कथाकार प्रेमचंद पर विशेष: मुंशी और प्रेमचंद 2 अलग-अलग लोग थे फिर ये नाम कैसे पड़ा

उत्तर प्रदेश के वाराणसी के गांव लमही में जन्मे प्रेमचंद की कहानियों में आज भी किसान और गांव का दर्द है। प्रेमचंद महज 56 वर्ष की उम्र में 8 अक्टूबर 1936 को ये दुनिया छोड़ गए।

Jamshed SiddiquiJamshed Siddiqui   8 Oct 2020 7:46 AM GMT

कथाकार प्रेमचंद पर विशेष: मुंशी और प्रेमचंद 2 अलग-अलग लोग थे फिर ये नाम कैसे पड़ामुंशी प्रेमचंद  

हिंदी साहित्य के लिए काम करने वालों में यूं तो तमाम नाम हैं, लेकिन मुंशी प्रेमचंद उन तमाम नामों में ऐसा नाम है जो हर मध्यमवर्गीय शहरी की रहनुमाई करता है। प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी के पास लमही गांव में हुआ। अपनी कहानियों में किसान और गांव का दर्द बताने वाले प्रेमचंद 56 वर्ष की उम्र में 8 अक्टूबर 1936 को ये दुनिया छोड़ गए। प्रेमचंद के पिता का नाम अजायबराय था जो की लमही में ही डाकघर के मुलाज़िम थे और इनकी मां का नाम आनंदी देवी था। मुंशी प्रेमचन्द का असल नाम धनपतराय श्रीवास्तव था लेकिन इन्हें मुंशी प्रेमचंद और नवाब राय के नाम से ज्यादा जाना जाता है।

नए दौर की हिंदी कहानी के जनक कहे जाने वाले प्रेमचंद का उर्दू से बचपन से ही गहरा रिश्ता रहा। उन्होंने साल 1901 यानि 21 साल की उम्र में पहली कहानी लिखी थी। उनका पहला कहानी संग्रह 'सोज़ ए वतन' था जो 1908 में प्रकाशित हुआ, वो इस कदर देशभक्ति से ओत-प्रोत था कि अंग्रेज़ों ने उसपर रोक लगा दी, लेकिन प्रेमचंद उस अड़चन से डरे नहीं। गांधीजी के कहने पर उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी और साल 1930 में बनारस शहर से अपनी मासिक पत्रिका 'हंस' की शुरुआत की, इसके बाद 1934 में वे मुंबई चले गये जहां उन्होंने फिल्म 'मजदूर' के लिए कहानी लिखी, जो साल 1934 में रिलीज़ हुई। ये और बात है कि उन्हें बंबई की ज़िंदगी पसंद नहीं आई और वो वापस बनारस लौट आए।

उन्होंने अपनी ज़िंदगी में तकरीबन 15 उपन्यास, 3 नाटक, 7 से भी ज़्यादा बाल पुस्तकें लिखीं। इसके अलावा उन्होंने 'हंस' समेत तमाम पत्र-पत्रिकाओ का संपादन किया।

मुंशी प्रेमचंद की रचनाएं

प्रेमचंद के ख़त

प्रेमचंद जी की दोस्ती मशहूर लेखक बनारसी दास चतुर्वेदी से थी। दोनों के बीच अक्सर खत ओ किताबत हुआ करती थी। इस सिलसिले में बनारसी दास चतुर्वेदी ने प्रेमचंद के इंतकाल के बाद उनके संस्मरणों पर आधारित एक किताब लिखी, जिसका नाम था – 'स्वर्गीय प्रेमचंद जी' इस किताब में उन्होंने उन दो ख़तों को भी शामिल किया है जो प्रेमचंद जी ने साल 1930 और 1935 में उन्हें लिखे थे। इन ख़तों को पढ़कर प्रेमचंद जी के व्यक्तित्व का अंदाज़ा लगाया जा सकता है, उनकी सादा मिज़ाजी, उनका देश प्रेम और फकीराना अंदाज़ इन ख़तों से झलकता है। गांव कनेक्शन 'महफ़िल' के पाठकों के लिए हम वो दोनों ख़त यहां लगा रहे हैं।

"मेरी आकांक्षाएं कुछ नहीं है। इस समय तो सबसे बड़ी आकांक्षा यही है कि हम स्वराज्य संग्राम में विजयी हों। धन या यश की लालसा मुझे नहीं रही। खानेभर को मिल ही जाता है। मोटर और बंगले की मुझे अभिलाषा नहीं। हाँ, यह जरूर चाहता हूँ कि दो चार उच्चकोटि की पुस्तकें लिखूं, पर उनका उद्देश्य भी स्वराज्य-विजय ही है। मुझे अपने दोनों लड़कों के विषय में कोई बड़ी लालसा नहीं है। यही चाहता हूं कि वह ईमानदार, सच्चे और पक्के इरादे के हों। विलासी, धनी, खुशामदी सन्तान से मुझे घृणा है। मैं शान्ति से बैठना भी नहीं चाहता। साहित्य और स्वदेश के लिए कुछ-न-कुछ करते रहना चाहता हूँ। हाँ, रोटी-दाल और तोला भर घी और मामूली कपड़े सुलभ होते रहें।"
3 जून 1930, बनारसी दास चतुर्वेदी के नाम प्रेमचंद का खत

प्रेमचंद का एक अन्य ख़त

जो व्यक्ति धन-सम्पदा में विभोर और मगन हो, उसके महान पुरुष होने की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता। जैसे ही मैं किसी आदमी को धनी पाता हूँ, वैसे ही मुझपर उसकी कला और बुद्धिमत्ता की बातों का प्रभाव काफूर हो जाता है। मुझे जान पड़ता है कि इस शख्स ने मौजूदा सामाजिक व्यवस्था को - उस सामाजिक व्यवस्था को, जो अमीरों द्वारा गरीबों के दोहन पर अवलम्बित है-स्वीकार कर लिया है। इस प्रकार किसी भी बड़े आदमी का नाम, जो लक्ष्मी का कृपापात्र भी हो, मुझे आकर्षित नहीं करता। बहुत मुमकिन है कि मेरे मन के इन भावों का कारण जीवन में मेरी निजी असफलता ही हो। बैंक में अपने नाम में मोटी रकम जमा देखकर शायद मैं भी वैसा ही होता, जैसे दूसरे हैं -मैं भी प्रलोभन का सामना न कर सकता, लेकिन मुझे प्रसन्नता है कि स्वभाव और किस्मत ने मेरी मदद की है और मेरा भाग्य दरिद्रों के साथ सम्बद्ध है। इससे मुझे आध्यात्मिक सान्त्वना मिलती है।
1 दिसंबर 1935 को बनारसी दास चतुर्वेदी के नाम प्रेमचंद का ख़त

स्लाइड में देखें मुंशी प्रेमचंद का घर

मुंशी और प्रेमचंद दो अलग-अलग लोग थे

प्रेमचंद ने अपने नाम के आगे 'मुंशी' शब्द का इस्तेमाल खुद कभी नहीं किया। न किसी ख़त में इसका ज़िक्र मिलता है न किसी समकालीन लेखकों के संस्मरणों में, हां, साल 1937 की 'हंस' पत्रिका में वो अपने उपनाम 'नवाबराय' पर मज़ाक करते हुए ज़रूर पढ़े गए। दरअसल बाद में उन्होंने ये नाम छोड़ दिया था।

उस संस्करण में एक किस्सा था, जब लेखक और उनके दोस्त सुदर्शन जी ने उनसे पूछा – "आपने नवाबराय नाम क्यों छोड़ दिया?" तो प्रेमचंद ने कहा "नवाब वह होता है जिसके पास कोई मुल्क हो। हमारे पास मुल्क कहां?" सुदर्शन बोले "बे-मुल्क नवाब भी होते हैं" प्रेमचंद ने मुस्कुरा कर जवाब दिया "यह कहानी नाम हो जाय तो बुरा नहीं, मगर अपने लिए यह घमंडपूर्ण है। चार पैसे पास नहीं और नाम नवाबराय। इस नवाबी से प्रेम भला, जिसमें ठंडक भी है, संतोष भी" पर सवाल ये है कि जब प्रेमचंद ने अपने नाम के आगे कभी 'मुंशी' नहीं लगाया तो उनका नाम 'मुंशी प्रेमचंद' कैसे पड़ा। दरअसल इसकी वजह भी 'हंस'पत्रिका है। हुआ यूं कि 'मुंशी' शब्द असल में 'हंस' के सह-संपादक कन्हैयालाल मुंशी के साथ लगता था। क्योंकि संपादक दोनों थे इसलिए संपादको के नाम की जगह पर 'मुंशी, प्रेमचंद' लिखा जाता था। ये सिलसिला लंबा चला। कई बार ऐसा भी हुआ कि छपाई के दौरान में अल्पविराम न छपने की वजह से नाम 'मुंशी प्रेमचंद' छप जाता था, लगातार ऐसा छपने के बाद लोगों ने इसे एक ही नाम समझ लिया और इस तरह प्रेमचंद 'मुंशी प्रेमचंद' हो गए।

जय शंकर प्रसाद के साथ मुंशी प्रेमचंद

दूरदर्शन पर मुंशी प्रेमचंद की कहानियां

दूरदर्शन ने एक बार प्रेमचंद की कहानियों को छोटे पर्दे पर उतारा था, इस श्रृंखला में पंकज कपूर जैसे कई मंझे हुए कलाकारों ने काम किया था, ये सीरीज़ काफी पंसद की गई थी। महान लेखक मुंशी प्रेमचंद की सालगिरह के मौके पर आइये देखें उनकी कलम से निकली कहानी 'कफ़न'

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