी) का चित्र है। अग्रवाल जाति के मराहपाल ने योगिनीपुरा (दिल्ली) में फिरोज शाह तुगलक का शासन के समय द्रव्यसंग्रह की एक प्रति तैयार करवाई थी। यह विक्रमी संवत् 1416 में लिखी गई “द्रव्यसंग्रह” की सबसे पुरानी प्रति है। कवि महिंदु ने योगिनीपुरा में अग्रवाल साधारण की प्रेरणा से विक्रमी संवत् 1587 में “शांतिनाथ-चरित्र” लिखा।

महाकवि पुष्पदंत द्वारा रचित आदि पुराण की कागज पर चित्रित सबसे प्रारम्भिक सचित्र पाण्डुलिपि योगिनीपुरा (दिल्ली) में विक्रम संवत् 1461 योगिनीपुरा (दिल्ली) में सुरक्षित आदि पुराण (1404 ईस्वी) तथा महापुराण की प्रतियां भी इसी समृद्ध शैली से जुड़ी हुई है। इनमें रेखीय अंकन का प्रयोग हुआ है। डाक्टर सुभद्रा झा ने “विद्यापति के गीत” में विद्यापति के जौनपुर को योगिनीपुरा और पुरानी दिल्ली के अर्थ में प्रयुक्त किया है जो जमुना नदी के किनारे बसा हुआ है। ऐसा आभास होता है कि यह 1404 ईस्वी में योगिनीपुरा (दिल्ली) में चित्रित आदिपुराण की शैली के आधार पर विकसित हुआ। पंद्रहवीं शताब्दी के पूर्व और मध्य काल में योगिनीपुरा (दिल्ली) में पांडुलिपि चित्रण का कार्य, उस शैली में हो रहा था जो कि कुछ अर्थों में लोदी काल की शैली की पूर्ववर्ती परिलक्षित होती है।

“राजस्थानी लघुचित्रों में कृष्ण लीला की कहानी” में सीता शर्मा लिखती है कि संवत् 1573-(ईस्वी 1516) में, जब सुल्तान सिकंदर का योगिनीपुरा (दिल्ली) पर शासन था, तब चंद्रपुरी के चौधरी कच्छौवा स्थित नदी किनारे बने किले में रहते थे। इन चौधरियों में से एक भन्दास नामक व्यक्ति ने अपने प्रयोग के लिए कायस्थ भवानीदास से सचित्र आरण्यक प्रबंध की एक प्रति बनवाई। सोलहवीं शताब्दी में कायस्थ कलाकार पालम में काम करते थे और चौदहवीं शताब्दी की जैन पांडुलिपियों में भी योगिनीपुरा (दिल्ली) के चित्र देखने को मिलते हैं।

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