फ़िराक़ गोरखपुरी का क़िस्सा मुख़्तसर

Jamshed SiddiquiJamshed Siddiqui   2 Feb 2019 7:00 AM GMT

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फ़िराक़ गोरखपुरी का क़िस्सा मुख़्तसरफ़िराक़ गोरखपुरी

क़िस्सा मुख़्तसर

बात साल 1910 के अक्टूबर की है, इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का माहौल उन दिनों काफी साहित्यिक था। आए दिन मुशायरे और कवि सम्मेलन होते थे और तमाम छात्र उनमें बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते थे। उन दिनों यूनिवर्सिटी में सबसे बेहतरीन शायरी के लिए दो नाम जाने जाते थे।
एक तो नाम था - अमरनाथ झा और दूसरा – रघुपति सहाय। वही रघुपति सहाय जिन्हें पूरी दुनिया 'फ़िराक़ गोरखपुरी' के नाम से जानती है। फ़िराक़ गोरखपुरी और अमरनाथ झा के बीच हल्की-फुल्की तकरार हमेशा चलती रहती थीं। साहित्यकार विश्वनाथ त्रिपाठी की एक किताब में उन्होंने ज़िक्र किया है कि फ़िराक़ साहब सख़्त लहजे वाले शख्स थे, ज़्यादा देर किसी की सुनते नहीं थे। बहुत नाप-तोल कर बोलना उन्हें नहीं आता था। फक्कड़ किस्म के थे। अपनी किताब में विश्वनाथ त्रिपाठी ने फ़िराक़ साहब के एक संस्मरण को साझा करते हुए लिखा है,

"वो हाजिरजवाब थे और विटी थे। अपने बारे में तमाम उल्टी-सीधी बातें खुद करते थे। उनके यहाँ उनके द्वारा ही प्रचारित चुटकुले आत्मविज्ञापन प्रमुख हो गये । अपने दु:ख को बढ़ा-चढ़ाकर बताते थे। स्वाभिमानी हमेशा रहे। पहनावे में अजीब लापरवाही झलकती थी- 'टोपी से बाहर झाँकते हुये बिखरे बाल, शेरवानी के खुले बटन,ढीला-ढाला(और कभी-कभी बेहद गंदा और मुसा हुआ) पैजामा, लटकता हुआ इजारबंद, एक हाथ में सिगरेट और दूसरे में घड़ी, गहरी-गहरी और गोल-गोल- डस लेने वाली-सी आँखों में उनके व्यक्तित्व का फक्कड़पन खूब जाहिर होता था।" विश्वनाथ त्रिपाठी, साहित्यकार

टोपी से बाहर झाँकते हुये बिखरे बाल, शेरवानी के खुले बटन,ढीला-ढाला(और कभी-कभी बेहद गंदा और मुसा हुआ) पैजामा, लटकता हुआ इजारबंद, एक हाथ में सिगरेट और दूसरे में घड़ी, गहरी-गहरी और गोल-गोल- डस लेने वाली-सी आँखों में उनके व्यक्तित्व का फक्कड़पन खूब जाहिर होता था।
विश्वनाथ त्रिपाठी, साहित्यकार

उस रोज़ यूनिवर्सिटी में मुशायरा था। असल मुकाबला झा साहब और फ़िराक़ साहब के बीच ही माना जा रहा था। दोनों के ही समर्थक भीड़ में शामिल थे, लेकिन अमरनाथ झा के साथ कुछ ज़्यादा लोग थे।

(बताते चलें कि ये वही अमरनाथ झा थे जिन्हें बाद में साल 1954 में भारत सरकार ने शिक्षा के क्षेत्र में काम करने के लिए पद्मविभूषण से नवाज़ा था)

झा साहब के एक-एक शेर पर उनके चाहने वाले वाह-वाह का शोर बरपा रहे थे। सफेद पायजामा और काली शेरवानी पहने, स्टेज पर बैठे फ़िराक ये मंज़र मुस्कुराकर देख रहे थे। उस वाह-वाही से उन्हें कोई ऐतराज़ नहीं था लेकिन जब झा साहब के चंद हल्के शेरों को भी ज़रूरत से ज़्यादा दाद मिलने लगी तो वो समझ गए कि मामला क्या है। बहरहाल, कुछ देर बाद अमरनाथ झा का क़लाम ख़त्म हुआ और वो वापस अपनी जगह पर आकर बैठ गए। उन्होंने फ़िराक़ साहब को तिरछी नज़र से देखा और मंद-मंद मुस्कुराए। फ़िराक़ साहब उठे, मंच पर पहुंचे और फिर गला खंखार कर बोले – हज़रात, तो कव्वाली ख़त्म हुई, अब शेर सुनिये

भीड़ में सन्नाटा पसर गया। उनकी ये बात झा जी के चाहने वालों को बेहद नागंवार गुज़री। लोग दबी ज़बान में उनकी मज़म्मत भी करने लगे। उन्हीं समर्थकों में से एक झल्लाकर बोला, कहने को आप कुछ भी कह लीजिए लेकिन सच तो ये है कि ग़ज़ल हो, शेर हो या कविता हो, झा साहब हर मामले में आपसे बेहतर कहते हैं। फ़िराक़ साहब मुस्कुराए, रुमाल शेरवानी की एक जेब से निकलाकर दूसरी जेब में रखा और बोले, देखिए भई, झा साहब मेरे भी बहुत गहरे दोस्त हैं, मैं उन्हें उनकी एक खूबी की वजह से बहुत पसंद करता हूं, और वो ये कि उन्हें झूठी तारीफ बिल्कुल पसंद नहीं है। मंच पर बैठे अमरनाथ झा हसने लगे, उन्हें फ़िराक़ की हाज़िर जवाबी बहुत पसंद आई। वो हसे तो बाकी लोग भी हसने लगे और इस तरह महफ़िल का माहौल खुशमिज़ाज हो गया।

फ़िराक़ साहब का वीडियो

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